प्रायः बहुत लोग ऐसा मानते है कि कर्मठी और करमैती एक ही बाईके दो नाम हैं; किंतु बात ऐसी नहीं है । श्रीनाभाजीने जिन करमैतीबाईका चरित्र लिखा है, वे काँथड्या कुलमें उत्पन्न पं० परशुराम राजपुरोहितकी इकलौती कन्या थीं । पं० परशुराम सेखावाटीके राजा सेखावतके राज - पण्डित और खंडेला ग्रामके निवासी थे । भक्तिमती करमैतीबाईका विवाह हो गया था और वे द्विरागमनके समय आधी - रातको घरसे श्रीवन भाग आयी थीं ।
किंतु कर्मठीजीका परिचय देते हुए अनन्यमालके रचयिता श्रीभगवतमुदितजीने लिखा है --
अब सुनि एक कर्मठी बाई ।
ताकी कथा परम सुखदाई ॥
विप्र एक पुरुषोत्तम नाम ।
काँथरिया बागर विश्राम ॥
कन्या एक तासु के भई ।
व्याहत ही विधवा हो गई ॥
तप व्रत सुचि संजम में रहै ।
तातें नाम कर्मठी कहै ॥
कर्मठीजीका यथार्थ नाम क्या था, कुछ पता नहीं; उनके घोर तपने ही उनका नाम कर्मठी रख दिया । कर्मठी बागर ग्राम ( राज-स्थान ) के काँथड्या ब्राह्मण श्रीपुरुषोत्तमजीकी इकलौती दुलारी थीं । दुर्भाग्यवश ये विवाहोपरान्त ही विधवा हो गयीं, इससे सनातन - धर्मके रीत्यनुसार जप, तप, व्रत और संयमोंका पालन करते हुए इन्होंने अपना वैधव्य - जीवन तपोमय बना दिया । कर्मठीजीका यह तपस्या - क्रम लगातार बारह वर्षोंतक एक - सा चलता रहा ।
कृपामय श्रीकृष्णकी कृपा कब किसपर कैसे होगी, कोई कह नहीं सकता । कृपाके रुपको न जान - समझकर भले ही कोई अज्ञ उस विधानको अमङ्गलमय कहने लगे, किंतु इससे क्या । उस प्रभु विधानका जो परिणाम होता है, उसका अनुभव करके प्रभु - प्रेमी भक्तका हदय आनन्दसे नाच उठता है ।
कर्मठीके प्रारम्भिक जीवनमें भी एक ऐसी घटना घटी । कालका भयानक चक्र चला और उनका पितृ कुल एवं पति - कुल पूर्णरुपसे समाप्त हो गया । दोनों पक्षोंमें कोई भी कर्मठीका अपना कहा जानेवाला न रह गया । जगतकी दृष्टिसे वे एकदम असहाय हो गयीं । एक तो परम सुन्दरी युवती और दूसरे विधवा । कर्मठीने एक वयोवृद्ध संत श्रीहरिदासका चरणाश्रय लिया, फिर कुछ दिनों पीछे वे सब ओरसे विरक्त होकर श्रीवन आ गयीं । श्रीवन आनेपर कर्मठीने महाप्रभु श्रीहित हरिवंशचन्द्रजीसे वैष्णवी - दीक्षा ली तथा उनके अनुगत होकर भजन - ध्यान, नाम - जप एवं सेवा - पूजा करने लगीं । उनका सारा समय श्रीकृष्ण - परिचर्य्या और नाम - कीर्तनमें ही व्यतीत होता । सत्सङ्ग और संतोंसे इन्हें अत्याधिक प्यार था । कभी असद् आलाप न करतीं और समयको व्यर्थ न जाने देती । कर्मठीजीको अपने इष्टदेव श्रीराधावल्लभलालजीके उत्सवोंमें बड़ा आनन्द मिलता, अतः भिक्षा माँगकर और सूत कातकर भी पैसे कमातीं और उस द्रव्यको श्रीठाकुरजीके उत्सवोंमें खर्च करके अपार सुखका अनुभव करती थीं ।
