मन्त्रमहोदधि - विंश तरङ्ग

`मन्त्रमहोदधि' इस ग्रंथमें अनेक मंत्रोंका समावेश है, जो आद्य माना जाता है।


अरित्र
अब यन्त्रों के विषय में कहने के लिये उपक्रम आरम्भ करते है । अब सदाशिव ने जिन यन्त्रों का आख्यान भगवती गौरी से किया था उन यन्त्रों को कहता हूँ -

साधक शुभ मुहूर्त में अपने इष्टदेव का पूजन कर उनके यन्त्रोम को स्मरण करते हुये हविष्यान्न भोजन करते हुये तीन दिन पर्यन्त लगातार भूमि पर शयन करते हुये इष्टदेव से इस प्रकार प्रार्थना करे कि-

हे प्रभो ! मेरे द्वारा लिखा गया अमुक यन्त्र कैसा होगा? - इष्टदेव को स्वप्न आता है, जिसमें यन्त्र के सिद्ध, साध्य, सुसिद्ध और अरि विषयक स्वप्न होते हैं ॥१-४॥

शत्रु यन्त्र को नहीं लिखना चाहिए । इसके अतिरिक्त अन्य सिद्ध, साध्य एवं सुसिद्ध लिखना चाहिए । स्वप्न के न आने पर भी शत्रु यन्त्र को छोडकर अन्य यन्त्र लिखना चाहिए ॥४-५॥

अब सभी देवताओं के यन्त्रों के लिखने के लिये सामान्यतया की जाने वाली प्रक्रिया कहता हूँ -
स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण कर अपने को चन्दन और पुष्प माला से विभूषित कर यन्त्र लिखने के लिये निर्दिष्ट स्याहि एवं भोजपत्रादि वस्तुओं को लेकर सर्वथा एकान्त स्थल में बैठकर यन्त्र क लेखन करे ॥५-६॥

यन्त्र मे मध्य बीज के ऊपर साधक का षष्ठन्त नाम, फिर नीचे साध्य के नाम के आगे द्वितीयान्त विभक्ति लगातर साध्य (व्यक्ति या उसका कार्य) का नाम, तदनन्तर दोनों ओर दो बार कुरु शब्द लिखना चाहिए ॥७॥

विमर्श - यथा - साधकस्य (देवदत्तस्य इष्टं कुरु कुरु) साध्यं (यज्ञदत्तं वशं कुरु कुरु इत्यादि )॥७॥

औ तथा विसर्ग सहित वियत् (ह), भृगु (स) अर्थात् ह्सौः इस बीज को जो यन्त्र का बीज कहा गया है, उसे मध्य भाग से नीचे की ओर लिखना चाहिए । फिर ‘हंसः सोऽहं’ जो यन्त्र का प्राण माना गया है, उसे ईशानादि चारों कोणोम में लिखान चाहिए ॥८॥

यन्त्र के दोनों ओर क्रमशः नेत्र (इ ई), श्रोत्र (उ ऊ) लिखने चाहिए । फिर यन्त्र के दशो दिशाओं में दश दिक्पालोम के बीज लं रं मं क्षं वं यं सं हं आं ह्रीं लिखना चाहिए । यन्त्र गायत्री के ३, ३, वर्णो को आठों दिशाओं में लिखना चाहिए ॥९॥

अब यन्त्र गायत्री बतलाते हैं -
‘यन्त्रराजाय’ पद के बाद ‘विद्महे’ पद, फिर ‘प्रदाय धीमहि’ पद तथा अन्त में ‘तन्नो यन्त्रः प्रचोदयात्’ लगाने से यन्त्र गायत्री निष्पन्न होती है, जो स्मरण करन मात्र से सारे अभीष्ट प्रदान करती है ॥१०-१२॥

विमर्श - मन्त्र का स्वरुप - ‘यन्त्रराजाय विद्महे वरप्रदाय धीमहि तन्नो यन्त्रः प्रचोदयात्‍’ ॥१०-११॥

यन्त्र के बाहर प्राण प्रतिष्ठा के मन्त्र लिखकर उसे वेष्टित करना चाहिए । जिन यन्त्रों को लिखने के लिये वस्तुओं का निर्देश नहीं किया गया है उन यन्त्रों को भोजपत्र, रेशमी वस्त्र अथवा ताडपत्र पर लिखकर उसे समेटकर चारोम ओर धागे से बाँध देना चाहिए ॥११-१२॥

जिसे देवता का यन्त्र लिखा जाय उस देवता के बीज अक्षर से युक्त मातृकाओं द्वारा उसका पूजन कर, उस देवता के मन्त्र का जप कर, हुतशेष घी में उस यन्त्र को डुबोकर, फिर उसे सोने चाँदी या ताँबे के बने ताबीज में रखकर उसके मुख पर लाख चिपका देना चाहिए । इस प्रकार निर्मित यन्त्र को अपने उद्‌देश्य की सिद्धि के लिये शिर, भुजा या गले में धारण करना चाहिए ॥१३-१४॥

यन्त्र के बनाने वाले को अथवा धारण करने वाले को पराभूतलिपि की उपासना करनी चाहिए । जिसकी उपासना मात्र से समस्त यन्त्र सिद्ध जो जाते हैं ॥१५॥

विमर्श - भूतलिपिः शारदातिलके यथा - इस भूतलिपि में नववर्ग तथा ४२ अक्षर होते हैं - इसका विवरण इस प्रकार है - पाँच ह्रस्व ( अ इ उ ऋ लृ) यह प्रथम वर्ग, पञ्च सन्धि वर्ण (ए ऐ ओं औ) चार द्वितीयवर्ग, (ह य र व ल ) यह तृतीय वर्ग (ङ क ख घ ग) यह चतुर्थ वर्ग इसी प्रकार (ञ च छ झ ज) यह पञ्चम वर्ग ण (ट ठ ढ ण) यह षष्ठ वर्ग (न त थ ध द) यह सप्तम वर्ग, (म प फ भ ब) यह अष्टमवर्ग वान्त (श) श्वेत (ष) इन्द्र (स) यह नवमवर्ग है ।

