श्रीशिवाजी महाराजके सद्गुरु श्रीसमर्थ रामदासस्वामी महाराजका नाम सभी जानते हैं । श्रीसमर्थ महाराजने अनेकों मठोंकी स्थापना की और उनमें अपने शिष्योंको नियुक्त किया । इन शिष्योंने श्रीशिवाजी महाराजको राजनीतिक क्षेत्रमें सहायता दी तथा मुसल्मानोंसे आतङ्कित हिंदू - जनताको निर्भय किया ।
एक समयकी बात है, श्रीसमर्थ महाराज और उनका शिष्यपरिवार कुछ दिनोंके लिये एकत्रित हुआ । शिष्योंमें परस्पर होड़ - सी लगी थी कि सद्गुरुकी सबसे बढ़कर सेवा कौन करता है और सभी प्रायः अपनेको सर्वोपरि सेवकके रुपये परिचय देनेके लिये लालायित थे । श्रीसद्गुरुसे भला यह बात कैसे छिपी रह सकती थी । इसलिये उन्होंने ' सच्ची कसौटीपर कौन शिष्य खरा उतरता है ' इसकी परीक्षाके लियीक लीला रची । एक दिन, जब कि समस्त शिष्यमण्डल उपस्थित था, वे जोरसे कराहने लगे । मानो कहीं उनके बड़ी पीड़ा हो रही हो । समस्त शिष्य घबरा गये और सधने समर्थ महाराजसे इसका कारण पूछा । स्वामीजीने कहा -- ' पुत्रो ! मेरी पिंडलीमें एक बड़ा भारी फोड़ा हो गया है और उसमें असह्य पीड़ा हो रही है ।' शिष्यमण्डलीसें हलचल - सी मच गयी । सभी शीघ्र चिकित्सा कराकर गुरुजीको आराम पहुँचनोके लिये आतुर हो उठे । कोई कुछ तो कोई कुछ उपचार करनेके लिये कहने लगा । स्वामीजीने कहा -- ' मुनो पुत्रो ! यह मेरा फोड़ा साधारण नहीं है और यह तुम्हारे किसी भी बाह्योपचारसे ठीक नहीं है और यह तुम्हारे किसी भी बाह्योपचारसे ठीक नहीं हो सकेगा ।' शिष्य आग्रहपूर्वक बोले -- ' महाराज ! कुछ - न - कुछ उपचार तो अवश्य ही होना चाहिये ।' स्वामी महाराजने उत्तर दिया -- ' हाँ, वत्सो ! इसके लिये एक ही उपचार हो सकता है और उससे तुरंत ही मेरी पीड़ा मिट जायगी; परंतु वह दुःसाध्य है ।' इतना कहकर वे चीख - चीखकर पुनः कराहने लगे । यह देखकर शिष्य बोले -- ' महाराज ! कैसा भी दुःसाध्य उपचार क्यों न हो, उसे करनेमें हमें अपने प्राणोंकी भी चिन्ता नहीं है; आप बतायें तो सही ।' स्वामीजी सब शिष्योंसे यही तो कहलवाना चाहते थे । उनके इतना कहते ही स्वामीजी बोले -- ' सुनो, इसका उपचार यह है कि कोई मनुष्य मेरे इस फोड़ेको मुँद्द लगाकर चूस ले । बस, मेरी वेदना तुरंत मिट जायगी, परंतु वह चूसनेवाला मर जायगा ।' स्वामीजीकी यह बात सुनते ही सब शिष्य एक दूसरेकी और तात्कने लगे । कोई भी इस कार्यके लिये आगे नहीं बढ़ा । अन्तमें ' कल्याण ' नामक शिष्य उठे और उन्होंने स्वामीजीसे फोड़ेपर वैंधी पट्टी खोलनेके किये कहा । स्वामीजीने कहा -- ' पट्टी खोलनेमें मुझे असह्य वेदना होगी, इसलिये पट्टी नहीं खोलनी है । हाँ, पट्टीमेंसे एक कोर्य़नपर फोड़ेका काला-सा मुँह दिख रहा है; बस, वहीति अपना कल्याणने सदगुरु - चरणपर सिर रक्खा और फोड़ेको मुंहमे लेकर चूसना आरम्भ कर दिया । फोड़ेमेसे चार - छः घूँट लेनेके बाद तो कल्याणने अपना मुँह फोडेपर सारी शक्तिसे लगा दिया और बड़े जोरसे चूसना आरम्भ किया । उसे बड़ा मधुर स्वाद मिल रहा था । स्वामीजी चिल्ला उठे -- ' अरे कल्याण ! धीरे, अरे धीरे !' धीरे, अरे धेरे ' पर कल्याण कब माननेवाले थे । कल्याण बोले --
महाराज ! आपके प्रतिदिन ऐसे ही फोडें हुआ करें और मैं उन्हें चूसा करुँ ।' इतना कहकर कल्याणाने यथाशक्ति सारा फोडा़ चूस डाला । अन्तमें स्वामीजीने पट्ठी खोली और पिंडलीपरसे तोतापुरी आमकी एक बड़ी गुठली और छिलका निकल पडा ।' यह देखकर सारे शिष्य लज्जित हो गये । पाठक समझ ही गये होंगे कि स्वामीजीने पके हुए मीठे लंबे तोतापुरी आमपर ही पट्टी बाँध ली थी ।
आगे चलकर अपनी अतुपम गुरुभक्तिसे कल्याण श्रीसमर्थ रामदास्वामी महाराजके प्रमुख शिष्य होकर ' कल्याण स्वामी ' के नामसे प्रसिद्ध हुए और इन्होंने बड़ा कार्य किया ।