बिप्र बृंद सनमानि पूजि कुल गुर सुर ।
परेउ निसानहिं घाउ चाउ चहुँ दिसि पुर ॥८३॥
गिरि बन सरित सिंधु सर सुनइ जो पायउ ।
सब कहँ गिरिबर नायक नेवत पठायउ ॥८४॥
हिमवान् ने ब्राह्मणोंका सम्मान करके कुलगुरु और देवताओंकी पूजा की । नगारोंपर चोट पड़ने लगी और नगरमें चारों ओर उमंग छा गयी ॥८३॥
पर्वत, वन, नदी,समुद्र और सरोवर जिन-जिनके विषयमें सुना उन सभीको सभी श्रेष्ठ पर्वतोंके नायक हिमाचलने न्योता भेज दिया ॥८४॥
धरि धरि सुंदर बेष चले हरषित हिएँ ।
चवँर चीर उपहार हार मनि गन लिएँ ॥८५॥
कहेउ हरषि हिमवान बितान बनावन ।
हरषित लगीं सुआसिनि मंगल गावन ॥८६॥
वे सब-के -सब सुन्दर वेष बना-बनाकर उपहारके लिये चँवर, वस्त्र, हार और मणिगण लिये हृदयमें हर्षित हो चले ॥८५॥
हिमवान् ने प्रमुदित होकर ( कुशल कारीगरोंको ) मण्डप बनानेकी आज्ञा दी और विवाहिता लड़कियाँ मङगल गान करने लगीं ॥८६॥
तोरन कलस चवँर धुज बिबिध बनाइन्हि ।
हाट पटोरन्हि छाय सफल तरु लाइन्हि ॥८७॥
गौरी नैहर केहि बिधि कहहु बखानिय ।
जनु रितुराज मनोज राज रजधानिय ॥८८॥
अनेक प्रकारके बंदनवार, कलश, चँवर और ध्वजा-पताकाएँ बनायी गयीं, बाजारको रेशमी वस्त्रोंसे छाकर (बीच-बीचमें) फलयुक्त वृक्ष लगाये गये ॥८७॥
पार्वताजीके नैहरका कहिये, किस -प्रकार वर्णन किया जाय ! वह तो मानो वसन्त और कामदेवके राज्यकी राजधानी ही थी ॥८८॥
जनु राजधानी मदन की बिरची चतुर बिधि और हीं ।
रचना बिचित्र बोलोकि लोचन बिथकि ठौरहिं ठौर हीं ॥
एहि भाँति ब्याह समाज सजि गिरिराजु मगु जोवन लगे।
तुलसी लगत लै दीन्ह मुनिन्ह महेस आनँद रँग मगे ॥११॥
मानो चतुर विधाताने कामदेव की राजधानीको और ही ( अलौकिक) ढंगसे रचा है । उसकी विचित्र रचनाको देखकर नेत्र जहाँ जाते हैं, वहीं ठिठककर रह जाते है । इस प्रकार विवाहका साज सजाकर हिमवान् बरातका रास्ता देखने लगे ।
गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि मुनियोंने शिवजीको लग्नपत्रिका लेकर दी । इससे शिवजी आनन्दोत्सवमें मग्न हो गये ॥११॥