हनुमद्व्रत ( उत्सवसिन्धु - व्रतरत्नाकर ) -
यह व्रत हनुमानजीकी जन्मतिथिका है । जिन पञ्चाङ्गोंके आधारसे व्रतोंका निर्णय किया जाता है, उनमें हनुमानजीकी जन्मतिथि किसीमें कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी और किसीमें चैत्र शुक्ल पूर्णिमा है । किसी भी देवताकी अधिकृति या जन्मतिथि एक होती है, परंतु हनुमानजीकी दो मानते हैं । यह विशेषता है । इस विषयके ग्रन्थोंमें इन दोनोंके उल्लेख अवश्य हैं, परंतु आशयोंमें भिन्नता है । पहला ' जन्मदिन ' है और दूसरा ' विजयाभिनन्दन ' का महोत्सव । .......... ' उत्सवसिन्धु ' में लिखा है कि कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी, भौमवारको स्वाती नक्षत्र और मेषलग्नमें अह्ञ्जनीके गर्भसे हनुमानजीके रुपमें स्वयं शिवजी उत्पन्न हुए थे । ' व्रतरत्नाकर ' में भी यही है कि कार्तिक कृष्णकी भूततिथि ( चतुर्दशी ) को मङ्गलवारके दिन महानिशामें अञ्जनादेवीने हनुमानजीको जन्म दिया था । दूसरे वाक्यकी अपेक्षा पहलेसें स्वाती नक्षत्र और मेषलग्न विशेष है । परंतु कार्तिकीको कृत्तिक होनेसे कृष्ण चतुर्दशीको चित्रा या स्वातीका होन असम्भव नहीं । ... इनके विपरीत ' हनुमदुपासनाकल्पद्रुम ' नामक ग्रन्थने, जो एक महाविद्वानका संकलन किया हुआ है , चैत्र शुक्ल पूर्णिमा, मङ्गलवारके दिन मूँजकी मेखलासे युक्त, कौपीनसे संयुक्त और यज्ञोपवीतसे भूषित हनुमानजीका उत्पन्न होना लिखा है । साथमें यह विशेष लिखा है कि ' कैकेयीके हाथसे चील्हके द्वारा आयी हुई यज्ञकी खीर खानेसे अञ्जनके हनुमानजी उत्पन्न हुए । अस्तु । ....... रामचरित्रके अन्वेषणमें वाल्मीकीय रामायण अधिक मान्य है । उसमें हनुमानजीकी जन्मकथा ( किष्किन्धकाण्ड सर्ग ६६ और उत्तरकाण्ड सर्ग ३५ में ) पूर्णरुपसे लिखी गयी है । उसमे ज्ञात होता है कि अञ्जनीके उदरसे हनुमानजी उत्पन्न हुए । भूखे होनेसे ये आकाशमें उछल गये और उदय होते हुए सूर्यको फल समझकर उनके समीप चले गये । उस दिन पर्वतिथि ( अमावास्या ) होनेसे सूर्यको ग्रसनेके लिये राहु आया था । परंतु वह इनको दूसरा राहु मानकर भागने लगा, तब इन्द्रने अञ्जनीपुत्रपर वज्रका प्रहार किया, उससे उनकी ठोडी टेढ़ी हो गयी । इसीसे ये हनुमान कहलाये । इस अंशमें चैत्र या कार्तिकका नाम नहीं है । सम्भव है कल्पभेद या भ्रान्तिवश अन्य ग्रन्थोमें चैत्र लिखा गया हो । .... हनुमानजीका एक जन्मपत्र भी है, उसमें तिथि चतुर्दशी, वार मङ्गल, नक्षत्र चित्रा और मास अनिर्दिष्ट है । कुण्डलीमें सूर्य, मङ्गल, गुरु, भृगु और शनि - ये उच्चके हैं और ये ४,१,७,३ और १० इन स्थानोंमें यथाक्रम बैठे हैं । इन सबके देखनेसे यह तथ्य निकलता है कि कार्तिक कृष्ण चतुर्दशीकी रात्रिमें हनुमानजीका जन्म हुआ था और चैत्र शुक्ल पूर्णिमाको सीताकी खोज, राक्षसोंके उपमर्दन, लंकाके दहन और समुद्रके उल्लङ्घन आदिमें हनुमानजीके विजयी होने और निरापद वापस लौटनेके