कुम्भनदासजी

भक्तो और महात्माओंके चरित्र मनन करनेसे हृदयमे पवित्र भावोंकी स्फूर्ति होती है ।


कुम्भनदास परम भगवद्भक्त, आदर्श गृहस्थ और महान् विरक्त थे । वे निःस्पृह, त्यागी और महासन्तोषी व्यक्ति थे । उनके चरित्रकी विशिष्ट अलौकिकता यह है कि भगवान् साक्षात् प्रकट होकर उनके साथ सखाभावकी क्रीड़ाएँ करते थे ।

कुम्भनदासका जन्म गोवर्धनके सन्निकट जमुनावतो ग्राममें संवत् १५२५ वि० में चैत्र कृष्ण एकादशीको हुआ था । वे गोरवा क्षत्रिय थे । उनके पिता एक साधारण श्रेणीके व्यक्ति थे । खेती करके जीविका चलाते थे । कुम्भनदासने भी वैतृक वृत्तिमें ही आस्था रक्खी और किसानीका जीवन ही उन्हें अच्छा लगा । परासोलीमें विशेषरुपसे खेतीका कार्य चलता था । उन्हें पैसेका अभाव आजीवन खटकता रहा, पर उन्होंने किसीके सामने हाथ नहीं पसारा । भगवदभक्ति ही उनकी सम्पत्ति थीं । उनका कुटुम्ब बहुत बड़ा था, खेतीकी आयसे ही उसका पालन करते थे ।

महाप्रभु वल्लभार्यजी उनके दीक्षा गुरु थे । संवत् १५५० वि० में आचार्यकी गोवर्धन - यात्राके समय उन्होंने ब्रह्मसम्बन्ध लिया था । उनके दीक्षा - कालके पंद्रह साल पूर्व श्रीनाथजीकी मूर्ति प्रकट हुई थी, आचार्यकी आज्ञासे वे श्रीनाथजीको सेवा करने लगे । नित्य नये पद गाकर सुनाने लगे । पुष्टि - सम्प्रदायमें सम्मिलित होनेपर उन्हें कीर्तनकी ही सेवा दी गयी थी । कुम्भनदास भगवत्कृपाको ही सर्वोपरि मानते थे, बड़े - से - बड़े घरेलू संकटमें भी वे अपने आस्था - पथसे कभी विचलित नहीं हुए ।

श्रीनाथजीके श्रृङ्गारसम्बन्धी पदोंकी रचनामें उनकी विशेष अभिरुचि थी । एक बार श्रीवल्लभाचार्यजीने उनके युगललीलासम्बन्धी पदसे प्रसन्न होकर कहा था कि ' तुम्हें तो निकुञ्जलीलाके रसकी अनुभूति हो गयी ।' कुम्भनदास महाप्रभुकी कृपासे गदगद होकर बोल उठे कि ' मुझे तो इसी इसकी नितान्त आवश्यकता है ।'

महाप्रभु वल्लभाचार्यके लीला - प्रवेशके बाद कुम्भनदास गोसाई विद्वलनाथके संरक्षणमें रहकर भगवानका लीला - गान करने लगे । विद्वलनाथजी महाराजकी उनपर बड़ी कृपा थी । वे मन - ही - मन उनके निर्लोभ - जीवनकी सराहना किया करते थे । संवत् ६०२ वि० में अष्टछापके कवियोंमें उनकी गणना हुई । बड़े - बड़े राजा - महाराजा आदि कुम्भनदासका दर्शन करनेमें अपना सौभाग्य मानते थे । वृन्दावनके बड़े - बड़े रसिक और संत - महात्मा उनके सत्सङ्गकी उत्कट इच्छा किया करते थे । उन्होंने भगवदभक्तिका यश सदा अक्षुण्ण रक्खा, आर्थिक संकट और दीनतासे उसे कभी कलंकित नहीं होने दिया ।

एक बार श्रीविद्वलनाथ उन्हें अपनी द्वारिका - यात्रामें साथ ले जाना चाहते थे; उनका विचार था कि वैष्णवोंकी भेंटसे उनकी आर्थिक परिस्थिति सुधर जायगी । कुम्भनदास श्रीनाथजीका वियोग एक पलके लिये भी नहीं सह सकते थे; पर उन्होंने गोसाईजीकी आज्ञाका विरोध नहीं किया । वे गोसाईजीके साथ अप्सराकुण्डतक ही गये थे कि श्रीनाथजीके सौन्दर्य - स्मरणसे उनके अङ्ग - अङ्ग सिहर उठे, भगवानकी मधुर - मधुर मन्द मुसकानकी ज्योत्स्ना विरह - अन्धकारमें थिरक उटी, माधुर्यसम्राट नन्दनन्दनकी विरह - वेदनासे उनका हदय घायल हो चला । उन्होंने श्रीनाथजीके वियोगमें वियोगमें एक पद गाया --

केते दिन जु गए बिनु देखैं ।

तरुन किसोर रसिक नँदनंदन, कछुक उठति मुख रेखैं ॥

वर सोभा, वह कांति बदन की, कोटिक चंद बिसेखैं ।

वह चित्तवन, वह हास मनोहर, वह नटवर बपु भेखैं ॥

स्याम सुँदर सँग मिलि खेलन की आवति हिये अपेखैं ।

' कुंभनदास ' लाल गिरिधर बिनु जीवन जनम अलेखैं ॥

श्रीगोसाईजीके हदयपर उनके इस विरह - गीतका बड़ा प्रभाव पड़ा । वे नहीं चाहते थे कि कुम्भनदास पलभरमे लिये भी श्रीनाथजीसे अलग रहें । कुम्भनदासको उन्होंने लौटा दिया । श्रीनाथजीका दर्शन करके कुम्भनदास स्वस्थ हुए ।

