पार्वती मंगल - भाग ११

पार्वती - मङ्गलमें प्रातःस्मरणीय गोस्वामी तुलसीदासजीने देवाधिदेव भगवान् शंकरके द्वारा जगदम्बा पार्वतीके कल्याणमय पाणिग्रहणका काव्यमय एवं रसमय चित्रण किया है ।


बिप्र बृंद सनमानि पूजि कुल गुर सुर ।

परेउ निसानहिं घाउ चाउ चहुँ दिसि पुर ॥८३॥

गिरि बन सरित सिंधु सर सुनइ जो पायउ ।

सब कहँ गिरिबर नायक नेवत पठायउ ॥८४॥

हिमवान् ने ब्राह्मणोंका सम्मान करके कुलगुरु और देवताओंकी पूजा की । नगारोंपर चोट पड़ने लगी और नगरमें चारों ओर उमंग छा गयी ॥८३॥

पर्वत, वन, नदी,समुद्र और सरोवर जिन-जिनके विषयमें सुना उन सभीको सभी श्रेष्ठ पर्वतोंके नायक हिमाचलने न्योता भेज दिया ॥८४॥

धरि धरि सुंदर बेष चले हरषित हिएँ ।

चवँर चीर उपहार हार मनि गन लिएँ ॥८५॥

कहेउ हरषि हिमवान बितान बनावन ।

हरषित लगीं सुआसिनि मंगल गावन ॥८६॥

वे सब-के -सब सुन्दर वेष बना-बनाकर उपहारके लिये चँवर, वस्त्र, हार और मणिगण लिये हृदयमें हर्षित हो चले ॥८५॥

हिमवान् ने प्रमुदित होकर ( कुशल कारीगरोंको ) मण्डप बनानेकी आज्ञा दी और विवाहिता लड़कियाँ मङगल गान करने लगीं ॥८६॥

तोरन कलस चवँर धुज बिबिध बनाइन्हि ।

हाट पटोरन्हि छाय सफल तरु लाइन्हि ॥८७॥

गौरी नैहर केहि बिधि कहहु बखानिय ।

जनु रितुराज मनोज राज रजधानिय ॥८८॥

अनेक प्रकारके बंदनवार, कलश, चँवर और ध्वजा-पताकाएँ बनायी गयीं, बाजारको रेशमी वस्त्रोंसे छाकर (बीच-बीचमें) फलयुक्त वृक्ष लगाये गये ॥८७॥

पार्वताजीके नैहरका कहिये, किस -प्रकार वर्णन किया जाय ! वह तो मानो वसन्त और कामदेवके राज्यकी राजधानी ही थी ॥८८॥

जनु राजधानी मदन की बिरची चतुर बिधि और हीं ।

रचना बिचित्र बोलोकि लोचन बिथकि ठौरहिं ठौर हीं ॥

एहि भाँति ब्याह समाज सजि गिरिराजु मगु जोवन लगे।

तुलसी लगत लै दीन्ह मुनिन्ह महेस आनँद रँग मगे ॥११॥

मानो चतुर विधाताने कामदेव की राजधानीको और ही ( अलौकिक) ढंगसे रचा है । उसकी विचित्र रचनाको देखकर नेत्र जहाँ जाते हैं, वहीं ठिठककर रह जाते है । इस प्रकार विवाहका साज सजाकर हिमवान् बरातका रास्ता देखने लगे ।

गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि मुनियोंने शिवजीको लग्नपत्रिका लेकर दी । इससे शिवजी आनन्दोत्सवमें मग्न हो गये ॥११॥

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Last Updated : January 22, 2014

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