भक्ति और प्रेमके इन आचरणोंसे, प्रेमी संतोंके सङ्गसे और श्रीवनके निवाससे कर्मठीजीकी घोर कर्म निष्ठा शान्त हो गयी । उनके चित्तकी वासनाएँ क्षीण हो गयीं और वे कर्तृत्त्वाभिमानसे रहित होकर भक्तिके किसी गम्भीर समुद्रमें डूब गयीं -- सीधे शब्दोंमें गुरु - कृपासे वे एक सिद्ध संत हो गयीं ।
कुछ दिनोंके पश्चात् कर्मठीजीके जीवनमें एक घटना बड़े विषमरुपसे उपस्थित हुई, जिसने कर्मठीजीके जीवनको प्रकाशमें ला दिया और उसके सहारे अनेकों साधकोंने दिव्य उपदेश पाये । यह सब जानते हैं कि स्त्री - जाति अबला है और उसके ' प्रिय शत्रु ' हैं -- रुप - लावण्य एवं नारीत्व । यदि अबला असहाय, एकाकी हो और रुप - लावण्य उसके साथ हो तो लोलुप कामियोंका समुदाय उसे सच्चरित्र देखनेमें दुःख पाता है; वह उसके धर्म, रुप, यौवन और फिर सर्वस्वका हरण करना चाहता है, केवल अपनी नीचतापूर्ण क्षुद्र वासनाओंकी पूर्त्तिके लिये !
कर्मठी रुप - लावण्यमयी अबला युवती थीं; किंतु भगवदबलने उन्हें कैसी सबला कर दिखाया, यह नीचे लिखी घटनासे प्रकट होगा --
जब सम्राट् अकबरके भानजे अजीजबेगको मथुरा जिलेकी हाकिमी मिली, तब उसने अपने भाई हसनबेगको मथुराका शासन - प्रबन्ध करनेके लिये भेजा । मथुरामें कुछ दिन रहनेके बाद हसनबेगको श्रीवन देखनेकी सूझी और वह यहाँकी अलौकिक छटा देखनेके लिये श्रीवन आया भी । जिस समय वह श्रीवनका निरीक्षण करता हुआ यमुना - तटपर विचरण कर रहा था, उस समय उसने कर्मठीको स्त्रान करते हुए देखा । भीगे वस्त्रोंमे लिपटी अनुपम रुप - लावण्यमयी नव - युवतीको देखकर हसनवेगका चित्त अपने वशमें न रह सका । उसने पता लगाया कियह रुप - सौन्दर्यकी देवी कौन है ।
पूर्ण परिचय प्राप्त करके वह खुश हो गया; क्योंकि वह अच्छी तरह जानता था कि एक असहाय अवलाको अपने माया - जालमें फँसा लेना कुछ कठिन नहीं है । मथुरा आकर हसनवेगने एक जाल रचना चाहा । उसने कुलटाओंसे मिलकर सलाह की । उनमेंसे दो कुलटा दूतियाँ इस नीच कार्यके लिये तैयार हुई । उन दुष्टाओंने कहा -- ' कर्मठीको और किसी ढंगसे तो फँसाया जा नहीं सकता, वह हमारी बातोंपर विश्वास ही क्यों करगी । हाँ, यदि हम भक्तोंकासा वेष बना लें और उसके पास जायँ तो वह हमारा विश्वास और आदर करेगी, हमारी बात मानेगी भी ।'
यह सलाह हसनवेगको भी जँची । दूसरे दिन प्रातः काल वे दोनों भक्तवेषमें सजकर वृन्दावन गयीं और यमुनाके घाटपर ही कर्मठीसे मिलीं । उनकी भक्ति पूर्ण बातोंको सुनकर कर्मठी यह समझ नहीं सकीं कि ये विषके लडडू केवल ऊपरसे ही बूरेसे लपेटे गये हैं । कर्मठीने उनका आदर किया और उन्हें साथ - साथ अपनी कुटियातक लिवा लायीं । बहुत देरतक भगवच्चर्चा होती ही । अब तो वे प्रतिदिन इसी प्रकार प्रातःकाल आतीं और कर्मठीजीकी कुटियामें बैठकर घंटों सत्सङ्ग