मन्त्रमहोदधि - पञ्चविंश तरङ्ग

`मन्त्रमहोदधि' इस ग्रंथमें अनेक मंत्रोंका समावेश है, जो आद्य माना जाता है।


अरित्र
अब प्रयोग द्वारा सिद्धि प्रदान करने वाले षट्‍कर्मों को कहता हूँ -
१. शान्ति, २. वश्य, ३. स्तम्भन, ४. विद्वेषण ५. उच्चाटन और ६. मारण - ये तन्त्र शास्त्र में षट्‌कर्म कहे गए हैं ॥१॥

रोगादिनाश के उपा को शान्ति कहते है । आज्ञाकारिता वश्यकर्म हैं । वृत्तियों का सर्वथा निरोध स्तम्भन है । परस्पर प्रीतिकारी मित्रों में विरोध उत्पन्न करन विद्वेषण है । स्थान नीचे गिरा देना उच्चाटन है, तथा प्राणवियोगानुकूल कर्म मारण है । षट्‌कर्मों के यही लक्षण है ॥२-३॥
अब षट्‌कर्मों में ज्ञेय १९ पदार्थो को कहते हैं -
१. देवता, २. देवताओम के वर्ण, ३. ऋतु, ४. दिशा, ५. दिन, ६. आसन, ७. विन्यास ८. मण्डल ९. मुद्रा, १०. अक्षर, ११. भूतोदय १२. समिधायें १३. माला, १४. अग्नि, १५. लेखनद्रव्य, १६. कुण्ड, १७. स्त्रुक्‍, १८. स्त्रुवा, तथा १९ लेखनी इन पदार्थों को भलीभाँति जानकारी कर षट्‌कर्मों में इनका प्रयोग करना चाहिए ॥४-५॥

अब क्रम प्राप्त (१) देवताओं और उनके (२) वर्णो को कहते हैं - १. रति, २. वाणी, ३. रमा, ४. ज्येष्ठा, ५. दुर्गा, एवं ६. काली यथाक्रम शान्ति आदि षट्‍कर्मों के देवता कहे गए हैं । १. श्वेत, २. अरुण. ३. हल्दी जैसा पीला, ४. मिश्रित, ५. श्याम (काला) एवं ६. धूसरित ये उक्त देवताओं के वर्ण हैं । प्रत्येक कर्म के आरम्भ में कर्म के देवता के अनुकूल पुष्पों से उनका पूजन करना चाहिए ॥६-७॥

(३) एक अहोरात्र में प्रतिदिन वसन्तादि ६ ऋतुयें होती हैं । इनमें एक - एक ऋतु का मान १० - १० घटी माना गया है । १ हेमन्त, २. वसन्त, ३. शिशिर, ४. ग्रीष्म, ५. वर्षा और ६. शरद्‍ इन छः ऋतुओं का साधक को शान्ति आदि षट्‌कर्मों में उपयोग करना चाहिए । प्रतिदिन सूर्योदय से १० घटी (४घण्टी) वसन्त, उसके आगे दश घटी शिशिर इत्यादि क्रम समझना चाहिए ॥७-९॥

(४) दिशाएं - ईशान-उत्तर-पूर्व-निऋति वायव्य और आग्नेय ये शान्ति आदि कर्मों के लिए दिशायें कही गई हैम । अतः शान्ति आदि कर्मोम के लिए उन उन दिशाओं की ओर मुख कर जपादि कार्य करना चाहिए ॥९-१०॥

(५) अब षट्‌कर्मों में क्रियमाण तिथि एवं वार का निर्देश करते हैं
शुक्ल पक्ष की द्वितीया, तृतीया, पञ्चमी एवं सप्तमी तिथि को बुधवार बृहस्पतिवार आये तो शान्तिकर्म करना चाहिए । शुक्लपक्ष की चतुर्थी, षष्ठी, नवमी एवं त्रयोदशी को सोमवार बृहस्पतिवार आने पर वशीकरण कर्म प्रशस्त होता है ॥१०-१२॥

विद्वेषण - में एकादशी, दशमी, नवमी और अष्टमी तिथि को शुक्र या शनिवार का दिन हो तो शुभावह कहा गया है ॥१२-१३॥

यदि कृष्णपक्ष की अष्टमी एवं चतुर्दशी को शनिवार हो तो फल सिद्धि के लिए उच्चाटन कर्म करना चाहिए । कृष्णपक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी एवं अमावस्या तथा शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को रवि, मङ्गल शनिवार, का दिन हो तो स्तम्भन और मारण कर्म सिद्ध हो जाता है ॥१३-१५॥

(६) शान्ति आदि षट्‌कर्मों में क्रमशः पद्‌मासन, स्वस्तिकासन, विकटासन, कुक्कुटासन, वज्रासन एवं भद्रासन का उपयोग करना चाहिए । गाय, गैंडा, हाथी, सियार, भेड एवं भैसे के चमडे के आसन पर बैठ कर शान्ति आदि षट्‌कर्मों में जपादि कार्य करना चाहिए ॥१५-१७॥

विमर्श - पद्‌मासन का लक्षण - दोनों ऊरु के ऊपर दोनों पादतल को स्थापित कर व्युत्क्रम पूर्वक (हाथों को उलट कर) दोनों हाथों से दोनों हाथ के अंगूठे को बींध लेने का नाम पद्‌मासन कहा गया है ।

