वह सभी प्रकार दीन था । बाल्यकालमें तो अत्यन्त सुन्दर मनोहर एक पुष्ट बालक था, पर पीछे सभी अङ्गोंसे प्रायेण विकलाङ्ग हो गया था । उसकी अब भी जब कभी स्मृति हो जाती है -- विशुद्ध भगवद्भक्तका रुप हदयमें खिंच जाता है । नम्रता और विनयकी तो मानो वह मूर्ति ही था । अधिक पढ़ा - लिखा न होनेपर भी महामना विद्वान् - जैसा था । उसके मुखमें सभी समाधानोंके लिये ' नट मर्कट इव सबहिं नचावत । राम खगेस बेद अस गावत ॥' इस चौपाईका सर्वदा वास रहता था । रामायणका हदयसे प्रेमी था तथा शङ्का - समाधानोंमें दिव्य आनन्द पाता था । प्रायः कुछ घंटोंमें ही ' मूलरामायण ' के सभी श्लोकोंको कण्ठाग्रकर उसने अपनी विलक्षण स्मरण - शक्तिका परिचय दिया था । भगवानकी कथा जहाँ और जब भी होती हो, चाहे वह महीनोंतक क्यों न होती रहे, अस्वस्थता तथा पङ्गुकी दशामें भी पहुँच ही जाता था । भगवच्चर्चा या कथा - श्रवणमें उसके नेत्रोंसे अविरल अश्रुप्रवाह तथा कभी - कभी दिव्य हषोंद्रेक उमड़ पड़ता था । नामका वह अकिञ्चन प्रेमी तथा और कहा करता था कि ' लोग बेकार ही हल्ला करते हैं । पता नहीं वे क्या चाहते हैं । यदि कुछ काम कर, किसीकी नौकरी कर भृतिमात्र प्राप्त करना ही उन्हें इष्ट है, तब तो संसारके जीवमात्र ही भगवानके कैङ्कर्यमें सदाके लिये ( Permanent ) नियुक्ति प्राप्त कर चुके हैं । भृति भी उनसे बढ़कर कौन देगा ? ये लोग क्यों नहीं बराबर ' राम - राम ' इस अदभुत अमृतोपम वर्णद्वयीका जप करते हैं ?'
सचमुच एक आदर्श भगवद्भक्त तो वही है, जो भगवत्कृपा प्राप्तकर, अथच विश्वके सम्पूर्ण पदार्थोका आधिपत्य प्राप्त कर लेनेपर भी स्वयं सुखोंसे बिल्कुल दूर रहे । अपनेको तृणसे भी सुनीच तथा तरुसे भी सहिष्णु बनाये रक्खे और बराबर दूसरोंके उपकारोंको ध्यान रक्खे और अपनी विद्वत्ता, आढ्यता, प्रगल्भता आदिको लेशमात्र भी प्रकट न होने दे ।' काम - क्रोधादिकोंका तो कोई प्रश्न ही नहीं --
रमा बिलासु राम अनुरागी । तजत बमन जिमि जन बड़भागी ॥
राम चरन पंकज रति जिनहीं । विषय भोग बस करै कि तिनहीं ॥
सबहि मानप्रद आपु अमानी । भरत प्रानसम मग ते प्रानी ॥
आढ्यताके अतिरिक्त प्रायः उसमें ये सभी लक्षण मौजूद थे । वह दुराचारियोंको भी बड़े सौम्य तथा मधुर शब्दोंमें उन्मार्गसे विरत होनेकी प्रार्थना करता था । ऐसी कितनी घटनाएँ मेरे सामने हुई हैं ।
वह अत्यन्त साधारण राजपूतपरिवारमें उत्पन्न हुआ । उसका सारा प्रायः चौंतीस वर्षोंका जीवन नानाविध संकटोंमें ही गया; पर उसकी भगवद्भक्तिनिष्ठा तो ' गाङ्गैवौघमुदन्वति ' की भाँति अनुदिन बढ़ती ही गयी और अन्ततक भी वह भगवत्सरणरत रहा । कष्टोंकी याद दिलानेपर भी वह प्रभुकी विलक्षण कृपा तथा कर्म - भोगोंकी बात कहकर सबको धैर्य देता रहा । कई महीनोंकी लंबी बीमारी भोगकर २००० विक्रमीके माघ शुक्ल पञ्नमीको वह गीता, रामायण, भगवन्नाम श्रवण करता हुआ ऐहिक शरीरसे मुक्त हुआ । उसके मरनेके समय एक विलक्षण बात तो हुई ही । उसके अनुज शिवविहारीसिंहने भी स्वयं उसके साथ परलोक जानेकी हार्दिक प्रार्थना की और पूरा सप्ताह भी नहीं बीत पाया कि वह भी चल बसा । जो हो, आजके विषम वातावरणमें वैसी विभूतियाँ देखनेमें बहुत कम आती हैं; उसमें भी जब साम्प्रदायिकताका नाम लेकर सनातनधर्मको मिटानेके लिये ही जब भारत - सरकारकी सम्पूर्ण शक्तिके व्यय करनेका डंका पीटा जाता है, तब क्या पता कि भारतमाताके नसीबमें क्या बदा है ?