मोरेहुँ मन अस आव मिलिहि बरु बाउर ।
लखि नारद नारदी उमहि सुख भा उर ॥१७॥
सुनि सहमे परि पाइ कहत भए दंपति ।
गिरिजहि लगे हमार जिवनु सुख संपति ॥१८॥
'' मेरे मनमें भी ऐसी ही बात आती है कि पार्वतीको बावला वर मिलेगा । '' नारदजीके इस वचनको सुनकर उमा ( पार्वती ) के हदयमें सुख हुआ ॥१७॥
किंतु यह बात सुनकर दम्पति ( हिमवान् - मैना ) सहम गये और ( नारदजीके ) पैरों पड़कर कहने लगे कि ' पार्वतीके लिये ही हमलोगोंका जीवन और सारी सुख - सम्पत्ति है ' ॥१८॥
नाथ कहिय सोइ जतन मिटइ जेहिं दूषनु ।
दोष दलन मुनि कहेउ बाल बिधु भूषनु ॥१९॥
अवसि होइ सिधि साहस फलइ सुसाधन ।
कोटि कलप तरु सरिस संभु अवराधन ॥२०॥
' अतः हे नाथ ! वह उपाय बतलाइये, जिससे ( पार्वतीके ) इस भाग्य - दोषका नाश हो ( जिसके कारण उसे पागल पति मिलनेको है ) ।' मुनिने कहा कि ( सारे ) दोषोंको नाश करनेवाले शशिभूषण महादेवजी ही हैं ॥१९॥
उनकी कृपासे सफलता अवश्य प्राप्त होगी । साहस ( दृढ़ता ) से ही श्रेष्ठ साधन भी सफल होता है । शिवजीकी आराधना ( एक ही ) करोड़ो कल्पवृक्षोंके समान ' सिद्धिदायक ' है ॥२०॥
तुम्हरें आश्रम अबहिं ईसु तप साधहिं ।
कहिअ उमहि मनु लाइ जाइ अवराधहिं ॥२१॥
काहि उपाय दंपतिहि मुदित मुनिबर गए ।
अति सनेहँ पितु मातु उमहि सिखवत भए ॥२२॥
' देखो, तुम्हारे आश्रम ( कैलास ) में महादेवजी अभी तप - साधन कर रहे हैं, ( अतः ) पार्वतीसे कहो कि जाकर मनोयोगपूर्वक शिवजीकी आराधना करे ' ॥२१॥
दम्पत्ति ( हिमवान् - मैना ) को यह उपाय बतलाकर मुनिश्रेष्ठ नारदजी आनन्दपूर्वक चले गये और माता - पिताने अत्यन्त स्नेहसे पार्वतीजीको शिक्षा दी ॥२२॥
सजि समाज गिरिराज दीन्ह सबु गिरिजहि ।
बदति जननि जगदीस जुबति जनि सिरजहि ॥२३॥
जननि जनक उपदेस महेसहि सेवहि ।
अति आदर अनुराग भगति मनु भेवहि ॥२४॥
पर्वतराज हिमाचलने तपस्याकी सारी सामग्री सजाकर पार्वतीजीको दे दी । माता कहने लगी कि ईश्वर स्त्रियोंको न रचे ( क्योंकि इन्हें सदैव पराधीन रहना पड़ता है ) ॥२३॥
माता - पिताने पार्वतीजीको उपदेश दिया कि तुम शिवजीकी आराधना करो और अत्यन्त आदर, प्रेम और भक्तिसे मनको तर कर दो ॥२४॥
भेवहि भगति मन बचन करम अनन्य गति हर चरन की ।
गौरव सनेह सकोच सेवा जाइ केहि बिधि बरन की ॥
गुन रुप जोबन सींव सुंदरि निरखि छोभ न हर हिएँ ।
ते धीर अछत बिकार हेतु जे रहत मनसिज बस किएँ ॥३॥
' भक्तिके द्वारा मनको सरस बना दो ।' मनसा - वाचा - कर्मणा पार्वतीजीके एकमात्र श्रीमहादेवजीके ही चरणोंका आश्रय था । उनके गौरव, स्नेह, शील - संकोच और सेवाका वर्णन किस प्रकार किया जा सकता है । पार्वतीजी गुण, रुप एवं यौवनकी सीमा थीं, किंतु ऐसी ( अनुपम ) सुन्दरीको देखकर शिवजीके मनमें ( तनिक भी ) क्षोभ नहीं हुआ । ( सच है ) जो लोग विकारका कारण रहते हुए भी कामदेवको वशमें किये रहते हैं, वे ही ( सच्चे ) धीर हैं ॥३॥