स्वस्तिकासन का लक्षण - पैर के दोनों जानु और दोनों ऊरु के बीच दोनों पादतल को अर्थात्‍ दक्षिण पद के जानु और ऊरु के मध्य वाम पादतल एवं वामपाद के जानु और ऊरु के मध दक्षिण पादतल को स्थापित कर शरीर को सीधे कर बैठने का नाम स्वस्तिकासन है ।

विकटासन का लक्षण - जानु और जंघाओ के बीच में दोनों हाथों को जब लाया जाए तो अभिचार प्रयोग में इसे विकटासन कहते हैं ।

कुक्कुटासन का लक्षण - पहले उत्कटासन करके फिर दोनों पैरों को एक साथ मिलावे । दोनों घुटनों के मध्य दोनों भुजाओं को रखना कुक्कुटासन कहा गया है ।

वज्रासन का लक्षण - पैर के परस्पर जानु प्रदेश पर एक दूसरे को स्थापित्‍ करे तथा हाथ की अंगुलियों को सीधे ऊपर की ओर उठाए रखे तो इस प्रकार के आसन को वज्रासन कहते हैं ।

भद्रासन का लक्षण - सीवनी (गुदा और लिंग के बीचोबीच ऊपर जाने वाली एक रेखा जैसी पतली नाडी है) के दोनों तरफ दोनों पै के गुल्फों को अर्थात्‍ वामपार्श्व में दक्षिणपाद के गुल्फ को एवं दक्षिण पार्श्व में वामपाद के गुल्फ को निश्चल रुप से स्थापित कर वृषण (अण्डकोश) के नीचे दोनों पैर की घुट्टी अर्थात्‍ वृषण के नीचे दाहिनी ओर वामपाद की घृट्टॆए तथा बाँई ओर दक्षिण पाद की घुट्टी स्थापित कर पूर्ववत्‍ दोनों हाथों से बींध लेने से भद्रासन हो जाता है ॥१५-१७॥

(७) इस प्रकार आसनों को कह कर अब विन्यास कहता हूँ -
शान्ति आदि ६ कर्मोम में क्रमशः १. ग्रन्थन, २. विदर्भ, ३. सम्पुट, ४. रोधन, ५. योग और ६. पल्लव ये ६ विन्यास कहे गए हैं । इन छहों को क्रमशः कहता हूँ ॥१७-१९॥

१. मन्त्र का एक अक्षर उसके बाद नाम का एक अक्षर फिर मन्त्र का एक अक्षर तदनन्तर नाम का एक अक्षर इस प्रकार मन्त्र और नाम के अक्षरों का ग्रन्थन करना ‘ग्रन्थन विन्यास’ है ।
२. प्रारम्भ में मन्त्र के दो अक्षर उसके बाद नाम का एक अक्षर इस प्रकार मन्त्र और नाम के अक्षरों के बारम्बार विन्यास को मन्त्र शात्रों को जानने वाले ‘विदर्भ विन्यास’ कहते हैं ॥१९-२१॥

३. पहले समग्र मन्त्र का उच्चारण, तदनन्तर समग्र नामाक्षरों का उच्चारण करना फिर इसके बाद विलोम क्रम से मन्त्र बोलना ‘संपुट विन्यास’ कहा जाता है ।४. नाम के आदि, मध्य और अन्त में मन्त्र का उच्चारण करना ‘रोधन विन्यास’ कहा जाता है ॥२१-२२॥

५. नाम के अन्त मन्त्र बोलना ‘योग विन्यास’ होता है ।

६. मन्त्र के अन्त में नामोच्चारण को ‘पल्लवविन्यास’ कहते हैं ॥२३॥

(८) अब मन्त्र के आठवें प्रकार, मण्डल का लक्षण कहते हैं -
दोनों ओर दो दो कमलोम से युक्त अर्द्धचन्द्राकार चिन्ह को जल का मण्डल कहा गया है, यह शान्तिकर्म में प्रशस्त कहा गया है । त्रिकोण के भीतर उपयोग स्वस्तिक का चिन्ह रखा अग्नि क मण्डल माना गया है, वश्यकर्म में इसका उपयोग प्रशस्त कहा गया है । वज्र चिन्ह से युक्त चौकोर भूमि का मण्डल कहा गया है जो स्तम्भन कार्य के लिए प्रशस्त कहा गया है ॥२३-२५॥

आकाश मण्डल वृत्ताकार होता है । यह विद्वेषण कार्य में प्रशस्त है, छह बिन्दुओं से अंकित वृत्त वायु मण्डल कहा गया है, जो उच्चाटन क्रिया में प्रशस्त है । मारण में पूर्वोक्त वहिनमण्डल का उपयोग करना चाहिए ॥२५-२६॥

(९) अब मण्डल का लक्षण कह कर मुद्रा के विषय में कहते हैं - शान्ति आदि षट्‍कर्मों में पदम्‍, पाश, गदा, मुशल, वज्र एवं खड्‌ग मुद्राओं का प्रदर्शन करना चाहिए । अब आगे होम की मुद्रायें कहेगें ॥२६-२७॥

विमर्श - (१) पद्‌ममुद्रा - दोनों हाथों को सम्मुख करके हथेलियां ऊपर करे, अंगुलियों को बन्द कर मुट्ठी बॉधे । अब दोनों ऐगूठों को अंगुलियों के ऊपर से परस्पर स्पर्श कराये । यह पद्‌म मुद्रा है ।