विनियोग - अस्या भूतलिपेर्दक्षिणामूर्तिऋषिः गायत्रीच्छन्दः वर्णेश्वरदेवता आत्मनोअभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।

भूतालिपि -  अं इं उं ऋं लृं ऐं ऐं ओं औं हं यं रं वं लं ङं कं खं घं गं ञं चं छं झं जं णं टं ठं डं नं तं थं धं दं मं पं फं भं बं शं षं सं ।

षडङ्गन्यास -  १. हं यं रं वं लं हृदयाय नमः,
२. डं कं खं घं गं शिरसे स्वाहा
३. चं छं झं जं शिखायै वषट्,
४. णं टं ठं ढं कवचाय हुम्
५. नं तं थं धं दं नेत्रत्रयात् वौषट्
६. मं पं फं बं अस्त्राय फट् ।

वर्णन्यास -    ॐ अं नमः गुदे,    ॐ इं नमः लिङ्गे
ॐ उं नमः नाभौ        ॐ ऋं नमः हृदि,        ॐ लृं नमः कण्ठे
ॐ ऐं नमः भ्रूमघ्ये,        ॐ ऐं नमः ललाटे        ॐ ओं नमः शिरसि,
ॐ औं नमः ब्रह्मरन्ध्रे,        ॐ हं नमः ऊर्ध्वमुखे,        ॐ यं नमः पूर्वमुखे,
ॐ रं नमः दक्षिणमुखे,    ॐ वं नमः उत्तरमुखे,        ॐ लं नमः पश्चितामुखे,
ॐ ङं नमः हस्त्राग्रे        ॐ कं नमः दक्षहस्तमूले,    ॐ खं नमः दक्षकूपरे,
ॐ घं नमः हस्ताङ्‌लिसन्धी,        ॐ गं नमः दक्षमणिबन्धे,
ॐ ञं नमः वामहस्ताग्रे,        ॐ चं नमः वामहस्तमूले
ॐ छं नमः दक्षकूर्परे            ॐ झं नमः वामहस्ताङ्‌गुलि सन्धौ,
ॐ जं नमः वाममणिबन्धे        ॐ णं नमः दक्षपादाग्रे,
ॐ टं नमः दक्षपादमूले        ॐ ठं नमः दक्षिणजानौ
ॐ ढं नमः दक्षपादाङ्‌गुलिसन्धौ,    ॐ डं नमः दक्षिणपादगुल्फे,
ॐ नं नमः वामपादाग्रे,        ॐ तं नमः वामपादागुल्फे,
ॐ थं नमः वामजानौ,            ॐ धं नमः वामपादाङ्‌गुलिसन्धौ,
ॐ दं नमः वामगुल्फे,            ॐ मं नमः उदरे
ॐ पं नमः दक्षिणपार्श्वे        ॐ फं नमः वामपार्श्वे,
ॐ भं नमः नाभौं            ॐ बं नमः पृष्ठे,
ॐ शं नमः गुह्ये,    ॐ षं नमः हृदि,    ॐ सं नमः भ्रूमध्ये’ ।

ध्यान - अक्षरस्त्रजं हरिणपोतमुदग्रटंकं,
विद्यां करैरविरतं दधतीं त्रिनेत्राम् ।
अर्धेन्दुमौलिमरुणामरविन्दरामां
वर्णेश्वरीं प्रणमतस्तनभारनम्राम् ॥

इस भूतलिपि की एक लाख का संख्या में जप करना चाहिए । तत्पश्चात तिलों की १० हजार आहुतियाँ देने से भूतलिपि सिद्ध हो जाती है । भूतलिपि को सिद्ध कर लेने पर बनाये गये सारे यन्त्र अपना प्रभाव पूर्णरुप से दिखलाते हैं । इसलिये यन्त्र निर्माणकर्त्ता विद्वानोम को यन्त्र सिद्धि हेतु सर्वप्रथम भूतलिपि की उपासना करनी चाहिए । इसकी सिद्धि के बिना बनाये गये कोई भी यन्त्र अपना चमत्कार या प्रभाव का फल नहीं प्रगट करते ॥१५॥

(१) अब शीघ्र सिद्धिप्रद वशीकरण यन्त्र कहता हूँ -
राख आदि से शुद्ध किये गये कॉसे के पात्र में गोरोचन एवं कुंकुम से चमेली की लेखनी द्वारा अष्टदल लिखना चाहिए । उसकी कर्णिका में साध्य का नाम (जिसे वश में करना हो ) तथा आठों दलों में क्रमशः आठो वर्गाक्षरों को लिखना चाहिए ॥१६-१७॥

इस प्रकार लिखे गये अष्टदलों को क्रमशः षोडशदलों से परिवेष्टित करना चाहिए, और उस पर १६ स्वर वर्ण लिखना चाहिए । उसे भी ३ वृत्तों से वेष्टित करना चाहिए । इस प्रकार बने यन्त्र का मातृकामन्त्र से ७ पर्यन्त पूजना करना चाहिए ॥१८॥

इस प्रकार उक्त मोहन संज्ञक महायन्त्र पर पूजन करने से राजा आदि सभी पुरुष एवं स्त्रियाँ निश्चित रुप से वश मेम हो जाती है इसमें संशय नहीं है ॥१९॥

