होलिकादहन
( नानापुराण - स्मृति ) - यह फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमाको होता है । इसका मुख्य सम्बन्ध होलीके दहनसे है । जिस प्रकार श्रावणीको ऋषिपूजन, विजयादशमीको देवीपूजन और दीपावलीको लक्ष्मीपूजनके पीछे भोजन किया जाता है, उसी प्रकार होलिकाके व्रतवाले उसकी ज्वाला देखकर भोजन करते हैं । होलिकाके दहनमें पूर्वविद्धा प्रदोषव्यापिनी १ पूर्णिमा ली जाती है । यदि वह दो दिन१ प्रदोषव्यापिनी हो तो दूसरी लेनी चाहिये । यदि प्रदोषमें भद्रा हो तो उसके मुखकी२ घड़ी त्यागकर३ प्रदोषमें दहन करना चाहिये । भद्राएं होलिकादहन४ करनेसे जनसमूहका नाश होता है । कुयोगवश यदि जला दी जाय तो वहाँके राज्य, नगर और मनुष्य अद्भुत उत्पातोंसे एक ही वर्षमें हीन हो जाते हैं । यदि पहले दिन प्रदोषके समय भद्रा६ हो और दूसरे दिन सूर्योस्तसे पहले पूर्णिमा समाप्त होती हो तो भद्राके समाप्त होनेकी प्रतीक्षा करके सूर्योदय होनेसे पहले होलिकादहन करना चाहिये । यदि पहले दिन प्रदोष न हो और हो तो भी रात्रिभर भद्रा रहे ( सूर्योदय होनेसे पहले न उतरे ) और दूसरे दिन सूर्यास्तसे पहले ही पूर्णिमा समाप्त होती हो तो ऐसे अवसरमें पहले दिन भद्रा हो तो भी उसके पुच्छमें होलिकादीपन कर देना चाहिये । यदि पहले दिन रात्रिभर भद्रा रहे और दूसरे दिन प्रदोषके समय पूर्णिमाका उत्तरार्ध मौजूद भी हो तो भी उस समय यदि चन्द्रग्रहण १ हो तो ऐसे अवसरमें पहले दिन भद्रा हो तब भी सूर्यास्तके पीछे होली जला देनी चाहिये । यदि दूसरे दूसरे दिन प्रदोषके समय पूर्णिमा हो और भद्रा उससे पहले उतरनेवाली हो, किंतु चन्द्रग्रहण २ हो तो उसके शुद्ध होनेके पीछे स्त्रान करके होलिकादहन करना चाहिये । यदि फाल्गुन दो हों ( मलमास हो ) तो शुद्ध मास ३ ( दूसरे फाल्गुन ) की पूर्णिमाको होलिकादीपन करना चाहिये । स्मरण रहे कि जिन स्थानोंमें माघ शुक्ल पूर्णिमाको ' होलिकारोपण ' का कृत्य किया जाता है, वह उसी दिन करना चाहिये; क्योंकि वह भी होलीका ही अङ्ग है । होली क्या है? क्यों जलायी जाती है ? और इसमें पूजन किसका होता है ? इसका आंशिक समाधान पूजाविधि और कथासारसे होता है । होलीका उत्सव रहस्यपूर्ण है । इसमें होली, ढुंवा, प्रह्लाद होता है । इसी अनुरोधसे धर्मध्वज राजाओंके यहाँ माघी पुर्णिमाके प्रभातमें शूर, सामन्त और शिष्ट मनुष्य गाजे - बाजे और लवाजमेसहित नगरसे बाहर वनमें जाकर शाखासहित वृक्ष लाते हैं और उसको गन्धादिसे पूजकर नगर या गाँवसे बाहर पश्चिम दिशामें आरोपित करके खड़ा कर देते हैं । जनतामें यह ' होली ', ' होलीदंड ' ( होलीका डाँडा ) एवं ' प्रह्लादके नामसे प्रसिद्ध होता है; किंतु इसे ' नवान्नेष्टि ' का यज्ञस्तम्भ माना जाय तो निरर्थक नहीं होगा ।' अस्तु, व्रतीको चाहिये कि वह फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमाको प्रातःस्त्रानादिके अनन्तर
' मम बालकबालिकादिभिः सह सुखशान्तिप्राप्तर्थं होलिकाव्रतं करिष्ये ।'
से संकल्प करके काष्ठखण्डके खडग बनवाकर बच्चोंको दे और उनको उत्साही सैनिक बनाये । वे निःशङ्ख होकर खेल - कूद करें और परस्पर हँसें । इसके अतिरिक्त होलिकाके दहन - स्थानको जलके प्रोक्षणसे शुद्ध करके उसमें सूखा काष्ठ, सूखे उपले और सूखे काँटे आदि भलीभाँति स्थापित करे । तत्पश्चात् सायङ्कालके समय हर्षोत्फुल्लमन होकर सम्पूर्ण पुरवासियों एवं गाजे - बाजे या लवाजमेके साथ होलीके समीप जाकर शुभासनपर पूर्व या उत्तरमुख होकर बैठे । फिर
' मम सकुटुब्मस्य सपरिवारस्य ( पुरग्रामस्थजनपदसहितस्य वा ) सर्वापच्छान्तिपूर्वक - सकलशुभफलप्राप्त्यर्थं ढुण्ढाप्रीतिकामनया होलिकापूजनं करिष्ये ।' -