(२) पाशमुद्रा - दोनों हाथ की मुटिठयां बांधकर बाईं तर्जनी को दाहिनी तर्जनी से बांधे । फिर दोनोम तर्जनियों को अपने-अपने अंगूठोम से दबाये । इसके बाद दाहिनी तर्जनी के अग्रभाग को कुछ अलग करने से पाश मुद्रा निष्पन्न होती है ।

(३) गदामुद्रा - दोनों हाथों की हथेलियों को मिला कर, फिर दोनोम हाथ की अंगुलियाम परस्पर एक दूसरे से ग्रथित करे । इसी स्थिति में मध्यमा उगलियों को मिलाकर सामने की ओर फैला दे । तब यह विष्णु को सन्तुष्ट करने वाली ‘गदा मुद्रा’ होती है ।

(४) मुशलमुद्रा - दोनों हाथों की मुट्ठी बांधे फिर दाहिनी मुट्ठी को बायें पर रखने से मुशल मुद्रा बनती है ।

(५) वज्रमुद्रा - कनिष्ठा और अंगूठे को मिलाकर त्रिकोण बनाने को अशनि (वज्रमुद्रा) कहते हैं अर्थात्‍ कनिष्ठा और अंगूठे को मिलाकर प्रसारित कर त्रिक्‍ बनाना वज्रमुद्रा है ।

(६) खड्‌गमुद्रा - कनिष्ठिका और अनामिका उंगलियों को एक दूसरे के साथ बांधकर अंगूठों को उनसे मिलाए । शेष उंगलियों को एक साथ मिला कर फैला देने से खड्‌गमुद्रा निष्पन्न होती है ॥२६-२७॥

मृगी, हंसी एवं सूकरी ये तीन होम की मुद्रायें हैं । मध्यमा अनामिका और अंगूठे के योग से मृगी मुद्रा, कनिष्ठा को छोड कर शेष सभी अङ्गगुलियों का योग करने से हंसी मुद्रा और हाथ को संकुचित कर लेने से सूकरी मुद्रा बनती है । इस प्रकार इन तीन मुद्राओं का लक्षण कहा गया है । शान्ति कार्य में मृगी वश्य में हंसी तथा शेष स्तम्भनादि कार्यों में सूकरी मुद्रा का प्रयोग किया जाता है ॥२७-२८॥

(१०) अक्षर - शान्ति आदि षट्‌कर्मों में यन्त्र पर चन्द्र, जल, धरा, आकाश, पवन, और अनल वर्णो के बीजाक्षरों का क्रमशः लेखन करना चाहिए । ऐसा मन्त्र शास्त्र के विद्वानों ने कहा हैं ॥३०॥

सोलह, स्वर, स एवं ठ ये अठारह चन्द्र वर्ण के बीजाक्षर हैं, चन्द्रवर्ण से हीन पञ्चभूतो के अक्षर जलादि तत्वों के बीजाक्षर वश्यादि कर्मों के लिए उपयुक्त है । कुछ आचार्यो ने स व ल ह य एवं र को क्रमशः चन्द्र जल, भूमि, आकाश और वायु एवं का बीजाक्षर कहा है ॥३१॥

शान्ति आदि षट्‌कर्मों में मन्त्रशास्त्रज्ञों ने क्रमशः नमः, स्वाहा, वषट्‍, वौषट, हुम्‍ एवं फट्‍ इन छः को जातित्वेन स्वीकार किया है ॥३२॥

(११) अब मन्त के ग्यारहवें प्रकार, भूतों का उदय कहते हैं - जब दोनों नासापुटों के नीचे तक श्वास चलता हो तब जलतत्त्व का उदय समझना चाहिए, जो शान्ति कर्म में सिद्धिदायक होता है । नाक के मध्य में सीधे दण्ड की तरह श्वास गति होने पर पृथ्वीतत्त्व का उदय समझना चाहिए, यह स्तम्भन काम में सिद्धिदायक होता है । नासा छिद्रों के मध्य में श्वास की गति होने पर आकाशतत्त्व का उदय समझना चाहिए, जो विद्वेषण में सिद्धिदायक है । नासापुटों के ऊपर श्वास की गति होने पर अग्नितत्त्व का उदय समझना चाहिए ॥३३-३५॥

ऐसे समय में मारण एवं वशीकरण दोनों कार्यो में सफलता मिलती है । श्वास की गति तिर्यक्‍ (तिरछी) होने पर वायुतत्त्व का उदय समझना चाहिए जो उच्चाटन क्रिया में शुभावह होता है ॥३६॥

(१२) अब मन्त्र के बारहवें प्रकार, विभिन्न समिधाओं को कहते हैं - शान्ति कार्य में गोघृत मिश्रित दूर्वा से, वश्य में बकरी के घी से मिश्रित अनार की समिधा से स्तम्भन में भेंडी का घी मिला कर अमलतास वृक्ष की समिधा से, विद्वेषण में अतसी के तेल मिश्रित धतूरे की समिधा से, उच्चाटन में सरसों के तेल से मिश्रित आम की वृक्ष की समिधा से तथा मारण में कटुतैल मिश्रित खैर की लकडी की समिधा से होम करना चाहिए ॥३७-३९॥