होता । धीरे - धीरे कर्मठीजीका उनसे स्नेह - सा हो गया । इस प्रकार कितने ही दिन बीते । एक दिन कुछ विलम्बसे आयीं । उनके आनेपर कर्मठीजीने सहज ही पूछ लिया, ' बहनो ! आज इतना विलम्ब कैसे हो गया ?' उन्होंने बनावटी प्रसन्नता और उल्लासमिश्रित सङ्कोचके साथ कहा -- ' माताजी ! क्या कहें, हमने चाहा तो बहुत कि आपकी सेवामें शीघ्र आ जायँ; किंतु न आ सकीं । क्योंकि हमारे घर एक बहुत बड़े संत पधारे हैं, उन्हींकी सेवामें विलम्ब हो गया ।'
' बहुत बड़े संत पधारे हैं', सुनकर कर्मठीजी, जिनके जीवनाधर संत ही थे, प्रसन्नतासे भर गयीं और बोलीं ' ब्रहनो ! क्या मुझे भी उन महापुरुषके दर्शन हो सकेंगे ?' उन वेषधारी भक्ताओंने कहा -- ' अवश्य - अवश्य; जब कल आप यमुना - स्नान करके लौटें, तब हमारी कुटिया जो भमुक स्थानपर है, वहींसे होती हुई आयें या हम ही आपको यमुनापर मिलें ।'
कुलटाओंने समझा हमारी दाल गल गयी । वे शीघ्र मथुरा आयीं और सारी बातें सुना - समझाकर हसनवेगको चुपके - से वृन्दावन ले आयीं । उन्होंने एक कुटियामें उसे ला बैठाया और उनमेंसे एक दूती दूसरे दिन प्रातःकाल यमुनापर कर्मठीजीसे जा मिली तथा उन्हें साथ लेकर अपनी कुटियापर संत दर्शनके लिये लिवा लायी । कर्मठीको कमरेके भीतर पहुँचाकर बोली - ' अरे ! मालूम होता है वह संत कहीं बाहर चले गये हैं । अच्छा, मैं उन्हें शीघ्र बुलाये लाती हूँ; तुम यहीं ठहरो ।' कहकर वह कमरेके बाहर चली गयी । चलते - चलते वह छिपे हुए हसनबेगको कर्मठीके आनेका संकेत कर गयी । कमरेके बाहर निकलकर उसने जलदीसे किवाङ लगाकर साँकल चढ़ा दी ।
कर्मठी अभीतक कुछ समझ न पायी थीं; किंतु जब उन्होंने हसनबेगको अपनी ओर आते देखा, तब उन दुष्टाओंकी सारी चाल समझ गयीं । वे घबराकर मन - ही - मन प्रभुसे अपनी लाज बचानेकी प्रार्थना करने लगीं । तबतक हसनबेग कर्मठीके समीप आकर बोला - ' सुन्दरि ! तुम जिस साधुका दर्शन करने आयी हो, वह साधु मैं ही हूँ ।'
यों कहकर वह कर्मठीको अपने आलिङ्गनमें बाँधनेके लिये लपका । कर्मठी डरके मारे चिल्ला उठीं और भागकर कमरेके एक कोनेमें जा चिपटीं तथा व्याकुल नेत्रोंसे इधर - उधर देखने लगीं । उनकी घबराहट देखकर हसनबेग अपनी विजयपर एक बार ठहाका मारकर हँसा और कहने लगा - ' यम रुप, यह यौवन, यह जवानी क्या इसलिये है कि इसे यमुनाके ठण्डे पानीमें गलाया जाय, तपस्याकी आगमें तपाया जाय ? परी ! मैं तुमसे प्यार करता हूँ । आओ, मेरी गोदमें आओ और सदाके लिये इस राज्यकी और मेरे हदयकी रानी बन जाओ ।'
हसनबेगके ये शब्द कर्मठीको बाण - से लगे । वे उसका तिरस्कार करती हुई रोषपूर्वक कहने लगीं - ' नीच ! नराधम ! पापी ! किसी अबलाकी लाज और उसका धर्म लूटते तुझे लज्जा नहीं आती ? मैं तो तुझे इसका अच्छा मजा चखा सकती हूँ, किंतु ........।'
