पार्वती मंगल - भाग १४

पार्वती - मङ्गलमें प्रातःस्मरणीय गोस्वामी तुलसीदासजीने देवाधिदेव भगवान् शंकरके द्वारा जगदम्बा पार्वतीके कल्याणमय पाणिग्रहणका काव्यमय एवं रसमय चित्रण किया है ।


सुनि मैना भइ सुमन सखी देखन चली ।

जहै तहै चरचा चलइ हाट चौहट गली ॥१०९॥

श्रीपति सुरपति बिबुध बात सब सुनि सुनि ।

हँसहि कमल कर जोरि मोरि मुख पुनि पुनि ॥११०॥

हिमवान् के वचन सुनकर मैनाका मन कुछ स्वस्थ हुआ अर्थात् उसके मनमें सान्त्वना हुई । उस समय जहाँ-तहाँ बाजार, चौक एवं गलियोंमें बरातकी ही चर्चा चल रही थी ॥१०९॥

उसे सुन-सुनकर लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु, देवराज इन्द्र तथा (अन्य) देवतालोग कमलके समान हाथोंको जोड़कर (अर्थात् मुखमण्डलको हाथोंसे ढककर) बार- बार मुँह फेरकर हँसते थे ॥११०॥

लखि लौकिक गति संभु जानि बड़ सोहर ।

भए सुंदर सत कोटि मनोज मनोहर ॥१११॥

नील निचोल छाल भइ फनि मनि भूषन ।

रोम रो म पर उदित रुपमय पूषन ॥११२॥

तब श्रीमहादेवजी लौकिक गतिको देखते हुए उस समय बड़ा कोलाहल जान सौ करोड़ कामदेवोंसे भी अधिक सुन्दर और मनोहर हो गये ॥१११॥

उनका गजचर्म नीलाम्बर हो गया और जितने सर्प थे, वे मणिमय आभूषण हो गये । उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो उनके रोम-रोमपर सुन्दर रुपमय सूर्य प्रकाशित हो रहे हों ॥११२॥

गन भए मंगल बेष मदन मन मोहन ।

सुनत चले हियँ हरषि नारि नर जोहन ॥११३॥

संभु सरद राकेस नखत गन सुर गन ।

जनु चकोर चहुँ ओर बिराजहिं पुर जन ॥११४॥

शिवजीके गणोंका वेष भी मङगलमय हो गया और वे अपने सौन्दर्यसे कामदेवके भी मनको मोहने लगे । यह सुनकर (सभी) स्त्री- पुरुष हृदयमें आनन्दित होकर उन्हें देखनके लिये चले ॥११३॥

( उस समय ऐसा जान पड़ता था ) मानो शिवजी शारदी पूर्णिमाके चन्द्रमा हैं , देवतालोग नक्षत्रोंके समान हैं तथा उन्हें देखनेके लिये उनके चारों ओर पुरवासीलोग चकोरसमुदायकी भाँति सुशोभित हो रहे थे ॥११४॥

गिरबर पठए बोलि लगन बेरा भई ।

मंगल अरघ पाँवड़े देत चले लई ॥११५॥

हेहिं सुमंगल सगुन सुमन बरषहिं सुर ।

गहगहे गान निसान मोद मंगल पुर ॥११६॥

लग्नका समय होनेपर गिरिवर हिमवान् ने बरातियोंको बुलावा भेजा और उन्हें मङगलमय अर्घ्य और पाँवड़े देते साथ ले चले ॥११५॥

(चलनेके समय) मड़गलमय शकुन होते हैं और देवतालोग फूलोंकी वर्षा करते हैं । आनन्दपूर्ण गान और नगारोंका निनाद होने लगा और नगर आनन्द एवं मड़गलसे पूर्ण हो गया ॥११६॥

पहिलिहिं पवरिं सुसामध भा सुख दायक ।

इति बिधि उत हिमावन सरिस सब लायक ॥११७॥

मनि चामीकर चारु थार सजि आरति ।

रति सिहाहिं लखि रुप गान सुनि भारति ॥११८॥

पहली ही पौरीपर समधियोंका सुखदायक सम्मिलन हुआ । इधर ब्रह्माजी थे और उधर हिमवान् थे । दोनों ही समान और सब प्रकारसे योग्य थे ॥११७॥

फिर मणि और सोनेके सुन्दर थालमें आरती सजाकर स्त्रियाँ चलीं । उनके रुपको देखकर कामपत्नी रति और गान श्रवणकर सरस्वती भी ईर्ष्या करने लगती थीं ॥११८॥

भरी भाग अनुराग पुलकि तन मुद मन ।

मदन मत्त गजगवनि चलीं बर परिछन ॥११९॥

बर बिलोकि बिधु गौर सुअंग उजागर ।

करति आरती सासु मगन सुख सागर ॥१२०॥

शरीरसे पुलकित और मनमें आनन्दित हो वे भाग्य और प्रेमसे भरी प्रेमके आवेशमें मत्त गजगामिनी कामिनियाँ वर (दूलह) का परिछन (पूजन) करने चलीं ॥११९॥

वरको चन्द्रमाके समान गौर और अङग-अङगमें प्रकाशपूर्ण देखकर सास (मैना ) सुखसागरमें मग्न हो आरती उतारने लगीं ॥१२०॥

सुख सिंधु मगन उतारि आरति करि निछावर निरखि कै ।

मगु अरघ बसन प्रसून भरि लेइ चलीं मंडप हरषि कै ॥

हिमवान् दीन्हें उचित आसन सकल सुर सनमानि कै ।

तेहि समय साज समाज सब राखे सुमंडप आनि कै ॥१४॥

सारने सुख-सिन्धुमें मग्न होकर आरती उतारी और फिर निछावर करके वरकी ओर देखकर मार्गमें अर्घ्य और पाँवड़े देतीं फूलसे लदे हुए वरको आनन्दपूर्वक मण्डपमें ले चलीं । हिमवान् ने सभी देवताओंका सम्मान करके उन्हें उचित आसन दिये । उस समयका जो कुछ साज-समाज था, वह सब सुन्दर मण्डपमें लाकर रखा गया ॥१४॥

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Last Updated : January 22, 2014

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