कपिल

भक्तो और महात्माओंके चरित्र मनन करनेसे हृदयमे पवित्र भावोंकी स्फूर्ति होती है ।


अनिमित्ता भागवती भक्तिः सिद्धेगरीयसी ।

अरयत्याशु था कोशं निगीर्णमनलो यथा ॥ स्स

( श्रीमद्भा० ३।२५।३३ )

भगवान् ही इस सृष्टिके आदिकारण हैं । वे सर्वेश्वर अपने संकल्पसे ही इस जगतका विस्तार करते हैं और फिर वे ही सर्वशक्तिमान् इसका पालन भी करते हैं । जीवोंके कल्याणके लिये वे दयामय विभिन्न रुप धारण करके जगतमें आते हैं । वे ही परम प्रभु मनु एवं प्रजापतिरुपसे जगतके प्राणियोंका पालन करते हैं । वे उदारचरित ही ऋषि एवं योगेश्वररुपसे इस भवसागरसे पार होनेका मार्ग बतलाते है और उसपर स्वयं चलकर आदर्श रखते हैं संसारके लिये । उन लीलामयकी इस विश्वलीलाका तात्पर्य ही है कि अनादि कालसे माया - मोहित त्रितापतप्त जीव उन दयाधाम आनन्द सागरको प्राप्त कर ले । अतः वे प्राणियोंके जीवनका ही रक्षण नहीं करते, उन प्राणियोंके कल्याणके साधनोंका भी वे ही प्रवर्तन एवं रक्षण करते हैं । ज्ञान एवं साधनोंकी परम्परा ते अपने उपदेशोंसे विस्तृत करते हैं और अपने तपसे फिर उसकी रक्षा करते हैं । श्रीनर - नारायण, कपिल, व्यास आदि भगवानके ऐसे ही अवतार - स्वरुप हैं ।

तत्त्वज्ञानका प्राणियोंको उपदेश करनेकें लिये सृष्टिवे प्रारम्भिक पाद्मकल्पके स्वायम्भुव मन्वन्तरमें ही प्रजापति कर्दमके यहाँ उनकी पत्नी देवहूतिसे भगवानने कपिलरुपमें अवतार ग्रहण किया । अपनी माता देवहूतिको ही भगवानने सर्वप्रथम तत्त्वज्ञान एवं भक्तिका उपदेश किया । मर्त्यलोकमें परमविरक्ता वे मनुपुत्री देवहूतिजी ही सर्वप्रथम भागवत - ज्ञानकी अधिकारिणी हुई और उसे प्राप्त करके उनका स्थूल शरीर भी दिव्य हो गथा । जब देवहूतिजी भगवान् कपिलद्वारा उपदेश किये भागवत - ज्ञानमें चित्तको एक करके सिद्धावस्थाको प्राप्त हो गयीं, तब उन्हें पतातक नहीं चला कि उनका शरीर कब गिर गया । उनका वह पावन देह द्रव होकर सरिता बन गया और अब प्राणियोंके लिये वह तीर्थ हैं ।

माताको भगवान् कपिलने जिस ज्ञानका उपदेश किया, उसका बड़ा सुन्दर वर्णन श्रीमद्भागवतके तीसरे स्कन्धमें है । ज्ञानके लिये आवश्यक है कि प्राणीके मनमें संसारके समस्त भोगोंसे वैराग्य हो । इस देहमें हड्डी, मज्जा, मांस, रक्त आदि अपवित्र वस्तुओंको छोड़कर और तो कुछ है नहीं । ऐसे घृणित देहमें आसक्त होकर प्राणी नाना प्रकारके अनर्थ करता है । फल यह होता है कि बड़े कष्टसे उसकी मृत्यु होती है । मृत्युके पश्चात् यमदूत उसे नाना प्रकारकी भीषण यातनाएँ देते हैं । अनेक नरकोंमे सहस्त्रों वर्श वह भयंकर कष्ट भोगता है । कदाचित् भगवानकी कृपासे ही वह इस लोकमें मनुष्ययोनिमें आ पाता है । यहाँ भी गर्भसे दुःख ही दुःख है । वाल्यकाल पराधीनता, विवशताके कष्टोंसे भरा है और युवावस्थामें काम - कोधादि विकार मनुष्यको अंधा कर देते हैं । वह नाना चिन्ताओंमें बराबर जलता रहता है । वृद्धावस्था तो दुःखरुप है ही । इस प्रकार यह समस्त जीवन क्लेशपूर्ण है । जब बराबर विचार करनेसे सत्कमोंके पुण्य प्रभावसे वैराग्यका चित्तमें उदय होता है, तब मनुष्य इस संसारके दुःखको समझ पाता है । भगवानके चरणोंमें अनुराग होनेसे, भगवानके नामका जप, उनकी मङ्गलमयी लीलाओंका ध्यान, उनके दिव्य गुणोंका कीर्तन करनेसे हदय शुद्ध होता है । निष्काम भक्तिके द्वारा भगवानमें चित्तको लगाये रहनेसे जीवको बन्धनमें रखनेवाले पाँचों कोश स्वयं धीरे - धीरे नष्ट हो जाते हैं । भक्तिसे निर्मल चित्तमें ही ज्ञानका उदय होता है । बिना भगवानकी शरण लिये हदय शुद्ध नहीं होता । अतः मनुष्यको बड़ी सावधानीसे संसारके दुःखरुप भोगोंसे मनको हटाकर भगवानके चरणोंमे लगाना चाहिये । यह भगवान कपिलके उपदेशका बहुत ही संक्षिप्त तात्पर्य है ।

माताको उपदेश देकर कपिलजी, आज जहाँ गङ्गासागरसंगम है, वहाँ चले गये । समुद्रने उन्हें स्थान दिया । सागरके भीतर वे अबतक तपस्या कर रहे हैं । भगवान् कपिल तो पीछेके तर्क - प्रधान लोगोंकी कल्पना है । भगवान् तो अपने तप तथा संकल्पसे विश्वकी ज्ञानपरम्पराकी रक्शा करते हुए स्थित हैं । अनेक अधिकारी साधक अनेक युगोंमे भगवानके दर्शन एवं उपदेश पाकर कृतार्थ हुए हैं ।

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Last Updated : January 22, 2014

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