उक्त यन्त्र भोजपत्र आदि पर लिख कर त्रिलौह (सोने, चाँदी एवं ताँबे) के बने ताबीज में डालकर शिर पर धारण करने से राजा एवं दुष्टजनों को भी वश में कर देता है ॥२०॥

(२) अब बीज संपुट वशीकरण यन्त्र कहते हैं -
सर्वप्रथम मायाबीज से संपुटित साध्यनाम फिर उसके ऊपर और नीचे ४, ४ माया बीज लिखना चाहिए । फिर उसे दो रेखाओं वाले भूपुर से परिवेष्टित करना चाहिए । उक्त यन्त्र गोरोचन, चन्दन एवं केशर से भोजपत्र पर चमेली की कलम से लिखकर अनामिका के रक्त से मिश्रित कुंकुमादि द्वारा गौरेमन्त्र या उसके बीजाक्षरों से उसकी पूजा करनी चाहिए, तो वह वशीकरण हो जाता है ॥२१-२३॥

फिर कुमारी, ब्राह्मण एवं स्त्रियों को भोजन, कराकर वशीकरण की सिद्धि के लिए लाल पुष्प, अन्न तथा मांस की बलि देनी चाहिए ॥२३-२४॥

राजा द्वारा सर्वस्व अपहरण की स्थिति में, अथवा उसके कारागार में डाले जाने की स्थिति में इस यन्त्र को भुजा में धारण कर साधक यदि राजा के पास जावे तो अत्यन्त क्रुद्ध भी राजा शान्त हो कर उसका आदर करता है । मनीषियों ने इस यन्त्र को बीजसम्पुटयन्त्र कहा है ॥२४-२६॥

(३) अब स्वामी वशीकरण यन्त्र कहते हैं -
दक्षिणोत्तर क्रम से दो रेखाओम को लिखकर उसके बीच में तार (ॐ), पद्मालया (श्रीं) से संपुटित साध्य व्यक्ति का नाम लिखे । रेखाओं के अग्रभाग के मिलने से बने दो कोष्ठों में विसर्ग सहित अन्तिम वर्ण (क्षः) लिखना चाहिए । फिर दोनों रेखाओं के ऊपर तथा नीचे ३, ३ कोष्ठक बनाकर मध्य के कोष्ठ में विसर्ग सहित क्ष (क्षः) तथा उसके पार्श्ववर्ती दोनो कोष्ठकों में श्री बीज (श्रीं) लिखना चाहिए ॥२६-२८॥

इस यन्त्र को भोजपत्र पर गोरोचन से चमेली की कलम द्वारा लिख कर, दो सकोरें के मध्य स्थापित कर, अग्नि में जला देना चाहिए । इस प्रकार जलाये गये यन्त्र का भस्म दूध में मिलाकर पीने से स्वामी को निश्चित रुप से वह दूध साधक के वश में में कर देता है । इसके देवता श्री हैं ॥२९-३०॥

(४) अब दिव्यस्तम्भन यन्त्र कहते हैं - षट्‌कोण के मध्य में साध्य नाम और उसके चारों ओर ४ माया बीजों (ह्रीं) को लिखना चाहिए । फिर कोणों के ६ कोणों में तथा उसके बीज में ६, ६ माया बीजोम को लिखना चाहिए ॥३०-३१॥

यह यन्त्र मनोहर भोजपत्र पर, गोरोचन एवं कुंकुम से चमेली की कलम द्वारा लिख कर, उसे सकोरे में स्थापित कर, उसका विधिवत् पूजन करना चाहिए । फिर उसके आगे बैठकर, माया बीज (ह्रीं) का जप करना चाहिए । फिर सकोरे से उसे निकालकर साधक अपने सिर में बाँधे तो वह अग्नि, जल आदि में न जल सकता है और न डूबे सकता है, उस रात में वह उस दिव्य यन्त्र के प्रभाव से चाहे पापी भी क्यों न हो सर्वत्र विजय प्राप्त करता है । यह दिव्य स्तम्भन यन्त्र कहा गया है । (इसके गौरी देवता हैं ) ॥३१-३४॥

(५) अब राजमोहन यन्त्र कहते हैं - अष्टदल के मध्य में मायाबीज (ह्रीं) तथा विसर्ग सहित स अर्थात् (सः) इन दो बीजाक्षरों से पुटित साध्य नाम लिखकर आठों दलों में माया से पुटित विसर्ग सहित दो स अर्थात्‍ (ह्रीं सः सः ह्रीं) लिखना चाहिए । फिर भूपुर से इसे वेष्टित कर देना चाहिए ॥३४-३५॥

भोजपत्र पर गोरोचन एवं कुंकुम से उक्त यन्त्र लिखकर, दो सकोरों में रखकर, सात रात तक मायाबीज (ह्रीं) का जप करते हुये उसका पूजन करते रहना चाहिए ॥३५-३६॥

राजमोहन नामक यह यन्त्र धारण करने से राजा या मनुष्य की कठोरता को दूरकर उनको साधक के वश में कर देता है ॥(इसके गौरी देवता हैं) ॥३७॥

(६) अब क्रुद्ध एवं हत्यारे राजा से आत्मरक्षार्थ मृत्युञ्जय यन्त्र कहता हूँ - सर्वप्रथम द्वादशदल युक्त कमल का निर्माण करे । उसके भीतर सात चतुर्भुज रेखाओम से आहत चतुष्कोण में क्रिया सहित साध्य नाम अर्थात् उसके आगे ‘मृत्युं वंशय’ यह लिखना चाहिए । फिर उससे ऊपर द्वादश दल में ईशान कोण से लेकर (ऋ ऋ लृ लृ) इत्यादि क्लीव स्वरों को छोडकर अन्य स्वरों के साथ कर्ण (लकार अर्थात ल ला लि ली इत्यादि बारह स्वर) लिख कर उस दल को भी चतुस्त्र से वेष्टित कर देना चाहिए तथा उस चतुरस्त्र के कोणों पर भी त्रिशूल निर्माण करना चाहिए ॥३७-४०॥