उपलक्ष्यमें हर्षोन्मत्त वानरोंने मधुवनमें हर्ष मनाया था और उससे सभी नर - वानर सुखी हुए थे । इस कारण उक्त दोनों दिनोंमें व्रत और उत्सव किया जाय तो ' अधिकस्याधिकं फलम् ' तो होगा ही । .... इस व्रतमें तात्कालिक ( रात्रिव्यापिनी ) तिथि ली जाती है । यदि वह दो दिन हो तो दूसरा व्रत करना चाहिये । व्रतीका कर्तव्य है कि वह हनुमज्जन्मदिनके व्रत - निमित्त धनत्रयोदशी ( का० कृ० १३ ) की रात्रिमें राम - जानकी और हनुमानजीका स्मरण करके पृथ्वीपर शयन करे तथा रुपचतुर्दशी ( का० कृ० १४ ) को अरुणोदयसे पहले उठकर राम - जानकी और हनुमानजीका पुनः स्मरण करके प्रातः स्त्रानादिसे जल्दी निवृत्त हो ले । तत्पश्चात् हाथमें जल लेकर - ' ममाखिलानिष्टनिरसनपूर्वकसकलाभीष्टसिद्धये तेजोबलबुद्धिविद्याधन - धान्यसमृद्धयायुरारोग्यादिवृद्धये च हनुमद्रतं तटङ्गीभूतपूजनं च करिष्ये ।' यह संकल्प करके हनुमानजीकी पूर्वप्रतिष्ठित प्रतिमाके समीप पूर्व व उत्तरमुख बैठकर अति नम्रताके साथ ' अतुलितबलधामं स्वर्णशैलाभदेहं दनुजवनकृशानूं ज्ञानिनामग्रगण्यम् । सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिवरदूतं वातजातं नमामि ॥ ' से प्रार्थना करे और फिर उनका यथाविधान षोडशोपचार पूजन करे । स्त्रानमें समीप हो तो नदीका और न हो तो श्रीजल मिला हुआ कूपोदक, वस्त्रोंमें लाल कौपीन और पीताम्बर, गन्धमें केसर मिला हुआ चन्दन, मूँजका यज्ञोपवीत, पुष्पोंमें शतपत्र ( हजारा ), केतकी, कनेर और अन्य पीले पुष्प, धूपमें अगर - तगरादि, दीपकमें गोघृतपूर्ण बत्ती और नैवेद्यमें घृतपक्क अपूप ( पूआ ) अथवा आटेको घीमें सेंककर गुड़, मिलाये हुए मोदक और केला आदि फल अर्पण करे तथा नीराजन, नमस्कार, पुष्पाञ्जलि और प्रदक्षिणाके बाद ' मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् । वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शिरसा नमामि ॥ ' से प्रार्थना करके प्रासाद वितरण करे और सामर्थ्य हो तो ब्राह्मणभोजन कराकर स्वयं भोजन करे । रात्रिके समय दीपावली, स्तोत्रपाठ, गायन - वादन या संकीर्तनसे जागरण करे । ........ यदि किसी कार्य - सिद्धिके लिये व्रत करना हो तो मार्गशीर्ष शुक्ल त्रयोदशीको प्रातःस्त्रानादि करके एक वेदीपर अक्षत - पुञ्जसे १३ कमल बनाये । उनपर जलपूर्ण पूजित कलश स्थापन करके उसके ऊपर लगाये हुए पीले वस्त्रपर १३ कमलोंमें १३ गाँठ लगा हुआ नौ सूतका पीला डोरा रखे । फिर वेदीका पूजन करके उपर्युक्त विधिसे अथवा पद्धतिके क्रमसे हनुमानजीका पूजन और जप, ध्यान, उपासना आदि करे तथा ब्राह्मणभोजनादिके पीछे स्वयं भोजन कर व्रतको पूर्ण करे तो सम्पूर्ण अभीष्ट सिद्ध होते हैं । .... कथा - सार यह है कि सूर्यके वरसे सुवर्णके बने हुए सुमेरुमें केसरीका राज्य था । उसके अति सुन्दरी अञ्जना नामकी स्त्री थी । एक बार उसने शुचिस्त्रान करके सुन्दर वस्त्राभूषण धारण किये । उस समय पवनदेवने उसके कर्णरन्ध्रमें