भक्त कवि केशवका जन्म मोरवीमें हुआ था । पिताका नाम हरिराम और माताका नाम झबेरबाई था । वे जीवनमें सदा ही परमार्थ - चिन्तन, हरिभजन और प्रभुका नाम - गुण - गान करनेमें लगे रहे । उनके काव्यसे इसका पूरा पता मिलता है । उन्होंने ' केशव - कृति ' नामसे नीति, ज्ञान, वैराग्य और भक्तिरससे भरपूर्न एक ग्रन्थ लिखा है । उनका सारा जीवन बम्बईकी ' वेदधर्म - सभा ' की सेवामें अर्पित था और वहाँसे अवकाश लेकर ' आर्यधर्मप्रकाश ' मासिक पत्रमें सनातन धर्मकी उन्नति और आर्य - संस्कृतिकी रक्षाके लिये सदा अच्छे - अच्छे लेख लिखा करते थे और उसका प्रभाव जनताके ऊपर बहुत अच्छा पड़ता था । उनका अन्तःकरण भक्तिसे भरपूर था । भगवा वस्त्र पहने बिना ही उनका हदय आन्तरिक वैराग्यसे रँगा हुआ था । वे सदा ही प्रभुभक्तिमें मस्त रहते थे । संसारकी प्रत्येक वस्तुसे वासनाका त्यागकर कविका हदय भगवानके श्रीचरणोंमें विश्राम प्राप्त करता था । ईश्वर ही उनके सर्स्व थे । वह वात उनकी प्रत्येक कवितासे झलकती है ।
देहान्तके दो - एक दिन पहले उन्होंने अपने समस्त आत्मीयजनींको पास बुलाया और यह स्वरचित भजन सुनाया -- ( हिन्दी - अनुवाद )
हम यो आज तुम्हारे भाई ! दो दिनके मेहमान ।
सफल करो यह सहज समागम, सुखका यही निदान ॥
आये त्योंही चले जायँगे, हम सब एक समान ।
फिर कोई दिन नहीं मिलेंगे करनेको सन्मान ॥
निमै सदा सम्बन्ध परस्पर, रहे धर्ममें ध्यान ।
सद्गुण धारण करो - कराओ, दूर करो अभिमान ॥
लेश नहीं मेरे अन्तरमें मान और अपमान ।
हो यदि कुछ कड़वास हमारी, तो प्रिय ! कर लो पान ॥
केशव हरिने अति करुणा की, भ्रमो न भुलो मान ।
रहता तत्त्वज्ञान उसीको, हो न जरा अज्ञान ॥
यह भजन सुनाकर कविने सबको विदा किया और दो - हीं - तीन दिनोंके अंदर उनके प्राणपखेरु उड़कर प्रभुके चरणोंमें जा बैठे ।
काठियावाड़में केशव कविका यह भजन धर - धर गाया जाता है । यह भजन महात्मा गाँधीजीको बहुत प्रिय था ।
मारी नाड तमारे हाथे, हरि संभाळजो रे ।
मुजने पोतानो जाणीने प्रभु - पद पाळजो रे ॥
पथ्यापथ्य नथी समजातुं, दुःख सदैव रहे उमरतुं ।
अनादि आप बैद छो साचा, कोई उपाय विषे नहिं काचा ।
दिवस रह्या छे टाँचा, वेळा वाळजो रे ॥
विश्वेश्वर शुं हजी विसरो, बाजी हाथ छतां काँ हारो ।
महा मुंझारो मारो नटवर ! टाळजो रे ॥
' केशव ' हरि मारुँ शुं थाशे, घाण बळयो शुं गढ घेराशे ।
लाज तमारी जाशे, मूधर ! भाळजो रे ॥