इसके आगे वे और कुछ न कह सकीं । उन्हें अपने सर्व समर्थ गुरुदेवके द्वारा कहे ' सब सौं हित ' वाक्यका स्मरण हो आया । वे रोने लगीं । इधर तीव्र काम - वासनासे विकल, मदान्ध हसनवेग कर्मठीकी ओर बढ़ता चला आया । उसने कर्मठीका स्पर्श करना चाहा; किंतु देखता क्या है कि यह सुन्दरी नहीं, भयानक सिंह है और मुझे खाना चाहता है । बड़ी - बड़ी लाल - लाल क्रोधित आँखोंसे मेरी ओर घूर रहा है और गुस्सेसे भरा गुर्रा रहा है ।
सिंहको देखते ही उसकी काम - वासना रफूचक्कर हो गयी, उसके प्राण काँप गये, वह भागकर अपने प्राण बचानेकी कोशिश करने लगा । पर जाता कहाँ ? बाहरसे तो साँकल बंद थी । वह घबराकर बार - बार किवाड़ोंसे अपने हाथ पटकता और चिल्ला - चिल्लाकर किवाड़ खोलनेकी पुकार करता । उसका सारा शरीर मारे भयके काँप रहा था । उसने लौटकर देखा तो सिंह उसीकी ओर बढ़ा आ रहा था । क्रोधित सिंहको अपनी ओर आते देखकर भयके मारे मिर्जा हसनबेगका पाजामा बिगड़ गया और वह मूर्च्छित होकर दरवाजेके पास गिर पड़ा ।
जाने कितनी देरतक वह बेहोश पड़ा रहा, पीछे उसकी साधिका दूतियोंने किवाड़ खोले और उसे सचेत किया । तब वहाँ न तो कर्मठी थीं और न सिंह हीं ।
इस घटनासे हसनबेगको बड़ा आश्चर्य हुआ । कर्मठीसे सिंह हो जाने और फिर लोप हो जानेकी बात तीनोंको आश्चर्यमें डाल रही थी । अतः रहस्यका पता लगानेके लिये हसनबेगने उन दोनों कुलटाओंको फिर कर्मठीके पास भेजा । उन्होंने जाकर देखा कि कर्मठीजी अपने ठाकुरजीकी सेवापूजा कर रही हैं । उन्होंने कर्मठीजीको प्रणाम किया, पर कर्मठीजीने घटनाके विषयमें और न किसी अन्य विषयपर उनसे बात की । उन्होंने देखा कर्मठीजी प्रसन्न हैं । उनके मुखपर क्रोधका कोई चिह्न ही नहीं है । लौटकर उन्होंने सब समाचार हसनबेगको सुना दिया । हसनबेगपर इसका बड़ा प्रभाव पड़ा और वह बहुत - सा द्रव्य लेकर कर्मठीजीके पास गया; किंतु कर्मठीजीने उसमेंसे कुछ भी स्वीकार न करके सब धनको साधु - संतोकी सेवामें लगा देनेकी आज्ञा दी । हसनबेगने ऐसा ही किया ।
इस प्रकार श्रीकर्मठीबाईके सम्पूर्ण जीवनमें देखा गया कि उनमें अपने व्रतकी दृढ़ता, साधुसेवा और गुरुसेवाकी निष्ठाके साथ प्रभु - अनुराग, क्षमा, दया, कोमलता, सरलता, उदारता, निःस्पृहता और पवित्रता कूट - कूटकर भरी थी ।
श्रीकर्मठीजीके पुनीत चरणोंका स्मरण करते हुए चाचा श्रीहित वृन्दावनदासजीने लिखा है --
धन्य पिता धनि मात धन्य मति अबला जन की ।
तजी विषै संसार विहार निहारन मन की ॥
हसनबेग इक जमन देखि दुष्टता विचारी ।
करि ना हर की रुप त्रास दै नाथ उबारी ॥
श्रीहरिवंस प्रसाद तें बन फिरति मरी अनुराग की ।
हरि भजन परायन कर्मठी फबी निकाई भाग की ॥