इस यन्त्र को दो भोजपत्रों पर पृथक् पृथक् चमेली की कलम से अष्टगन्ध द्वारा लिखकर, पुनः उन्हे आमने सामने से मिला कर उत्तराभिमुख हो पृथ्वी में गाड देना चाहिए ॥४१॥

उसके ऊपर शिला रख कर उस पर बैठ कर मातृका मन्त्र का जप करना चाहिए (इस यन्त्र की मातृका देवता हैं) ॥४२॥

ऐसा करने से साधक मृत्यु के भय से तथा सभी प्रकार के रोगों के भय से भी मुक्त हो जाता है, फिर राजा के भय की बात तो दूर रही ॥४२-४३॥

(७) अब विवाद में विजयप्रद यन्त्र कहते हैं -
भोजपत्र पर गोरोचन एवं कुंकुम द्वारा चार दल वाला पद्म लिख कर उसकी कर्णिका में साध्य व्यक्ति का नाम (जिससे विवाद हो ) लिखना चाहिए । पद्म के चारों दलों पर मायाबीज (ह्रीं) लिखकर निष्पन्न उस यन्त्र को दूध में डालकर मुकदमें में वादी के साथ विवाद करना चाहिए ॥४३-४४॥

इस यन्त्र के प्रभाव से साधक विवाद में वादी पर विजय प्राप्त कर लेता है । इसे विवाद-विजयप्रद यन्त्र कहते हैं । (इसके भी गौरी देवता हैं) ॥४५॥

(८) अब धनिकवशीकरण यन्त्र
कहते हैं - जो प्रथम ऋण लेकर अधमर्ण हो चुका है, ऐसे उपकृत धनी से माँगने पर धन न देने पर उसे वश में करने के लिये वक्ष्यमाण यन्त्र भोजपत्र पर लिखना चाहिए ॥४५-४६॥

गोरोचन एवं कुंकुम से भोजपत्र पर चमेली की कलम से षट्‍कोण लिखकर उसकी कर्णिका में साध्य व्यक्ति का नाम लिखना चाहिए । फिर षट्‌कोणों में तथा कोणोम के मध्य में एक एक के क्रम से १२ कामबीजों (क्लीं) को लिखना चाहिए । तदनन्तर उसे वृत्त से वेष्टित कर उस वृत्त को भी माया बीज (ह्री) से वेष्टित कर देना चाहिए ॥४६-४७॥

फिर उन माया बीजों को भी वृत्त से वेष्टित कर ७ दिन तक उसका पूजन करते रहना चाहिए । प्रतिदिन सप्तशती का पाठ भी करते रहना चाहिए । अन्तिम दिन नवार्ण मन्त्र से १०८ आहुतियाँ देकर कन्याओं को भोजन कराना चाहिए ॥४८-४९॥

इस प्रकार बने यन्त्र को अपने गले में धारण करने से धनिक साधक के वशीभूत होकर बिना माँगे ही धन देता है और उसके वश में हो जाता है । (इसके भी गौरी देवता हैं) ॥४९॥

(९) अब दुष्ट मोहन यन्त्र कहते हैं -
राजा के समीप वाले दुष्ट कर्मचारी यदि पिशुनता (चुगुलखोरी) करें तो इस दुष्ट मोहन यन्त्र को बनाना चाहिए ॥५०॥

भोजपत्र पर गर्दभ के खून से चमेली के कलम द्वारा अष्टदल कमल बनाकर उसकी कर्णिका में साध्य का नाम, फिर पूर्वादि चारों दिशाओं के दलों में मायाबीज (ह्रीं) तथा कोणोम के चारों दलों में सर्गान्तभृगु (सः) लिख कर उसे दो वृत्तों से वेष्टित कर देना चाहिए । फिर इस यन्त्र में प्राण प्रतिष्ठा कर विधिवत् (त्रैलोक्य मोहन गौरी मन्त्र) से पूजन कर उसे (काले पात्र में स्थित) दूध में छोड देना चाहिए । ऐसा करते रहने से २१ दिन के भीतर पिशुनकारी दुष्ट वश में हो जाता है ॥५१-५३॥

(१०) अब विजयप्रद यन्त्र का विधान करते हैं - गोरोचन से भोजप्त्रे पर चतुर्भुज के मध्य में विष (म) अनन्त (अ) सहित भृगु स् अर्थात् (स्मः) इसे माया से संपुटित कर (ह्रीं स्मः ह्रीं) लिखे, फिर चारों कोणों में ‘ह्रीं सः ह्रीं’ लिखकर उसके ऊपर अष्टदल बनाना चाहिए । उसके दिशाओं के दलोम में क्रमशः रोहः, स्तम्भः एवं क्षोभः लिखना चाहिए । फिर कोणों के दलों में सर्गी विसर्ग सहित चरम (क्ष) अर्थात् ‘क्षः’ लिखकर उसी भोजपत्र पर गोरोचन से चतुर्भुज मध्य में साध्य नाम लिखे । इसे दो सकोरोम के मध्य में स्थापित कर गन्ध पुष्पादि उपचारों से पूजन करे । फिर दिक्पालों को (उनके मन्त्रों से ) बलि देवे ॥५३-५६॥

यह विजयप्रद यन्त्र व्यवहार एवं विवाद में विजय देता है और राजद्वार पर मान-समान बढाता है ॥५७॥

विमर्श - विजयप्रद यन्त्र को भोजपत्र पर अनार की कलम से लिखना चाहिए । त्रैलोक्यमोहन गौरी मन्त्र से इसके पूजन का विधान कहा गया है ॥५३-५७॥