(१३) अब तेरहवें प्रकार में माला की विधि कहते हैं - शान्ति आदि षट्‌कर्मों में शंख की शान्ति में, कवलगद्दा की वश्य में, नींबू की स्तम्भन में, नीम की विद्वेषण में, घोडे के दाँत उच्चाटन में तथा गदहे के दाँत की जप माला मारण कर्म में उपयोग करना चाहिए ॥४०॥

शान्ति, वश्य, पूष्टि, भोग एवं मोक्ष के कर्मों में मध्यमा में स्थित माला को अंगूठे से घुमाना चाहिए । स्तम्भनादि कार्यो के लिए बुद्धिमान साधक को अनामिका एवं अंगूठे से जप करना चाहिए । विद्वेषण एवं उच्चाटन में तर्जनी एवं अंगूठे से जप करना चाहिए तथा मारण में कनिष्ठिका एवं अंगूठे से जप करने का विधान है ॥४१-४३॥

अब प्रसङ्ग प्राप्त माला की मणियोम की गणना कहते हैं - शुभकार्य के लिए माला में मणियोम की संख्या १०८, ५४ या २७ कही गई है, किन्तु अभिचार (मारण) कर्म मे मणियों की संख्या १५ कही गई है ॥४४॥

(१४) अब चौदहवें प्रकार वाले अग्नि के विषय में कहते हैं -
शान्ति और वशीकरण कर्म में लौकिक अग्नि में, स्तम्भन में बरगद के काठ की बनी अग्नि में, विद्वेषण में बहेडे की लकडी की अग्नि में तथा उच्चाटन एवं मारण के प्रयोगोम में श्मशानाग्नि में होम का विधान है ॥४५॥

अग्नि प्रज्वलित करने के लिए समिधाओं के विषय में कहते हैं - शुभ कार्यो में वेल, आक, पलाश एवं दुधारु वृक्षों की समिधाओम से तथा अशुभ कर्मों में विषकृत कुचिला, बहेडा, नीबू, धतूरा एवं लिसोडे की समिधाओं से मान्त्रिक को अग्नि प्रज्वलित करनी चाहिए ॥४६॥

अब अग्नि जिहवाओं का तत्तत्कर्मों में पूजन का विधान कहते हैं - शान्ति कर्म में अग्नि की सुप्रभा संज्ञक जिहवा का, वश्य में रक्तनामक जिहवा का, स्तम्भन में हिरण्या नामक जिहवा का,विद्वेषण में गगना नामक जिहवा का, उच्चाटन में अतिरिक्तिका जिहवा का तथा मारण में कृष्णा नामक अग्नि जिहवा और सभी जगह बहुरुपा नामक अग्निजिहवा का पूजन करना चाहिए ॥४७-४९॥

शान्त्यादि कर्मों में ब्राह्मण भोजन के विषय में कुछ विशेषतायें हैं । शान्ति एवं वश्य में होम के दशांश संख्या मे ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए, यह उत्तम पक्ष माना गया हैं ॥४९-५०॥

होम की संख्या के पच्चीसवें अंश की संख्या में ब्राह्मण भोजन मध्यम तथा शतांश संख्या में ब्राह्मण भोजन अधम पक्ष कहा गया है । स्तम्भन कार्य में शान्ति की संख्या से दूने ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए । इसी प्रकार विद्वेषण एवं उच्चाटन में शान्ति संख्या से तीन गुने ब्राह्मणों को तथा मारण में संख्या के तुल्य ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए ॥५०-५१॥

अब भोजनार्ह ब्राह्मणों का स्वरुप कहते हैं -
अत्यन्त विशुद्ध कुलों में उत्पन्न साङ्‌गवेद के विद्वान पवित्र निर्मल अन्तःकरण वाले सदाचार परायण ब्राह्मणों को विविध प्रकार के मनोहर भोज्य पदार्थो से भोजन कराना चाहिए । उनमें देवबुद्धि रखकर पूजन करन चाहिए तथा बारम्बार उन्हे प्रणाम करना चाहिए । मधुर वाणी से तथा सुर्वणदि दे दान से उन्हे सन्तुष्ट करना चाहिए । इस प्रकार के ब्राह्मणों द्वारा दिए गए आशीर्वाद के प्राप्त करने से साधक के समस्त अभिचारादि पाप नष्ट हो जाते हैं, तथा शीघ्र ही उसे मनोऽभिलषित पदार्थो की प्राप्ति हो जाती है ॥५२-५५॥

(१५) अब लेखन द्रव्य के विषय में कहते हैं -
चन्दन, गोरोचन, हल्दी, गृहधूम, चिता का अङ्गार तथा विषाष्टक यन्त्र लेखन के द्रव कहे गए हैं । यन्त्र तरङ्ग (२०) में पूर्वोक्त द्रव्यादि भी तत्तत्कामनाओम में लेखन द्रव्य कहे गए हैं । वे भी ग्राह्य हैं । १. पिप्पली, २. मिर्च, ३. सोंठ, ४. बाज पक्षी की विष्टा, ५. चित्रक (अण्डी), ६. गृहधूम, ७. धतूरे का रस तथा ८. लवण ये ८ वस्तुयें विषाष्टक कही गई हैं ॥५५-५७॥

