राम रमझानी यारी जीवके ॥
घटमें प्रान अपान दुहाई, अरध उरध आवै अरु जाई ॥
लेके प्रान अपान मिलावै वाही पवनतें गगन गरजावै ॥
गरजै गगन जो दामिनि दमकै मुक्ताहल रिमझिम तहँ बरखै ॥
वा मुक्तामहँ सुरति पिरोवै सुरति सब्द मिलि मानिक होवै ॥
मानिक जोति बहुत उजियारा, कह 'यारी' सोइ सिरजनहारा ॥
साहब सिरजनहार गुसाईं, जामें हम, सोई हम मँही ॥
जैसे कुंभ नीर बिच भरिया, बाहर-भीतर खालिक दरिया ॥
उठ तरंग तहँ मानिक मोती, कोटिन चंद सूरकै जोती ॥
एक किरिनिका सकल पसारा, अगम पुरुष सब कीन्ह नियार ॥
उलटि किरिन जब सूर समानी, तब आपनि गति आपुहि जानी ॥
कह 'यारी' कोई अवर न दूजा, आपुहिं ठाकुर आपहिं पूजा ॥
पूजा सत्त पुरुषका कीजै, आपा मेति चरन चित दीजै ॥
उनमुनि रहनि सकलकोत्यागी, नवधा प्रीति बिरह बैरागी ॥
बिनु बैराग भेद नहिं पावै, केतो पढ़ि-पढ़ि रचि-रचि गावै ॥
जो गावै ताको अरथ बिचार, आपु तरै, औरनको तारे ॥