(११) अब गणेश यन्त्र कहते हैं, जो जीवन भर मनुष्य को वश में करने वाला है -
भोजपत्र पर अनामिका का खून, गजमद, गोरोचन एवं आलता से, चमेली क्रीं कलम से चतुर्भुज बनाकर मध्य में प्रथम पंक्ति में सात माया बीज (ह्रीं) तथा द्वितीय पंक्ति में क्रमशः सृणि (क्रों), माया (ह्रीं), काम (क्लीं), एवं गं से संपुटित साध्य नाम लिखना चाहिए । फिर तृतीय पंक्ति में क्रो से संपुटित मायाबीज तथा माया बीज (ह्रीं) से संपुटित काम (क्लीं) लिख कर चतुर्थ पंक्ति में ४ माया बीज (ह्रीं) लिखना चाहिए । फिर चतुरस्त्र के बाहर दक्षिण दिशा में छोडकर अन्य दिशाओं में १०-१० की संख्या में गणेश बीज (गं) लिखकर उस पर पुनः भूपुर बनाना चाहिए ॥५७-६१॥

तदनन्तर किसी पवित्र स्थान ले लायी गई काली मिट्टी निर्मित गणेश प्रतिमा के पेट में इस यन्त्र को रखकर, पञ्चोपचार से श्रीगणेश की ‘गं गणपतये नमः’ इस मन्त्र से पूजन कर वक्ष्यमाण मन्त्र पढना चाहिए ॥६२॥

‘देवदेव गणाध्यक्ष सुरासुर नमस्कृत । देवदत्त मयायत्तं यावज्जीवं कुरु प्रभो" उक्त श्लोक में कहे गये देवदत्त के स्थान पर साध्य नाम उच्चारण करना चाहिए । फिर पृथ्वी में एक हाथ लम्बा चौडा गड्‌ढा खोदकर उसमें गणेश प्रतिमा स्थाओपित कर मिट्टी से उस गढ्‌ढे को भर देना चाहिए । ऐसा करने साध्य के वश में हो जात है ॥६३-६४॥

(१२) राजा को वश में करने का यन्त्र - चार दल वाले कमल को लिखकर कर्णिका में इ तथा साध्य नाम लिखना चाहिए । फिर चारों पद्मदलोम में पूर्व पश्चिम के दलों में ‘ॐ नमः’ लिखना चाहिए । शेष उत्तर और दक्षिण दलों में ‘ॐ नमः’ के बाद ‘अजिते’ इतना और अधिक लिखना चाहिए ॥६५-६६॥

भोजपत्र पर गोरोचन, कपूर, केशर एवं अगर से उक्त यन्त्र लिखकर ३ दिन पर्यन्त (अजिता मन्त्र से) विधिवत्‍ पूजन कर, चौथे दिन किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण को भोजन कराने के बाद, इस यन्त्र को सुवर्ण निर्मित ताबीज में भर कर, अपनी भुजा पर धारण करना चाहिए । इस यन्त्र का ऐसा प्रभाव है कि राजा भी उस व्यक्ति को देखते है वश में ही जाता है । (इसके अजिता देवता है) ॥६५-६८॥

(१३) अब सेवक को वश में करने का यन्त्र कहते हैं - चतुर्दल कमल के भीतर (कर्णिका), भृत्य नाम एवं क्रिया (वशय) लिखना चाहिए । तदनन्तर चारों दलों में माया बीज (ह्रीम) लिखना चाहिए । साधक गोरोचन से भोज पत्र पर लिखकर इस यन्त्र को दही में डाल देवे तो सेवक आज्ञाकारी हो जाता है । (इसके गौरी देवता है) ॥६८-६९॥

(१४) अब दुष्टों को वश में करने वाला यन्त्र कहते हैं - चतुरस्त्र के मध्य में माया बीज (ह्रीं) के भीतर (ह्र के बाद किन्तु ई के पहले ) साध्य का नाम लिखना चाहिए । दुष्ट राजा को वश में करने के लिये भोजपत्र पर गोरोचन से चमेली की कलम द्वारा इस यन्त्र को लिखना चाहिए । उस दुष्ट व्यक्ति के परि की धूलि में, राई का चूर्ण मिलाकर, उसकी प्रतिमा बनाकर, उस प्रतिमा के हृदय स्थान में उक्त मन्त्र को रखना चाहिए ॥७०-७१॥

फिर उस प्रतिमा का (त्रैलोक्य मोहन गौरी मन्त्र से) पूजन कर उसे चूल्हे के पाद गुड देना चाहिए । इसके बाद कृष्णपक्ष की चतुर्दक्षी तिथि को बकरी के खून से मिश्रित चरु से लाल पुष्प तथा घी से महाकाल एवं दिक्पालों को बलि देनी चाहिए । ऐसा करने से दुष्ट राजा सद्यः वशीभूत हो जाता है । (इसके गौरी देवता हैम) ॥७२-७३॥

(१५) दुर्भाग्यनाशक तथा पति को वश में करने वाला ललिता यन्त्र - अब दुर्भाग्यनाशक पति को वश में करने वाला, स्त्रिंयों को अभिमत फलदायक एवं सौभाग्यवर्धक यन्त्र कहता हूँ । चतुर्भुज कर्णिक सहित अष्टदल कमल को लिखकर चतुर्भुज के मध्य में ३ मायाबीज (ह्रीम) लिखकर अपने पति का नाम लिखें, फिर ३ मायाबीजोम को लिखे । दिशाओम के चारो दलोम पर तीन-तीन मायाबीज तथा कोणों के दलों पर १-१ माया बीज लिखें । यह यन्त्र शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि को भोजपत्र पर गोरोचन, कस्तूरी एवं कुंकुम से अनार की कलम द्वारा लिखना चाहिए ।