प्रवेशकर आते समय आश्वासन दिया कि तेरे सूर्य, अग्नि एवं सुवर्णके समान तेजस्वी, वेद - वेदाङ्गोंका मर्मज्ञ, विश्ववन्द्य महाबली पुत्र होगा । ....... ऐसा ही हुआ । कार्तिक कृष्ण चतुर्दशीकी महानिशामें अञ्जनाके उदरसे हनुमानजी उत्पन्न हुए । दो प्रहर बाद सुर्योदय होते ही उन्हें भूख लगी । माता फल लाने गयी, इधर वनके वृक्षोंमें लाल वर्णके बालक सूर्यको फल मानकर हनुमनजी उसको लेनेके लिये आकाशमें उछल गये । उस दिन अमा होनेसे सूर्यको ग्रसनेके लिये राहु आया था, किंतु इनको दूसरा राहु मानकर भाग गया । तब इन्द्रने हनुमानजीपर वज्र - प्रहार किया । उससे इनकी ठोडी टेढ़ी हो गयी, जिससे ये हनुमान कहलाये । इन्द्रकी इस धृष्टताका दण्ड देनेके लिये इन्होनें प्राणिमात्रका वायुसंचार रोक दिया । तब ब्रह्मादि सभी देवोंनो अलग - अलग इन्हें वर दिये । ब्रह्माजीने आमितायुका, इन्द्रने वज्रसे हत न होनेका, सूर्यने अपने शतांश तेजसे युक्त और सम्पूर्ण शास्त्रोके विशेषज्ञ होनेका, वरुणने पाश और जलसे अभय रहनेका, यमने यमदण्डसे अवध्य और पाशसे नाश न होनेका, कुबरेने शत्रुमर्दिनी गदासे निःशङ्क रहनेका, शङ्करने प्रमत्त और अजेय योद्धाओंसे जय प्राप्त करनेका और विश्वकर्माने मयके बनाये हुए सभी प्रकारके दुर्बोध्य और असह्य, अस्त्र, शस्त्र तथा यन्त्रादिसे कुछ भी क्षति न होनेका वर दिया । ....... इस प्रकारके वरोंकें प्रभावसे आगे जाकर हनुमानजीने अमित पराक्रमके जो काम किये, वे सब हनुमानजीके भक्तोंमें प्रसिद्ध हैं और जो अश्रुत या अज्ञात हैं, वे अनेक प्रकारकी रामायणों, पद्म, स्कन्द और वायु आदि पुराणों एवं उपासना - विषयके अगणित ग्रन्थोंसे ज्ञात हो सकते हैं । ऐसे विश्ववन्द्य महाबली और श्रीरामचन्द्रके अनन्य भक्त हनुमानजीके जप, ध्यान, उपासना, व्रत और उत्सव आदि करनेसे सब प्रकारके संकट दुर होते हैं । देवदुर्लभ पद, सम्मान और सुख प्राप्त होते हैं तथा राम - जानकी और हनुमानजीके प्रसन्न होनेसे उपासकका कल्याण होता है । एवमस्तु ।
१. ऊर्जस्य चासिते पक्षे स्वात्यां भौमे कपीश्वरः ।
मेषलग्नेऽञ्जनीगर्भाच्छिवः प्रादुरभूत् स्वयम् ॥ ( उत्सवसिन्धु )
२. कार्तिकस्यासिते पक्षे भूतायां च महानिशि ।
भौमवारेऽञ्जना देवी हनुमन्तमजीजनत् ॥ ( व्रतरत्नाकर )
३. चैत्रे मासि सिते पक्षे पौर्णमास्यां कुजेऽहनि ॥
मौञ्जीमेखलया युक्तः कौपीनपरिधारकः ॥ ( ह० क० )
४. कैकेयीहस्ततः पिण्डं जहार चिल्हिपक्षिणी ।
गच्छन्त्याकाशमार्गेण तदा वायुर्महानभूत् ॥
तुण्डात् प्रगलिते पिण्डे वायुर्नीत्वाञ्जनाञ्जलौ ।
क्षिप्तवान् स्थापितं पिण्डं भक्षयामास तत्क्षणात् ॥
नवमासगते पुत्रं सुषुवे साञ्जना शुभम् ।
( हनुमदुपासनाकल्पद्रुम; आनन्द रा० सारकां० )
५. यमेव दिवसं ह्येष ग्रहीतुं भास्करं प्लुतः ।
तमेव दिवसं राहुर्जिघृक्षति दिवाकरम् ॥
अद्यहं पर्वकाले तु जिघृक्षुः सूर्यमागतः ।
अथान्यो राहुरासाद्य जग्राह सहसा रविम् ॥ ( वाल्मीकीय रामायण )