यह संकल्प करके पूर्णिमा प्राप्त होनेपर अछूत १ या सूतिकाके घरसे बालकोंद्वारा आग्नि मँगवाकर होलीको दीप्तिमान् करे और चैतन्य होनेपर गन्ध - पुष्पादिसे उसका पूजन करके ' असृक्पाभयसंत्रस्तैः कृता त्वं होलि बालिशैः । अतस्त्वां पूजयिष्यामि भूते भूतिप्रदा भव ॥' -
इस मन्त्नसे तीन परिक्रमा या प्रार्थना करके अर्घ्य दे और लोकप्रसिद्ध होलीदण्ड ( प्रह्लाद ) या शास्त्रीय ' यज्ञस्तम्भ ' को शीतल जलसे अभिषिक्त करके उसे एकान्तमें रख दे । तत्पश्चात् घरसे लाये हुए खेड़ा, खाँडा और वरकूलिया आदिको डालकर होलीमें जौ - गेहूँकी बाल और चनेके होलोंको होलीकी ज्वालासे सेंके और यज्ञसिद्ध नवान्न तथा होलीकी अग्नि और यत्किञ्चित् भस्म लेकर घर आये । वहाँ आकर वासस्थानके प्राङ्गणमें गोबरसे चौका लगाकर अन्नादिका स्थापन करे । उस अवसरपर काष्ठके खडगोंको स्पर्श करके बालगण हास्यसहित शब्द करें ! उनका रात्रि आनेपर संरक्षण किया जाय और गुड़के बने हुए पक्कान्न उनको दिये जायँ । इस प्रकार करनेसे ढूंढाके दोष शान्त हो जाते हैं और होलीके उत्सवसे व्यापक सुखशान्ति होती हैं । कथाका सार यह है कि ( १ ) उसी युगमें हिरण्यकशिपुकी बहिन, जो स्वयं आगसे नहीं जलती थी, अपने भाईके कहनेसे प्रह्लादको जलानेके लिये उसको गोदमें लेकर आगमें बैठ गयी; परंतु भगवानकी कृपासे ऐसा हुआ कि होली जल गयी; किंतु प्रह्लादको आँच भी नहीं लगी । उसके बदले हिरण्यकशिपु अवश्य मारा गया । ( २ ) इसी अवसरपर नवीन धान्य ( जौ, उनके उपयोंगमें लेनेका प्रयोजन भी उपस्थित हो आया; किंतु धर्मप्राण हिंदू यज्ञेश्वरको अर्पण किये बिना नवीनान्नको उपयोगमें नहीं ले सके, अतः फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमाको समिधास्वरुप उपले आदिका संचय करके उसमें यज्ञकी विधिसे अग्निका स्थापन, प्रतिष्ठा, प्रज्वालन और पूजन करके ' रक्षोघ्र ०' सूक्तसे यव - गोधूमादिके चरुस्वरुप बालोंकी आहुति दी और हुतशेष धान्यको घर लाकर प्रतिष्ठित किया । उसीसे प्राणोंका पोषण होकर प्रायः सभी प्राणी हष्ट - पुष्ट और बलिष्ठ हुए और होलीके रुपमें ' नवान्नेष्टि ' यज्ञको सम्पन्न किया ।
१. प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या पूर्णिमा फाल्गुनी सदा । ( नारद )
निशागमे तु पूज्येत होलिका सर्वतोमुखैः । ( दुर्वास )
सायाह्ने होलिकां कुर्यात् पूर्वाह्णे क्रीडनं गवाम् । ( निर्णयामृत )
२. दिनद्वये प्रदोषे चेत् पूर्णा दाहः परेऽहनि । ( स्मृतिसार )
३. पूर्णिमायाः पूर्वे भागे चतुर्थप्रहरस्य पञ्चघटीमध्ये
भद्राया मुखं ज्ञेयम् । ( ज्योतिर्निबन्ध )
४. तस्यां भद्रामुखं त्यक्त्वा पूज्या होला निशामुखे । ( पृथ्वीचन्द्रोदय )
५. भद्रायां द्वे न कर्तव्ये श्रावणी फाल्गुनी तथा । ( स्मृत्यन्तर )
६. प्रतिपद्भूतभद्रासु यार्चिता होलिका दिवा ।
संवत्सरं तु तद्राष्ट्रं पुरं दहति साद्भुतम् ॥ ( चन्द्रप्रकाश )
७. दिनार्धात् परतो या स्यात् फाल्गुनी पूर्णिमा यदि ।
रात्रौ भद्रावसाने तु होलिकां तत्र पूजयेत् ॥ ( भविष्योत्तर )
८. पृथिव्यां यानि कार्याणि शुभानि ह्यशुभानि च ।
तानि सर्वाणि सिद्धयन्ति विष्टिपुच्छे न संशयः ॥ ( लल्ल )
९. पूर्णिमायाः पूर्वे भागे तृतीयप्रहरस्य घटीत्रयं भद्रायाः
पुच्छं ज्ञेयम् । ( पञ्चद्वयाद्रिकृताष्टेति मुहूर्तचिन्तामणौ )
१०. दिवाभद्रा यदा रात्रौ रात्रिभद्रा यदा दिवा ।
सा भद्रा भद्रदा यस्माद् भद्रा कल्याणकरिणी ॥ ( ज्योतिष - तत्व )
११. ग्रहणशुद्धौ ' स्त्रात्वा कर्माणि कुर्वीत शृतमन्नं विसर्जयेत् ।' ( स्मृतिकौस्तुभ )
१२. स्पष्टमासविशेषाख्याविहितं वर्जयेन्मले । ( धर्मसार )
१३. चाण्डालसूतिकागेहाच्छिशुहारितवह्निना ।
प्राप्तायां पूर्णिमायां तु कुर्यात् तत्काष्ठदीपनम् ॥ ( स्मृतिकौस्तुभ )