फिर रात्रि में ७ दिन पर्यन्त उत्तराभिमुख होकर ललिता मन्त्र से उसका पूजन करना चाहिए । इसके बाद लालिता की प्रसन्नाता हेतु एवं पुत्रवती सात स्त्रियों को भी भोजन कराला चाहिए । तदनन्तर उक्त यन्त्र को सोने, चाँदी या ताँबे की ताबीज में डाल कर कण्ठ या भुजा में धारण करना चाहिए । इस यन्त्र के धारण करने से स्त्रियों को रुप, सौभाग्य एवं संपत्ति प्राप्त होती है तथा पति वशवर्ती हो जाता है । इस प्रकार का ललिता यन्त्र स्त्रियों को अभिलषित फल देने वाला कहा गया है ॥७४-७९॥

(१६) पति को वश में करने वाला यन्त्र - गोरोचन एवं कुंकुम से भोजपत्र पर चमेली की कलम से अष्टदल लिखना चाहिए । फिर उसकी कर्णिका में ‘सा’ से संपुटित पति का नाम तथा दलों पर माया बीज लिखना चाहिए ॥८०॥

दो दिन तक निरन्तर रात्रि में माया बीज से इसका पूजनकर ३ स्त्रियों को भोजन करावे । इस प्रकार बने श्रेष्ठ यन्त्र को धारण करने से स्त्री का पति उसके वश में हो जाता है । (इसके गौरी देवता हैं) ॥८१॥

(१७) सौभाग्यप्रद एवं दुर्भाग्यनाशक बीजमन्त्र - भृगु (स्), आकाश (ह्), विधि (क), क्ष्मा (ल्) ख (ह्) वहिन (र्) इन वर्णो को शान्ति (ई) इन्दु अनुस्वार से युक्त करे इस प्रकार निष्पन्न कूट ‘सीं हीं कीं लीं हीं रीं’ इन ६ वर्णो को अष्टदल की कार्णिका में तथा उसके प्रत्येक दलों पर भी लिखना चाहिए ॥८२॥

भोजपत्र पर गोरोचन एवं चन्दन से चमेली की कलम द्वारा यह यन्त्र लिखना चाहिए । तदनन्तर (सुन्दरी मन्त्र से) इस यन्त्र की तीन दिन पर्यन्त विधिवत् पूजा करनी चाहिए । फिर सोने की ताबीज में इसे डालकर स्त्री अपने कण्ठ में तथा पुरुष अपनी भुजा में धारण करे तो यह बीज यन्त्र सौभाग्य देता है और दुर्भाग्य का नाश करता है ( इस यन्त्र के सुन्दरी देवता हैं) ॥८२-८४॥

(१८) अब आकर्षण के लिये यन्त्र कहता हूँ -
अपने रक्त से मिश्रित लाल चन्दन से भोजपत्र पर चतुर्दल कमल का निर्माण करे । उसकी कर्णिका में साध्य का नाम लिखे तथा चारों दलों में क्रोध बीज (हुँ) लिखे ॥८४-८५॥

फिर (दक्षाकर रुद्र मन्त्र से ) उसकी पूजा कर उसे घी में डाल देवे तो यह साध्य को अवश्य आकृष्ट करता है (इसके रुद्र देवता हैं) ॥८४-८५॥

(१९) अब आकर्षणकारक त्रिपुरा यन्त्र कहते है - षट्‌कोण के भीतर वाग् बीज (ऐं) एवं कामबीज (क्लीं) के बीच में साध्य का नाम तथा षट्‌कोणों में साध्य का नाम तथा षट्‌कोणों में औ एवं विसर्ग सहित भृगु (सौः) लिखना चाहिए ।
उक्त यन्त्र भोज पत्र पर गोरोचन से लिखक्र, त्रिपुरा बाला अथवा त्रिपुरा भैरवी मन्त्र (द्र० ८. २-३) से इसका पूजन करने के बाद इसे घी में डाल देना चाहिए । ऐसा करने एक सप्ताह के भीतर अभीष्ट व्यक्ति आकर्षित हो जाता है ॥८६-८७॥

(२०) अब मुखमुद्रण यन्त्र का विधान करते हैं -
शिला पर हल्दी से त्रिकोणगर्भित अष्टदल बनाना चाहिए । त्रिकोण के भीतर साध्य नाम तथा ओठो दलों में भूबीज (ग्लौं) लिखना चाहिए ॥८८॥

फिर भूबीज से उसका पूजन कर किसी दूसरी शिला से उसे ढँक कर भूमि में गाड देना चाहिए । ऐसा करने से वाद-विवाद में प्रतिवादि का मुख बन्द हो जाता है । (भूमि देवता हैं) ॥८९॥

(२१) अब अग्निभयहरण यन्त्र लिखने का विधान करते हैं -
वृत्त के भीतर नाम कर्म क्रिया (यथा देवदत्तस्य अग्निभयं हर) लिख कर वृत्त के बाहर चारों ओर चार ‘वकार’ लिखना चाहिए । फिर इस यन्त्र को चतुरस्त्र से वेष्टित कर देना चाहिए ॥९०-९१॥

भोजपत्र पर गोरोचनं एवं चन्दन से उक्त यन्त्र को लिख कर (मातृका मन्त्र से) पूजा कर त्रिलौह (सोने,चाँदी एवं ताँबे) से बने ताबीज में रखकर भुजा पर धारण करने से न केवल घर की प्रत्युत् अन्य स्थान में भी लगी अग्नि का भय दूर हो जाता है । (मातृका देवता हैं) ॥९१-९२॥