शान्ति और वश्य कर्म में भोज पत्र पर, स्तम्भन में व्याघ्र चर्म पर, विद्वेष में गदहे की खाल पर, उच्चाटन में ध्वज वस्त्र पर, और मारण में मनुष्य की हड्डी पर, मान्त्रिक को मन्त्र लिखना चाहिए । यत्र तरङ्ग (२० में विविध प्रयोगों में यन्त्र लिखने के जो जो आधार कहे गए हैं वे भी यन्त्राधार में ग्राह्य हैं ॥५८-५९॥

(१६) अब मन्त्र के १६वें प्रकार, कुण्ड के विषय में कहते हैं -
शान्ति आदि षट्‌कर्मोम में क्रमशः वृत्तकार, पद्‌माकार, चतुरस्त्र, त्रिकोण, षट्‌कोण और अर्द्धचन्द्रकार कुण्ड का निर्माण पश्चिम उत्तर-पूर्व नैऋत्य वायव्य और दक्षिण दिशा में करना चाहिए ॥६०॥

(१७) स्त्रुवा और स्त्रुची - शान्ति में सुवर्ण की एवं वश्य में यज्ञवृक्ष की स्त्रुवा और स्त्रुची बनानी चाहिए । शेष स्तम्भनादि कार्योम में लौह की स्त्रुवा और स्त्रुची बनानी चाहिए ॥६१॥

(१८) अब मन्त्र के उन्नीसवें प्रकार, लेखनी के विषय में कहते हैं -
शान्ति कर्म में सोने, चांदी, अथवा चमेली की, वश्य कर्म में दूर्वा की, स्तम्भन में अगस्त्य वृक्ष की अथवा अमलतास की, विद्वेषण में करञ्ज की, उच्चाटन में बहेडे की तथा मारण में मनुष्य की हड्डी की लेखनी से यन्त्र लिखना चाहिए । शुभ कर्म में साधक को शुभमुहूर्त में अशुभ कार्य में रिक्ता (चौथ, नवमी, चतुर्दशी) तिथियों में मङ्गलवार के दिन तथा विष्टी (भद्रा) में लेखनी का निर्माण करना चाहिए ॥६२-६५॥

अब उक्तकर्मों में भक्ष्यपदार्थों को, तर्पण द्रव्यों को तथा उपयोग में लाये जाने योग्य पात्रों के विषय में कहता हूँ -
शान्ति और वश्य कर्म करते समय हविष्यान्न, स्तम्भन करते समय खीर, विद्वेषण करते समय उडद एवं मूँग, उच्चाटन करते समय गेहूँ तथा मरण करते समय मान्त्रिक को मसूर एवं काली बेकरी के दूध में बने खीर का भोजन करना चाहिए ॥६५-६७॥

शान्ति कर्म में तथा वश्य कर्म में हल्दी मिला जल, स्तम्भन और मारण कर्म में मिर मिला कुछ गुणगुना जल तथा विद्वेषण एवं उच्चाटन में भेद् के खून से कमकश्रत जल तर्पण द्रव्य कहा गया है ॥६८॥

शान्ति एवं वश्य कर्म में सोने के पात्र में, स्तम्भन में मिट्टी के पात्र में, विद्वेषण में खैर के पात्र में, उचाटन में लोहे के पात्र में तथा मारण में मुर्गी ल्के अण्डे में तर्पण करना चाहिए ॥६८-७१॥

शान्ति एवं वश्य कर्म में मृदु आसन पर बैठकर तर्पण करना चाहिए । स्तम्भन में घुटनोम से उठकर तथा विद्वेषण आदि में एक पैर से खडे हो कर तर्पण करना चाहिए ॥७१॥

हमने मन्त्र साधकों के सन्तोष के लिए षट्‍कर्मोम (शान्ति, वश्य, स्तम्भन, विद्वेषण उच्चाटन और मारण) की विधि बताई है । सर्वप्रथम विधिवत्‍ न्यास  द्वारा आत्मरक्षा करने के बाद ही काम्य कर्मों का अनुष्ठान करना चाहिए । अन्यथा हानि और असफलता ही प्राप्त होती है ॥७२॥

जो व्यक्ति शुभ अथवा अशुभ किसी भी प्रकार का काम्य कर्म करता है मन्त्र उसका शत्रु बन जाता है इसलिए काम्यकर्म न करे । यही उत्तम है ॥७३-७४॥

अब प्रश्न होता है कि यदि काम्य कर्म करने का निषेध है तो इतनी बडी विधियुक्त पुस्तक के निर्माण का क्या हेतु है? इसका उत्तर देते हैं - विषयासक्त चित्त वालों के सन्तोष के लिए प्राचीन आचार्यों ने काम्य कम की विधि का प्रतिपादन किया है किन्तु यह हितकारी नहीं है । काम्य कर्म वालों के लिए केवल कामना सिद्धि मात्र फल की प्राप्ति होती है ॥७४-७५॥

किन्तु निष्काम भाव से देवताओं की उपासना करने वालों की सारी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती है । केवल सुख प्राप्ति के लिए प्रत्येक मन्त्रों के जितने भी प्रयोग बतलाये गए हैं उनकी आसक्ति का त्याग कर निष्काम रुप से देवता की पूजा करनी चाहिए ॥७६॥

