बिनइ गुरहि गुनिगनहि गिरिहि गननाथहि ।
हदयॅं आनि सिय राम धरे धनु भाथहि ॥१॥
गावउँ गिरीस बिबाह सुहावन ।
पाप नसावन पावन मुनि मन भावना ॥२॥
गुरुकी, गुणी लोगों ( विज्ञजनों ) की, पर्वतराज ( हिमालय ) की और गणेशजीकी वन्दना करके फिर जानकीची और भाथेसहित धनुष धारण करनेवाले श्रीरामचन्द्रजीको स्मरणकर श्रीपार्वती और कैलासपति महादेवजीके मनोहर, पापनाशक, अन्तःकरणको पवित्र करनेवाले और मुनियोंके भी मनको रुचिकर लगनेवाले विवाहका गान करता हूँ ॥१-२॥
कबित रीति नहिं जानउ कबि न कहावउ ।
संकर चरित सुसरित मनहि अन्हवावउ ॥३॥
पर अपबाद - बिबाद - बिदूषित बानिहि ।
पावन करौं सो गाइ भवेस भवानिहि ॥४॥
मैं काव्यकी शैलियोंको नहीं जानता और न कवि ही कहलाता हूँ ; मैं तो केवल शिवजीके चरित्ररुपी श्रेष्ठ नदीमें मनको स्त्रान कराता हूँ ॥३॥
और उसी श्रीशंकर एवं पार्वती - चरित्रका गान करके दूसरोंकी निन्दा और वाद - विवादसे मलिन हुई वाणीको पवित्र करता हूँ ॥४॥
जय संबत फागुन सुदि पाँचैं गुरु छिनु ।
अस्विनि बिरचेउ मंगल सुनि सुख छिनु छिनु ॥५॥
जय नामक संवतके फाल्गुन मासकी शुक्ला पञ्चमी बृहस्पतिवारको अश्विनी नक्षत्रमें मैंने इस मङ्गल ( विवाह - प्रसङ्ग ) की रचना की है, जिसे सुनकर क्षण - क्षणमें सुख प्राप्त होता है ॥५॥
गुन निधानु हिमवानु धरनिधर धुर धनि ।
मैना तासु घरनि घर त्रिभुवन तियमनि ॥६॥
कहहु सुकृत केहि भाँति सराहिय तिन्ह कर ।
लीन्ह जाइ जग जननि जनमु जिन्ह के घर ॥७॥
मंगल खानि भवानि प्रगट जब ते भइ ।
तब ते रिधि - सिधि संपति गिरि गृह नित नइ ॥८॥
पर्वतोंमें शीर्षस्थानीय गुणोंकी खान हिमवान् पर्वत धन्य हैं, जिनके घरमें त्रिलोकीकी स्त्रियोंमें श्रेष्ठ मैना नामकी पत्नी थी ॥६॥
कहो ! उनके पुण्यकी किस प्रकार बड़ाई की जाय, जिनके घरमें जगतकी माता पार्वतीने जन्म लिया ॥७॥
जबसे मङ्गलोंकी खान पार्वतीजी प्रकट हुईं तभीसे हिमाचलके घरमें नित्य नवीन ऋद्धि - सिद्धियाँ और सम्पत्तियाँ निवास करने लगीं ॥८॥
नित नव सकल कल्यान मंगल मोदमय मुनि मानहीं ।
ब्रह्मादि सुर नर नाग अति अनुराग भाग बखानहीं ॥
पितु मातु प्रिय परिवारु हरषहिं निरखि पालहिं लालहीं ।
सित पाख बाढ़ति चंद्रिका जनु चंदभूषन भालहीं ॥१॥
मुनिजन सब प्रकारके नित्य नवीन मङ्गल और आनन्दमय उत्सव मनाते हैं । ब्रह्मादि देवता, मनुष्य एवं नाग अत्यन्त प्रेमसे हिमवानके सौभाग्यका वर्णन करते हैं । पिता, माता, प्रियजन और कुटुम्बके लोग उन्हें निहारकर आनन्दित होते हैं और उनका ( प्रेमसे ) लालन - पालन करते हैं । ऐसा लगता था, मानो शुक्ल पक्षमें चन्द्रशेखर भगवान् महादेवजीके ललाटमें चन्द्रमाकी कला वृद्धिको प्राप्त हो रही हो ॥१॥