चैत्र शुक्लपक्ष व्रत - संवत्सर

व्रतसे ज्ञानशक्ति, विचारशक्ति, बुद्धि, श्रद्धा, मेधा, भक्ति तथा पवित्रताकी वृद्धि होती है ।


संवत्सर ( अनुसंधानमञ्जूषा ) -

यह चैत्र शुक्ल प्रतिपदाको पूजित होता है । इसमें मुख्यतया ब्रह्माजीका और उनकी निर्माण की हुई सृष्टिके प्रधान - प्रधान देवी, देवताओं, यक्ष - राक्षस, गन्धर्वों, ऋषि - मुनियों, मनुष्यों, नदियों, पर्वतों, पशु - पक्षियों और कीटाणूओंका ही नहीं - रोगों और उनके उपचारोंतकका पूजन किया जाता है । इससे यह स्वतः सूचित होता है कि संवत्सर सर्वप्रधान, महामान्य है । संवत्सर उसे कहते है जिसमें मासादि भलीभाँति निवास करते रहें । इसका दूसरा अर्थ है बारह महीनेका ' कालविशेष ' । यही श्रुतिका वाक्य भी है । जिस प्रकार महीनोंके चान्द्रादि तीन भेद हैं उसी प्रकार संवत्सके भी सौर, सावन और चान्द्र - ये तीन भेद हैं । परंतु अधिमाससे चान्द्रमास १३ हो जाते हैं । ऐसा होनेसे संवत्सर १२ महीनेका नहीं रहता, १३ का हो जाता है । इसका स्मृतिकारोंने यह समाधान किया है कि ' बादरायणने अधिमासको ३० -३० दिनके दो महीने नहीं माने, ६० दिनका एक महीना माना है ।' इसलिये संवतके बारह महीने ही हो जाते है । फिर भी १३ महिने माने जायँ तो दूसरे श्रुतिवाक्यके अनुसार १३ मासका भी संव त्सर होता है । ज्योतिः शास्त्रके अनुसार संवत्सरके सौर, सावन, चान्द्र, बार्हस्पत्य और नाक्षत्र - ये ५ भेद हैं । परंतु धर्म - कर्म और लोक - व्यवह्यरमें चान्द्र संवत्सरकी प्रवृत्ति ही विख्यात है । ....चान्द्र संवत्सरका प्रारम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदासे होता है । इसपर कोई यह पूछ सकते हैं कि जब चान्द्रमास कृष्ण प्रतिपदासे प्रारम्भ होते हैं तो संवत्सर शुल्कसे क्यों होता है । इसका समाधान यह है कि कृष्णके आरम्भमें मलमास आनेकी सम्भावना रहती है और शुक्लमें नहीं रहती । इस कारण संवत्सरकी प्रवृत्ति शुक्ल प्रतिपदाको किया था और इसी दिन मत्स्यावतारका आविर्भाव तथा सत्ययुगका आरम्भ हुआ था । इस महत्त्वको मानकर भारतके महामहिम सार्वभौम सम्राट् विक्रमादित्यने भी अपने संवत्सरका आरम्भ ( आजसे प्रायः दो हजार वर्ष पहले ) चैत्र शुक्ल प्रतिपदाको ही किया था । .... इसमें संदेह नहीं कि विश्वके यावन्मात्र संवत्सरोंमे शालिवाहन शक और विक्रम - संवत्सर - ये दोनों सर्वोत्कृष्ट हैं । परंतु शकका विशेषकर गणितमें प्रयोजन होता है और विक्रम - संवतका इस देशमें गणित, फलित, लोक - व्यवहार और धर्मानुष्ठानोंके समय - ज्ञान आदिमें अमिट रुपसे उपयोग और आदर किया जाता है । प्रारम्भमें प्रतिपदा लेनेका यह प्रयोजन है कि ब्रह्माजीने जब सृष्टिका आरम्भ किया, उस समय इसको ' प्रवरा ' ( सर्वोत्तम ) तिथि सूचित किया था और वास्तवमें यह प्रवरा है भी । इसमें धार्मिक, सामाजिक, व्यावहारिक और राजनीतिक आदि अधिक महत्त्वके अनेक काम आरम्भ किये जाते हैं । इसमें संवत्सरका पूजन, नवरात्र - घट - स्थापन, ध्वजारोपण, तैलाभ्यङ्ग - स्त्रान, वर्षेशादिका फलपाठ, पारिभद्रका पत्र - प्राशन और प्रपस्थापन आदि लोकप्रसिद्ध और विश्वोपकारक अनेक काम होते हैं । इसके द्वारा सनातनी जनतामें सर्वत्र ही संवत्सरका महोत्सव मनाया जाता है ।

१. कालः सृजति भूतानि कालः संहरति प्रजाः ।

कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः ॥

अनादिरेष भगवान् कालोऽनन्तोऽजरोऽमरः ।

सर्वत्वात् स्वतन्तत्वात् सर्वात्मत्वान्महेश्वरः ॥ ( विष्णुधर्मोत्तर )

२. स च संवत्सरः सम्यग् वसन्त्यास्मिन् मासदयः । ( स्मृतिसार )

३. द्वादश मासाः संवत्सरः । ( श्रुति )

४. चान्द्रसावनसौराणां त्रयः संवत्सरा अपि । ( ब्रह्मासिद्धान्त )

५. षटया तु दिवसैर्मासः कथितो बादरायणैः । ( स्मृत्यन्तर )

६. अस्ति त्रयोदशमासः । ( श्रृति )

७. स्मरेत् सर्वत्र कर्मादो चान्द्रं संवत्सरं सदा ।

नान्यं यस्माद्वत्सरादौ प्रवृत्तिस्तस्य कीर्तीता ॥ आष्टिषेण )

८. चान्द्रोऽब्दो मधुशुक्लगप्रतिपदारम्भः । ( दिपिका )

९. चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेऽहनि । ( ब्रह्मपुराण )

१०. कृते च प्रभवे चैत्रे प्रतिपच्छुक्लपक्षगा ।

रेवत्यां योगाविष्कम्भे दिवा द्वादशनाडिकाः ॥

मत्स्यरुपकुमार्यां च अवतीणों हरिः स्वयम् । ( स्मृतिकौस्तुभ )

ग्रन्थान्तरेषु चैत्रशुक्लतृतीयायां मत्स्यावतारः संसूचितः ।

११. तिथीनां प्रवरा यस्माद् ब्रह्मणा समुदाहता ।

प्रतिपद्यापदे पूर्वे प्रतिपत् तेन सोच्यते । ( भविष्योत्तर )

१२. प्राप्ते नूतनवत्सरे प्रतिगृहं कुर्याद् ध्वजारोपणं

स्त्रानं मङ्गलमाचरेद् द्विजवरैः साकं सुपूजोत्सवैः ।

देवानां गुरुयोषितां च विभवालंकारवस्त्रादिभिः

सम्पूज्यो गणकः फलं च श्रृणुयात् तस्माच्च लाभप्रदम् ॥ ( उत्सवचन्द्रिका )

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Last Updated : January 16, 2009

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