वेदों में कर्मकाण्ड, उपासना और ज्ञान तीन काण्ड बतलाये गए हैं । ‘ज्योतिष्टोमेन यजेत्‍’ यह कर्मकाण्ड है, ‘सूर्यो ब्रह्मेत्युपासीत’ यह उपासना है, ये दोनों काण्ड ज्ञान के साधन हैं हैं ‘अयमात्मा ब्रह्म’ यह ज्ञान है जो स्वयं में साध्य है । यही उक्त दोनों में ही वेदोक्त मार्ग के अनुसार प्रवृत्त होना चाहिए । देवता की उपासना से अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है । जिससे उत्तम ज्ञान की प्राप्ति होती है । कार्यकारणसंघात शरीर में प्रविष्ट हुआ जीव ही परब्रह्म है । इसी ज्ञान से साधक मुक्त हो जाता है । अतः मनुष्य देह प्राप्त कर देवताओम की उपासना से मुक्ति प्राप्त कर लेनी चाहिए । जो मनुष्य देह प्राप्त कर संसार बन्धन से मुक्त नही होता, वही महापापी ॥८०॥

इसलिए उपासना और कर्म से काम-क्रोधादि शत्रुओं का नाश कर आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए सत्पुरुषों को सतत्‍ प्रयत्न करते रहना चाहिए ॥७७-८१॥

देवता की उपासना करने वाले को अपना भविष्य विचार कर उसमें प्रवृत्त होना चाहिए । उसकी विधि इस प्रकार है -
स्नान और दान आदि करने के बाद भगवान्‍ विष्णु के चरण कमलों का ध्यान कर कुश की शय्या पर सोना चाहिए । तथा भगवान शिव से ‘भगवान देवदेवेश...... त्वत्प्रसादान्महेश्वर’ पर्यन्त तीन श्लोकों से (द्र० २५. ८३. ८६) से प्रार्थना कर निश्चिन्त हो सो जाना चाहिए ॥८२-८६॥

प्रातःकाल उठने पर देखा हुआ स्वप्न अपने गुरुदेव से बतला देना चाहिए । उनके न होने पर स्वयं साधक को अपने स्वप्न के भविष्य के विषय में विचार कर लेना चाहिए ॥८७॥

अब शुभाशुभ स्वप्न के विषय में कहते हैं -
लिङ्ग चन्द्र और सूर्यकर बिम्ब, सरस्वती, गङ्गा, गुरु, लालवर्ण वाले समुद्र में तैरना, युद्ध में विजय, अग्नि का अर्चन, मयूरयुक्त, हंसयुक्त अथवा चक्रयुक्त रथ पर बैठना, स्नान, संभोग, सारस की सवारी, भूमिलाभ, नदी, ऊचे ऊचे महल, रथ, कमल, छत्र, कन्या, फलवान्‍ वृक्ष, सर्प अथवा हाथी, दीया, घोडा, पुष्प, वृषभ और अश्व, पर्वत, शराब का घडा, ग्रह नक्षत्र, स्त्री, उदीयमान सूर्य अप्सराओं का दर्शन, लिपे पोते स्वच्छ मकान पर, पहाड पर तथा विमान पर चढना, आकाश यात्रा, मद्य पीना, मांस खाना, विष्टा का लेप, खून से स्नान, दही भात का भोजन, राज्यभिषेक होना (राज्य प्राप्ति), गाय, बैल और ध्वजा का दर्शन, सिंह और सिंहासन , शंख बाजा, गोरोचन, दधि, चन्दन तथा दर्पण इनका स्वप्न में दिखलायी पडना शुभावह कहा गया है ॥८८-९३॥

तैल की मालिश किए पुरुष का, काला अथवा नग्न व्यक्ति का, गङ्गा, कौआ, सूखा वृक्ष, काँटेदार वृक्ष, चाण्डाल बडे कन्धे वाला पुरुष, तल (छत) रहित पक्ता महल इनका स्वप्न में दिखलाई पडना अशुभ है ॥९४-९५॥

दुःस्वप्न की शात्नि के उपाय - दुःस्वप्न दिखई पडने पर उसकी शान्ति करानी चाहिए । तदनन्तर एकाग्रमन से इष्टदेव के मन्त्र को जप करना चाहिए । ३ वर्ष तक जप करने वाले को विघ्न की संभावना रहती है, अतः विघ्नसमूह की परवाह न कर अपने जप में तत्पर रहना चाहिए । अपने चित्त में विश्वस्त रहने वाला सिद्धपुरुष चौथे वर्ष में अवश्य ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है ॥९५-९७॥

अब मन्त्र सिद्धि का लक्षण कहते हैं -
मन में प्रसन्नता आत्मसन्तोष, नगाङ्गे की ध्वनि, गाने की ध्वनि, ताल की ध्वनि, गन्धर्वो का दर्शन, अपने तेज को सूर्य के समान देखना, निद्रा, क्षुधा, जप करना, शरीर का सौन्दर्य बढना, आरोग्य होना, गाम्भीर्य, क्रोध और लोभ का अपने में सर्वथा अभाव, इत्यादि चिन्ह जब साधक को दिखाई पडे ती मन्त्र की सिद्धि तथा देवता की प्रसन्नता समझनी चाहिए ॥९७-१००॥

अब मन्त्र सिद्धि के बाद के कर्त्तव्य का निर्देश करते हैं - मन्त्र सिद्धि प्राप्त कर लेने वाले साधक को ज्ञान प्राप्ति के लिए जप की संख्या में निरन्तर वृद्धि का यन्त करते रहना चाहिए । जब वेदान्त प्रतिपादित (अयमात्माब्रह्म, अहं ब्रह्मास्मि, तत्त्वामसि श्वेतोकेतो इत्यादि) तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त है जाय तब साधक कृतार्थ हो जाता है और संसार बन्धन से छूट जाता है ॥१००-१०१॥

अब ग्रन्थ समाप्ति में पुनः मङ्गलाचरण करते हैं - सर्वव्यापी ईश्वर परमात्मा की मैं वन्दना करता हूँ, जो अनेक देवताओं का स्वरुप ग्रहण कर मनुष्यों के अभीष्टों को पूरा करते हैं ॥१०२॥

ग्रन्थ रचना का हेतु - श्रेष्ठ विद्वान्‍ ब्राह्मणों द्वारा प्रार्थना किये जाने पर अनेक तन्त्र ग्रन्थोम का अवलोकन कर अपनी बुद्धि के अनुसार मैंने इस मन्त्र महोदधि नामक ग्रन्थ की रचना है । यही इस ग्रन्थ की रचना का हेतु है ॥१०३॥

अब प्रसङ्ग प्राप्त मन्त्रमहोदधि की अनुक्रमणिका कहते हैं -
इस मन्त्रमहोदधि में पच्चीस तरङ्ग हैं । मान्त्रिकों की सुविधा के लिए अब उनकी अनुक्रमाणिका कहता हूँ ॥१०४॥

प्रथम तरङ्ग में भूतसुद्धि, प्राणप्रतिष्ठा, मातृकान्यास, पुरश्चरण और होम की विधि तथा तर्पण का विषय प्रतिपादन किया गया है ॥१०५॥

द्वितीय तरङ्ग में गणेश के विविध मन्त्र और उनकी सिद्धि के प्रकार कहे गए हैं ।

तृतीय तरङ्ग में काली तथा काली नाम से अभिहित दक्षिणाकाली आदि के अनेक मन्त्र एवं सुमुखी के मन्त्र का प्रतिपादन एवं काम्यप्रयोग कहा गया है ॥१०६॥

चतुर्थ तरङ्ग  में तारा की उपासना तथा पञ्चम तरङ्ग में तारा के भेद कहे गए हैं ।

छठे तरङ्ग  में छिन्नमस्ता, शबरी, स्वयम्बरा, मधुअमती, प्रमदा, प्रमोदा, बन्दी जो बन्धन से मुक्त करती हैं - उनके मन्त्रों को बताया गया है ॥१०७-१०८॥

सप्तम तरङ्ग में वटयक्षिणी, वटयक्षिणी के भेद, वाराही, ज्येष्ठा, कर्णपिशाचिनी, स्वप्नेश्वरी, मातङ्गी, बाणेशी एवं कामेशी के मन्त्रों को प्रतिपादित दिया गया है ॥१०८-१०९॥

अष्टम तरङ्ग मे त्रिपुराबाला तथा उनके भेदों का विवेचन विस्तार से किया गया है ।

नवम तरङ्ग में अन्नपूर्णा, उनके भेद त्रैलोक्यमोहन गौरी एवं ज्येष्ठालक्ष्मी तथा उनके साथ ही प्रत्यंगिरा के भी मन्त्रों का निर्देश किया गया है ॥११०-१११॥

दशम तरङ्ग में बगलामुखी तथा वाराही को भी बतलाया गया है ॥१११॥

एकादश तरङ्ग में श्रीविद्या तथा द्वादश तरङ्ग में उनके आवरण पूजा की विधि बताई गई है ।

त्रयोदश तरङ्ग में हनुमान्‍ के मन्त्रों एवं प्रयोगों का विशद्‍ रुप से  प्रतिपादन किया गया है ॥११२॥

चतुर्दश तरङ्ग में नृसिंह, गोपाल एवं गरुड मन्त्रों का प्रतिपादन है ।

पञ्चदश तरङ्ग में सूर्य, भौम, बृहस्पति, शुक्र एवं वेदव्यास के मन्त्रों को बताया गया है ॥११३॥

षोडश तरङ्ग में महामृत्युञ्जय, रुद्र एवं गङ्गा तथा मणिकर्णिका के मन्त्र कहे गए हैं ।

सप्तदश तरङ्ग में कार्त्तवीर्यार्जुन के मन्त्र, दीपदान विधि आदि का वर्णन है ।

अष्टादश तरङ्ग में कालरात्रि के मन्त्र, नवार्णमन्त्र शतचण्डी और सहस्त्रचण्डी विधान का सविस्तार वर्णन किया गया है ॥११४-११५॥

उन्नीसवें तरङ्ग में चरणायुध मन्त्र, शास्ता मन्त्र, पार्थिवार्चन, धर्मराज, चित्रगुप्त के मन्त्रों का प्रतिपादन करते हुये आसुरी (दुर्गा) विधि का प्रतिपादन किया गया है ॥११५-११६॥

बीसवें तरङ्ग में विविध यन्त्र, स्वर्णाकर्षण भैरव की उपासना विधि तथा अनेक यन्त्रों का वर्णन है ।

इक्कीसवें तरङ्ग में स्नान से लेकर अर्न्तयाग तथा नित्यकर्म का वर्णन है ।

बाइसवें तरङ्ग में अर्घ्यस्थापन से लेकर पूजन पर्यन्त के कृत्य तथा पूजा के भेद बतलाये गये हैं ॥११६-११७॥

त्रयोविंशति तरङ्ग में दमनक तथा पवित्रक से इष्टदेव के सर्मचन का विधान कहा गया है ।

चौबीसवें तरङ्ग में मन्त्र शोधन की नाना प्रकार की प्रक्रिया कही गई है ।

पच्चीसवें तरङ्ग  में षट्‌कर्मों के समस्त विधान का निर्देश है ॥११८-११९॥

इस प्रकार मन्त्रमहोदधि के पच्चीस तरङ्गों में उक्त समस्त विषयों का वर्णन किया गया है ॥११६-११९॥

अब ग्रन्थकार ग्रन्थ का उपसंहार कर विशेषज्ञों से प्रार्थना करते हैम कि आवश्यकता पडने पर विशेषज्ञों  को इसमें संशोधन कर लेना चाहिए, जिस प्रकार पिता अपने बालकों की चपलता क्षमा करता हैं उसी प्रकार मन्त्र के विषय में किए गए साहस को भी विज्ञपन क्षमा करेंगे ॥१२०॥

अब ग्रन्थकार अपना स्ववंश परिचय देते हैं - अहिच्छत्र देश में द्विजो के छत्र के समान वत्स में उत्पन्न, धरातल में अपनी विद्वत्ता से विख्यात रत्नाकर नाम के ब्राह्मण हुये ॥१२१॥

उनके लडके फनूभट्ट, हुये, जो भगवान्‍ श्री राम के प्रकाण्ड भक्त थे । उनके पुत्र श्रीमहीधर हुये, जिन्होने संसार की असारता को जान कर अपना देश छोड कर काशी नगरी में आकर भगवान्‍ नृसिंह की सेवा करते हुये मन्त्रमहोदधि नामक इस तन्त्र ग्रन्थ की रचना की ॥१२२-१२३॥

अनेक ग्रन्थों में लिखे गए नाना प्रकार के मन्त्रों के सार को किसी एक ग्रन्थ में निबद्ध करने की इच्छा रखने वाले तथा आगम ग्रन्थों के मर्मज्ञ महामुनियों, श्रेष्ठ ब्राह्मणोम एवं कल्याण नामक स्वकीय पुत्र के द्वारा प्रार्थना किए जाने पर मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार इस मन्त्रमहोदधि नामक ग्रन्थ की रचना की है ॥१२४-१२५॥

अब ग्रन्थकार ग्रन्थ के अन्त में आशीर्वचन कहते हैं -
इस ग्रन्थ का अभ्यास करने वाले समस्त पाठकगण अपने धर्म में परायण रहें । सर्वदा कल्याण का दर्शन करें । द्रोह से सर्वथा पराङ्‌मुख रहें और उनकी वंशपरम्परा अविच्छिन्न रुप से चलती रहे ॥१२६॥

अब जगदीश्वर से प्रार्थना करते हुये ग्रन्थ की समाप्ति करते हैं -
जगदीश्वर श्रीहरि सभी का कल्याण करें और जब तक वेद, सूर्य तथा चन्द्रमा रहें तब तक इस ग्रन्थ का प्रचार प्रसार करते रहें ॥१२७॥

समस्त देवगणों की विपत्ति को दूर करने वाले, देवगणों से वन्दित लक्ष्मी सहित श्रीनृसिंह देव हमें निरन्तर हर्ष प्रदान करते रहें ॥१२८॥

क्षीर सागर के मध्य में स्थित श्वेत द्वीप के मण्डप में अपनी गोद में स्थित लक्ष्मी के साथ विराजमान, प्रसन्नता से पूर्ण भगवान्‍ श्री नृसिंह मेरी रक्षा करें, जो अञ्जलि आदि मुद्राओं से पूजा करने वाले अपने भक्तो को समस्त सिद्धियाँ प्रदान करते हैं वह भगवान्‍ श्रीनृसिंह मुझे रजोगुण रहित सद्‌बुद्धि दें ॥१२७-१२९॥

भगवान्‍ श्री लक्ष्मीनृसिंह की जय हो । मैं परमकल्याणकारी श्री नृसिंह की वन्दना करता हूं, जिन नृसिंह ने महबलवान्‍ बडे बडे दैत्योम का वध किया उन नरहरि को मैम प्रणाम करता हूँ ।

लक्ष्मीनृसिंह से बढ कर और कोई देवता नही है । इसलिए श्री नृसिंह के चरण कमलों की सेवा करनी चाहिए । यही सोंच कर श्रीनृसिंह मेरे मन में निवास करें । यह मेरा मन कभी भी नृसिंह से अलग न हो ॥१३०॥

बाबा विश्वनाथ, भवानी अन्नपूर्णा, बिन्दुमाधव, मणिकर्णिका, भैरव, भागीरतेहे तथा दण्डपाणी मेरा सतत्‍ कल्याण करें ॥१३१॥

विक्रम संवत्‍ १६४५ में ज्येष्ठ शुक्ला अष्टमी को बाबा विश्वनाथ के सान्निध्य में यह मन्त्रमहोदधि नामक ग्रन्थ पूर्ण हुआ ॥१३२॥

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Last Updated : May 07, 2012

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