पार्वती मंगल - भाग १५

पार्वती - मङ्गलमें प्रातःस्मरणीय गोस्वामी तुलसीदासजीने देवाधिदेव भगवान् शंकरके द्वारा जगदम्बा पार्वतीके कल्याणमय पाणिग्रहणका काव्यमय एवं रसमय चित्रण किया है ।


अरघ देइ मनि आसन बर बैठायउ ।

पूजि कीन्ह मधुपर्क अमी अचवायउ ॥१२१॥

सप्त रिषिन्ह बिधि कहेउ बिलंब न लाइअ ।

लगन बेर भइ बेगि बिधान बनाइअ ॥१२२॥

वरको अर्घ्य देकर मणिजटित आसनपर बैठाया गया और फिर पूजा करके मधुपर्क खिलानेकी रीति पूरी की गयी तथा आचमन कराया गया ॥१२१॥

तत्पश्र्चात् ब्रह्माने सप्तर्षियोंसे कहा कि ’विलम्ब न करो, लग्नका समय हो गया है । शीघ्र ही सब विधियाँ सम्पन्न करो’ ॥१२२॥

थापि अनल हर बरहि बसन पहिरायउ ।

आनहु दुलहिनि बेगि समय अब आयउ ॥१२३॥

सखी सुनआसिनि संग गौरि सुठि सोहति ।

प्रगट रुपमय मूरति जनु जग मोहति ॥१२४॥

तब अग्नि-स्थापना करके दूल्हे (श्रीशिवजी) को वस्त्र पहनाया गया और कह गया कि ’शीघ्र ही दुलहिनको लाओ, अब समय आ गया है’ ॥१२३॥

उस समय सखियों और ब्याही हुई (अन्य) लङकियोंके साथ पार्वतीजी अत्यन्त सुशोभित थीं, मानो सौन्दर्य -मूर्ति प्रकट होकर जगत् को मोह रही हो ॥१२४॥

भूषन बसन समय सम सोभा सो भली ।

सुषमा बेलि नवल जनु रुप फलनि फली ॥१२५॥

कहहु काहि पटतरिय गौरि गुन रुपहि ।

सिंधु कहिय केहि भाँति सरिस सर कूपहि॥१२६॥

समयके अनुकूल वस्त्र और आभूषणोंकी खूब शोभा हो रही है, मानो शोभाकी नवीन लतिका रुपमय फलोंसे फली हुई है ॥१२५॥

कहो, पार्वतीजीके गुणों एवं रुपकी तुलना किससे की जाय ! समुद्रको किस प्रकार तालाब और कुएँके बराबर बतलाया जाय ! ॥१२६॥

आवत उमहि बिलोकि सीस सुर नावहिं ।

भव कृतारथ जनम जानि सुख पावहिं ॥१२७॥

बिप्र बेद धुनि करहिं सुभासिष कहि कहि ।

गान निसान सुमन झरि अवसर लहि लहि ॥१२८॥

पार्वतीको आते देखकर देवतालोग सिर नवाते हैं और अपना जन्म कृतार्थ हुआ जानकर सुखी होते हैं ॥१२७॥

ब्राह्मणलोग आशीर्वाद दे-देकर वेदकी ध्वनि कर रहे हैं और समय-समयपर गान एवं नगरोंकी ध्वनि तथा फूलोंकी वर्षा हो रही है ॥१२८॥

बर दुलहिनिहि बिलोकि सकल मन हरसहिं ।

साखोच्चार समय सब सुर मुनि बिहसहिं ॥१२९॥

लोक बेद बिधि कीन्ह लीन्ह जल कुस कर ।

कन्या दान सँकलप कीन्ह धरनीधर ॥१३०॥

सब लोग दुलहा-दुलहिनको देखकर मन-ही-मन प्रफुल्लित होते हैं । शाखोच्चारके समय सब देवता और मुनिलोग हँसने लगे ॥१२९॥

फिर पर्वतराज हिमवान् ने सब प्रकारकी लौकिक-वैदिक विधियोंको करके हाथमें जल और कुश लिया तथा कन्यादानका संकल्प किया ॥१३०॥

पूजे कुल गुर देव कलसु सिल सुभ घरी ।

लावा होम बिधान बहुरि भाँवरि परि ॥१३१॥

बंदन बंदि ग्रंथि बिधि करि धुव देखेउ ।

भा बिबाह सब कहहिं जनम फल पेखेउ ॥१३२॥

कुलगुरु और कुलदेवताओंका पूजन किया गया । फिर उस शुभ घरीमें कलश और शिलाका पूजन किया गया । (तत्पश्र्चात् ) लावा-विधान (जिसमें कन्याका भाई कन्याकी गोदमें धानका लावा भरता है) और होम-विधान होकर फिर भाँवरें पड़ीं ॥१३१॥

(इसके अनन्तर) वधूकी माँगमें सिन्दूर भरनेकी रीति कर ग्रन्थिबन्धन हुआ और फिर ध्रुवका दर्शन किया गया । तब सब लोग कहने लगे कि विवाह सम्पन्न हो गया और हमलोगोंने जन्म लेनेका फल अपनी आँखोंसे देख लिया ॥१३२॥

पेखेउ जनम फलु भा बिबाह उछाह उमगहि दस दिसा ।

नीसान गान प्रसूत झरि तुलसी सुहावनि सो निसा ॥

दाइज बसन मनि धेनु धन हय गय सुसेवक सेवकी ।

दीन्हीं मुदित गिरिराज जे गिरिजहि पिआरी पेव की ॥१५॥

इस प्रकार सभीने अपना जन्मफल देखा । विवाह हो गया और दसों दिशाओंमें आनन्द उमड़ पड़ा । गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि नगारोंके घोष , गानकी ध्वनि और फूलोंकी वर्षासे वह रात्रि सुहावनी हो गयी । पर्वतराज हिमवान् ने वस्त्र, मणियाँ, गौ धन, हाथी, घोड़े,दास, दासियाँ- जो कुछ भी गिरिराजको प्रिय थे, वे सभी प्रेमपूर्वक दहेजमें दिये ॥१५॥

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Last Updated : January 22, 2014

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