कूर्मदास ज्ञानदेव नामदेवके समकालीन एक ब्राह्मण थे । ये पैठणमें रहते थे । जन्मसे ही इनके हाथ पैर नहीं थे । जहाँ कहीं भी पड़े रहते, और जो कोई जो कुछ लाकर खिला देता, उसीसे निर्वाह करते थे । एक दिन पैठणमें कहीं हरिकथा हो रही थी । इन्होंने दूरसे उसकी ध्वनि सुनी और पेटके बल रेंगते हुए वहाँ पहुँचे । वहाँ उन्होंने पण्ढरपुरकी आषाढी़ - कार्तिकी यात्राका माहात्म्य सुना । कार्तिकी एकादशीमें अभी चार महीनेकी अवधि थी । कूर्मदासने पेटके बल चलकर तबतक पण्ढरपुर पहुँचनेका निश्चय किया । बस, उसी क्षण वहाँसे चल पड़े । एक कोससे अधिक वे दिनभरमें नहीं रेंग सकते थे । रातको कहीं ठहर जाते और भगवानकी उपस्थितिसे कोई - न - कोई उन्हें अन्न - जल देनेवाला मिल ही जाता था । इस तरह चार महीनेमें वे लहुल नामक स्थानमें पहुँचे । बस, अब कल ही एकादशी है और पण्ढरपुर यहाँसे सात कोस है । किसी तरहसे भी कूर्मदास वहाँ एकादशीको पहुँच नहीं सकते । झुंड - के - झुंड यात्री चले जा रहे हैं, पर कूर्मदास लाचार हैं । ' क्या इस अभागेको भगवानके दर्शन कल नहीं होंगे ? मैं तो वहाँतक कल नहीं पहुँच सकता । पर क्या भगवान् यहाँतक नहीं आ सकते ? वे तो चाहे जो कर सकते हैं ।' यह सोचकर उन्होंने एक चिट्ठी लिखी, ' हे भगवन् ! मैं वेहाथ - पैरका आपका दास यहाँ पड़ा हूँ, मैं कलतक आपके पास नहीं पहुँच सकता । इसलिये आप ही दया करके यहाँ आयें और मुझे दर्शन दें ।' यह चिट्ठी उन्होंने एक यात्रीके हाथ भगवानके पास भेज दी । दूसरे दिन, एकादशीको भगवानके दर्शन करके उस यात्रीने वह चिट्ठी भगवानके चरणोंमें रथ दी । लहुलमें कूर्मदास भगवानकी प्रतीक्षा कर रहे थे, जोर - जोरसे पुकार रहे थे, -- ' भगवन् ! कब दर्शन दोगे ? अभीतक क्यों नहीं आये ? मैं तो आपका हूँ न ?' इस प्रकार अत्यन्त व्याकुल होकर वे भगवानको पुकाराने लगे । परमकारुणिक पण्ढरीनाथ श्रीविठ्ठल ज्ञानदेव, नामदेव और साँवता माली, इन तीनोंके साथ कूर्मदासके सामने आकर खड़े हो गये । कूर्मदासने उनके चरण पकड़ लिये । तबसे भगवान् , जबतक कूर्मदास वहाँ थे, वहीं रहे । वहाँ श्रीविठ्ठलभगवानका जो मन्दिर है, वह इन्हीं कूर्मदासपर भगवानका मूर्त अनुग्रह है ।