(२२) अब दो व्यक्तियों में परस्पर विद्वेषण के हेतु यन्त्र कहते हैं - भोजपत्र पर शत्रु के खून से, कौवे के पंख की लेखनी बनाकर चतुर्दल लिखे । फिर उसके भीतर तथा चतुर्दलों में मायाबीज से सम्पुटित अकार अर्थात (ह्रीं अं ह्रीं) लिखकर साध्य नाम तथा कर्म (अमुकौ विद्वेषय) लिखना चाहिए ।
फिर रात्रि में (मायाबीज) से इसका विधिवत् पूजन कर, बकरी के खून से मिश्रित भात का भोग लगाकर, एक स्त्री को भोजन कराना चाहिए । फिर श्मशान, निर्जन स्थान अथवा शिवालय में इसे गाड देवे तो निःसन्देह उन दोनो मित्र व्यक्तियों में शीघ्र ही परस्पर विद्वेष हो जाता है ॥९३-९६॥


(२३) यहाँ तक विद्वेषण की विधि कही गई । अब मारण (और उच्चाटन) यन्त्र कहता हूँ -
अष्टदल के भीतर वर्म और अस्त्र अर्थात् (हुं फट) से संपुटित साध्य नाम लिखना चाहिए । फिर चारों दिशाओं के चारोम दलों में वर्म (हुं) तथा कोणोम के चारों दलों मे अस्त्र (फट्) लिखना चाहिए । फिर अष्टदल को वृत्त से वेष्टित कर उसे वर्म (हुं) लिख कर वेष्टित कर देना चाहिए ॥९६-९८॥

यह यन्त्र कौवे के पंख की लेखनी से तथा चिअता के अङ्गार भेंड के खून एवं विष मिश्रित स्याही से नर-कपाल पर लिखना चाहिए । फिर अस्त्र बीज (हुं) से इसका पूजन कर कपाल को भस्म में रखकर उसके ऊपर अग्नि प्रज्वलित कर देनी चाहिए । इस प्रकार २० दिन तक थोडे-थोडे इन्धन से उसे थोडा-थोडा जलाते रहना चाहिए । २० वें दिन उसे संपूर्ण जला देना चाहिए । ऐसा करने से शत्रु भी बीज दिन के भीतर मर जाता है ॥९८-१००॥

(२४) अब उच्चाटन यन्त्र का प्रकार कहते हैं -
कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के दिन रात्रि में, साधक लाल वस्त्र पहन कर, मस्तक में लाल चन्दन लगाकर तथा गले में लाल पुप्पों की माला धारण कर, भोजपत्र पर उल्लू और कौवे के पंख के खून से चतुर्दल पद्म के भीतर साध्य नाम तथा चारों दलों में विसर्ग सहित मारुत (यः) लिखे ॥१०१-१०२॥

इस यन्त्र को बना कर लाल चन्दन और लाल फूलों से (वायुबीज यं से) प्रतिदिन उसका पूजन करे और प्रतिदिन एक-एक कुमारी को भोजन करा कर उसे दक्षिणा भी देता रहे । इस प्रकार निरन्तर २० दिन पर्यन्त पूजन तथा कुमारी को भोजन करा कर, अन्तिम दिन उस यन्त्र के टुकडे-टुकडे कर, जूठे भात में मिलाकर कौओं को खिला दे तो शत्रु का उच्चाटन हो जाता है ॥१०२-१०४॥

(२५) अब शान्तिकारक यन्त्र कहते हैं -
किसी शुभ मुहूर्त में गोरोचन, कस्तूरी, कपूर और कुंकुम से चमेली की कलम से भोजपत्र पर यह यन्त्र इस प्रकार लिखे - पूर्व से पश्चिम तथा दक्षिण से उत्तर ८, ८ रेखाएं बनानी चाहिए । ऐसा करने से ४९ कोष्ठक बनते हैं । फिर ईशान कोण से आरम्भ कर पुनः ईशान पर्यन्त कोष्ठकों में अकार से ले कर जकार पर्यन्त सानुस्वार चौबीस वर्णों को लिखना चाहिए ॥१०५-१०७॥

फिर उसके नीचे वाली पंक्तियों के कोष्ठकों में अनुस्वार सहित झकार से भकार पर्यन्त १६ वर्णों को लिखे तथा उससे नीचे की पंक्तियो के कोष्ठकों  में अनुस्वार सहित मकार से सकार पर्यन्त ८ वर्णों को लिखना चाहिए । तदनन्तर शेष मध्य कोष्टक में सानुस्वार हकार वर्ण लिखना चाहिए । पुनः रेखाओं के अग्रभाग में ३२ त्रिशूल बनाने चाहिए । फिर पूर्व और पश्चिम दिशा के त्रिशूलों में सात-सात मायाबीज (ह्रीं) लिखना चाहिए ॥१०८-१०९॥

इस प्रकार यन्त्र का निर्माण कर साधक तीन दिन पर्यन्त चण्डीपाठ और ब्राह्मण भोजन कराते हुये पर शयन करे तथा प्रतिदिन उक्त मन्त्र का पूजन करता रहे । फिर लौहत्रये (सोना, चाँदी या ताँबे) से बने ताबीज में इस यन्त्र को रखकर भुजा या गले में धारण करे तो सभी कार के उपद्र्व, क्लेश एवं परकृत अभिचार, कृत्या आदि शान्त हो जाते हैं । (इसके मातृका देवता हैं) ॥१०५-१११॥

(२६) अब शाकिनीनिवर्तक यन्त्र के निर्माण का प्रकार कहते हैं -
अष्टदल पद्म के भीतर साध्य नाम जिस पर शाकिनी का उपद्रव हो तथा दलों पर विसर्ग युक्त सकार (सः) पूर्वोक्त विधि से भोजपत्र पर गोरोचन, कस्तूरी, कपूर, केशर और चन्दन से चमेली की कलम द्वारा लिखना चाहिए ॥११२॥