एक बार अकबरकी राजसभामें एक गायकने उनका पद गाया, बादशाहने उस पदसे आकृष्ट होकर कुम्भनदासको फतहपुर सीकरी बुलाया । पहले तो कुम्भनदास जाना नहीं चाहते थे, पर सैनिक और दूतोंका विशेष आग्रह देखकर वे पैदल ही गये । श्रीनाथजीके सभासदस्यको अकबरका ऐश्वर्य दो कौड़ीका लगा । कुम्भादासको पगड़ी फटी हुई थी, तनिया मैली थी; वे आत्मग्लानिमें डूब रहे थे कि किस पापके फलस्वरुप उन्हें इनके सामने उपस्थित होना पड़ा । बादशाहने उनकी बड़ी आवभगत की । पर कुम्भनदासको तो ऐसा लगा कि किसीने उनको नरकमें ला खड़ा कर दिया है । वे सोचने लगे कि राजसभासे तों कहीं उत्तम व्रज है, जिसमें स्वयं श्रीनाथजी खेलते रहते हैं, अनेकों क्रीड़ाएं करते रहते हैं । कबरने पद गानेकी प्रार्थना की । कुम्भनदास तो भगवान् श्रीकृष्णके ऐश्वर्य माधुर्यके कवि थे, उन्होंने पद - गान किया --

मगत को कहा सीकरी काम ।

आवत जात पन्हैयाँ टूटीं, बिसरि गयो हरिनाम ॥

जाको मुख देखैं दुख लागै, ताको करनो पर्‍यो प्रनाम ।

' कुंभनदास ' लाल गिरिधर बिनु और सबे बेकाम ॥

बादशाह सहदय थे, उन्होंने आदरपूर्वक उनको घर भेज दिया । संवत् १६२० वि० में महाराज मानसिंह व्रज आये थे । उन्होंने वृन्दावनके दर्शनके बाद गोवर्धनकी यात्रा की । श्रीनाथजीके दर्शन किये । उस समय मृदंग और वीणाके साथ कुम्भनदासजी कीर्न कर रहे थे । राजा मानसिंह उनकी पद - गान - शैलीसे बहुत प्रभावित हुए । वे उनसे मिलने जमुनावतो गये । कुम्भनदासकी दीन - हीन दशा देखकर वे चकित हो उठे । कुम्भनदास भगवानके रुप - चिन्तनमें ध्यानस्थ थे । आँख खुलनेपर उन्होंने भतीजीसे आसन और दर्पण माँगे, उत्तर मिला कि ' आसन ( घास ) पड़िया खा गयी, दर्पण ( पानी ) भी पी गयी ।' आशय यह था कि पानीमें मुख देखकर वे तिलक करते थे । महाराजा मानसिंहको उनकी निर्धनताका पता लग गया । उन्होंने सोनेका दर्पण देना चाहा, भगवानके भक्तने अस्वीकार कर दिया; मोहरोंकी थैली देनी चाही ' विश्वपतिके सेवकने उसकी उपेक्षा कर दी । चलने समय मानसिंहने जमुनावतो गाँव कुम्भनदासके नाम करना चाहा; पर उन्होंने कहा कि ' मेरा काम तो करीलके पेड़ और बेरके वृक्षसे ही चल जाता है ।' राजा मानसिंहाने उनकी निःस्पृहता और त्यागकी सराहना की, उन्होंने कहा कि ' मायाके भक्त तो मैंने बहुत - से देखे हैं, पर वास्तविक भगवदभक्त तो आप ही हैं ।'

वृद्धावस्थामें भी कुम्भनदास नित्य जमुनावतोसे श्रीनाथजी के दर्शनके लिये गोवर्धन आया करते थे । एक दिन संकर्षणकुण्डपर आन्योरके निकट वे ठहर गये । अष्ठछापके प्रसिद्ध कवि चतुर्भुजदासजी, उनके छोटे पुत्र, साथ थे । उन्होंने चतुर्भुजदाससे कहा कि ' अब घर चलकर क्या करना है । कुछ समय बाद शरीर ही छूटनेवाला है ।' गोसाई विठ्ठलनाथकि ' इस समय मन किस लीलामें लगा है ?' कुम्भनदसने कहा, ' लाल तेरी चितवन चितहि चुरावै ' और इसए अनन्तर युगल - स्वरुपकी छविके ध्यानमें पद गाया --

रसिकनी रस में रहत गड़ी ।

कनक बेलि वृषमानुनंदिनी स्याम तमाल चढ़ी ॥

बिहरत श्रीगिरिधरन लाल सँग, कोने पाठ पढ़ी ।

' कुँमनदास ' प्रभु गोबरधनधर रति रस केलि बढी़ ॥

उन्होंने शरीर छोड़ दिया । गोसाईजीने करुणस्वरसे श्रद्धाञ्जलि अर्पित की कि ऐसे भगवदीय अन्तर्धान हो गये । अब पृथ्वीपर सच्चे भगवदभक्तोंका तिरोधान होने लगा है । वास्तवमें कुम्भनदासजी निःस्पृहताके प्रतीक थे, त्याग और तपस्याके आदर्श थे, परम भगवदीय और सीधे - सादे गृहस्थ थे । संवत् १६३९ वि० तक वे एक सौ तेरह सालकी उम्र पर्यन्त जीवित रहे ।

N/A

References : N/A
Last Updated : January 16, 2012

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP