देखि दसा करुनाकर हर दुख पायउ ।
मोर कठोर सुभाय हदयँ अस आयउ ॥४१॥
बंस प्रसंसि मातु पितु कहि सब लायक ।
अमिय बचनु बटु बोलेउ अति सुख दायक ॥४२॥
उस समय पार्वतीजीकी दशा देखकर दयानिधान शिवजी दुखी हो गये और उनके हृदयमें यह आया कि मेरा स्वभाव (बड़ा ही ) कठोर है । यही कारण है कि मेरी प्रसन्नताके लिये साधकोंको इतना तप करन पड़ता है) ॥४१॥
तब वह ब्रह्मचारी पार्वतीजीके वंशकी प्रशंसा करके और उनके माता-पिताको सब प्रकारसे योग्य कह अमृतके समान मीठे और सुखदायक वचन बोला ॥४२॥
देबि करौं कछु बिनती बिलगु न मानब ।
कहउँ सनेहँ सुभाय साँच जियँ जानब ॥४३॥
जननि जगत जस प्रगटेहु मातु पिता कर ।
तीय रतन तुम उपजिहु भव रतनाकर ॥४४॥
शिवजीने कहा - ’हे देवि ! मैं कुछ विनती करता हूँ, बुरा न मानना । मैं स्वाभाविक स्त्रेहसे कहता हूँ, अपने जीमें इसे सत्य जानना ॥४३॥
तुमने संसारमें प्रकट होकर अपने माता-पिताका यश प्रसिध्द कर दिया । तुम संसारसमुद्रमें स्त्रियोंके बीच रत्न - सदृश उत्पन्न हुई हो’ ॥४४॥
अगम न कछु जग तुम कहँ मोहि अस सूझइ ।
बिनु कामना कलेस कलेस न बूझइ ॥४५॥
जौ बर लागि करहू तप तौ लरिकइअ ।
पारस जौ घर मिलौ तौ मेरु कि जाइअ ॥४६॥
’मुझे ऐसा जान पड़ता है कि संसारमें तुम्हारे लिये कुछ भी अप्राप्य नहीं है यह भी सच है कि निष्काम तपस्यामें क्लेश नहीं जान पड़ता ॥४५॥ परंतु यदि तुम वर ( दुलहा) के लिये तप करती हो तो यह तुम्हारा लड़कपन है; क्योंकि यदि घरमें ही पारसमणि मिल जाय तो क्या कोई सुमेरुपर जायगा ? ॥४६॥
मोरें जान कलेस करिअबिनु काजहि ।
सुधा कि रोगिहि चाहइ रतन की राजहि ॥४७॥
लखि न परेउ तप कारन बटु हियँ हारेउ ।
सुनि प्रिय बचन सखी मुख गौरि निहारेह ॥४८॥
’हमारी समझसे तो तुम बिना प्रयोजन ही क्लेश उठाती हो । अमृत क्या रोगीको चाहता है और रत्न क्या राजाकी कामना करता है ? ’ ॥४७॥
इस ब्रह्मचारीको आपके तपका कोई कारण समझमें नहीं आया, यह सोचते-सोचते अपने हृदयमें हार गया है, इस प्रकार उसके प्रिय वचन सुनकर पार्वतीने सखीके मुखकी ओर देखा ॥४८॥
गौरीं निहारेउ सखी मुख रुख पाइ तेहिं कारन कहा ।
तपु करहिं हर हितु सुनि बिहँसि बटु कहत मुरुखाई महा ॥
जेहिं दीन्ह अस उपदेस बरेहु कलेस करि बरु बावरो ।
हित लागि कहौं सुभायँ सो बड़ बिषम बैरी रावरो ॥६॥
पार्वतीजीने सखीके मुखकी ओर देखा ; तब सखीने उनकी अनुमति जानकर उनके तपका कारण (यह) बतलाया कि वे शिवजीके लिये तपस्या करती हैं । यह सुनकर ब्रह्मचारीने हँसकर कहा कि ’यह ( तो तुम्हारी ) महान् मूर्खता है।’ जिसने तुम्हें ऐसा उपदेश दिया है कि जिसके कारण तुमने इतना क्लेश उठाकर बावले वरका वरण किया है, मैं तुम्हारी भलाई के लिये सभ्दाववश कहता हूँ कि वह तुम्हारा घोर शत्रु है ॥६॥