अभिलाषा - इतना तो करना स्वामी !...

’अभिलाषा’के अंतर्गत भगवत्प्रेमी संतोंकी सुमधुर कल्याणमयी कामनाओंका दिग्दर्शन करानेवाले पदोंकी छटा भाव-दृष्टिके सामने आती है ।


इतना तो करना स्वामी ! जब प्राण तनसे निकले ।

गोविन्द नाम लेकर, फिर प्राण तनसे निकले ॥१॥

श्रीगंगाजीका तट हो, यमुनाका बंशी-वट हो ।

मेरे साँवरा निकट हो, जब प्राण तनसे निकले ॥२॥

श्रीवृन्दावनका स्थल हो, मेरे मुखमें तुलसी-दल हो ।

विष्णु-चरणका जल हो, जब प्राण तनसे निकले ॥३॥

सन्मुख साँवरा खड़ा हो, मुरलीका स्वर भरा हो ।

तिरछा चरण धरा हो,जब प्राण तनसे निकले ॥४॥

सिर सोहना मुकुट हो, मुखड़े पै काली लट हो ।

यही ध्यान मेरे घट हो, जब प्राण तनसे निकले ॥५॥

केसर तिलक हो आला, मुख चन्द्र-सा उजाला ।

डालूँ गले में माला, जब प्राण तनसे निकले ॥६॥

कानों जड़ाऊँ बाली, लटकी लटें हों काली ।

देखूँ छटा निराली, जब प्राण तनसे निकले ॥७॥

पीताम्बरी कसी हो, होठों पै कुछ हँसी हो ।

छबि यह ही मन बसी हो, जब प्राण तनसे निकले ॥८॥

पचरंगी काछनी हो, पट-पीतसे तनी हो ।

मेरी बात सब बनी हो, जब प्राण तनसे निकले ॥९॥

पग धो तृषा मिटाऊँ तुलसी का पत्र पाऊँ ।

सिर चरण-रज लगाऊँ, जब प्राण तनसे निकले ॥१०॥

आना अवश्य आना, राधे को साथ लाना ।

दर्शन मुझे दिखाना, जब प्राण तनसे निकले ॥११॥

जब कण्ठ प्राण आवे, कोई रोग ना सतावे।

यम दरश न दिखावे, जब प्राण तनसे निकले ॥१२॥

मेरा प्राण निकले सुखसे, तेरा नाम निकले मुखसे ।

बच जाऊँ घोर दु:खसे जब प्राण तनसे निकले ॥१३॥

उस वक्त जल्दी आना, नहीं श्याम ! भूल जाना ।

मुरलीकी धनु सुनाना, जब प्राण तनसे निकले ॥१४॥

सुधि होवे नाहिं तनकी, तैयारी हो गमनकी ।

लकड़ी हो ब्रज-वनकी, जब प्राण तनसे निकले ॥१५॥

यह नेक-सी अरज है, मानो तो क्या हरज है ?

कुछ आपका फरज है, जब प्राण तनसे निकले ॥१६॥

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Last Updated : January 22, 2014

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