फिर पूर्वोक्त विधि से चण्डीपाठ, ब्राह्मण भोजन तथा भूमि पर शयन करते हुये विधिवत् यन्त्र का पूजन करते रहना चाहिए । तीन दिन पर्यन्त लिस विधि का संपादन करे । फिर शिशु के गले में अथवा उसकी भुजा में उक्त यन्त्र को बाँधना चाहिए । इस यन्त्र के प्रभाव से शाकिनी, भूत, वेताल और बालग्रहादि सारी बाधायें दूर हो जाती हैं ॥११३॥

(२७) अब ज्वरनिवर्गक यन्त्र कहते हैं -
कृष्णपक्ष की अष्टमी वा चतुर्दशी तिथि में श्मशान के वस्त्र पर धतूरे के रस से परस्पर विरुद्ध दिशा में दो चतुर्भुज लिख कर उनके आठ कोणों में तथा चारों दिशा के कोणों एवं उसके दोनो ओर कुल सोलह ‘रं’ लिख कर, मध्य में रं वेष्टित साध्य नाम लिखे । तदनन्तर (अग्नि बीज से) उसका पूजन कर श्मशान में उसे गाड देवे तो ज्वर शान्त हो जाता है । (इसके अग्नि देवता हैं) ॥११४-११५॥

(२८) अब सर्पभयनाशक यन्त्र का विधान करते हैं -
भोजपत्र पर गोरोचन आदि सुगन्धित अष्टगन्ध से अष्टदल लिखना चाहिए । उसके मध्य में साध्य नाम तथा दलों पर अजपा मन्त्र (हंसः) लिखना चाहिए ॥११६-११७॥

फिर (अजपा मन्त्र से ) इसका विधिवत् पूजन कर भुजा पर धारण करे तों यह यन्त्र सर्प से होने वाली बाधा को दूर कर देता है । (इसके हंस देवता हैं) ॥११६-११७॥

(२९) अब बन्दीमोचन यन्त्र कहते हैं -
गोरोचन, चन्दन , कपूर एवं केशर से षोडशदल कमल लिखकर दलों में सोलह स्वरों को तथा कर्णिका में मायबीज (ह्रीं) लिखे । फिर उसके ऊपर बत्तिस दलों का पद्म बनाकर ककार से सकार पर्यन्त ३२ व्यञ्जन वर्णों को लिखना चाहिए । फिर इस पद्म के चारों ओर बने भूपुर के भीतर चारों दिशाओं में क्रमशः ह और चारों कोणों में क्ष लिखना चाहिए ।
इस यन्त्र को काँसे की थाली पर लिखना चाहिए तथा (मातृका मन्त्र) से ७ दिन पर्यन्त पूजन करे अथवा भोजपत्र पर लिखकर भुजा पर धारन करे तो बन्दी कारागार आदि बन्धन से शीघ्र मुक्त हो जाता है ॥११८-१२०॥

अब यन्त्रसिद्धि की उपासना विधि कहते हैं -
पूर्वोक्त समस्त यन्त्रों की सिद्धि चाहने वाले साधकों को मातृको देवी या भूत लिपि की उपासना करनी चाहिए (द्र० २०. १५) अथवा यन्त्र लिखते समय स्वर्णाकर्षण भैरव की उपासना करनी चाहिए ॥१२१-१२२॥

अब प्रकरण प्राप्त स्वर्णाकर्षण भैरव मन्त्र का उद्धार कहते हैं -
प्रणव (ॐ), वाग्भव (ऐ), फिर दीर्घत्रय सहित कामबीज (क्लां क्लीं क्लूं), तथा दीर्घत्रय सहित शक्तिबीज (ह्रां ह्रीं ह्रँ), फिर सर्गी विसर्ग सहित भृगु (सः), इन्दु सहित भया (वं), फिर ‘आपदुद्धारणाय’, ‘अजामल’, ‘ब्द्धाय’, फिर चतुर्थ्यन्त लोकेश्वर (लोकेश्वराय), ‘स्वर्णाकर्णणभैर’, फिर दीर्घबाल (वा), फिर प्रभञ्जन (य), फिर ‘मम दारिद्रय विद्वेषणाय’ के बाद प्रणव (ॐ), रमा (श्रीं), फिर चतुर्थ्यन्त महाभैरव (महाभैरवाय) और अन्त में हृदय (नमः) जोडने से ५८ अक्षरों का स्वर्णाकर्षण भैरव निष्पन्न होता है ॥१२२-१२५॥

विमर्श - मन्त्र का स्वरुप - ॐ ऐं क्लां क्लीं क्लूं ह्रां ह्रीं ह्रूम सः वं आपदुद्धारणाय अजामलबधाय लोकेश्वराय स्वर्णाकर्षणभैरवाय मम दारिद्रयविद्वेषणाय ॐ श्रीं महाभैरवाय नमः (५८) ॥१२२-१२५॥

विनियोग एवं न्यास - इस मन्त्र के ब्रह्मा ऋषि हैं, पंक्ति छन्द है तथा स्वर्णकर्षण भैरव देवता हैं  । मन्त्र के क्रमशः ९, ८, १२, ९, १०, ॐ १० वर्णों से षडङ्गन्यास कहा गया है अथवा षड्‌दीर्घ सहित कामबीज (क्लीं) और शक्ति बीज (ह्रीं) से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥१२५-१२७॥

विनियोग - अस्य श्रीस्वर्णकर्षभैरवमन्त्रस्य ब्रह्माऋषिः पंक्तिच्छन्दः स्वर्णाकर्षणभैरवो देवताऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।

षडङ्गन्यास - ॐ ऐं क्लां क्लूं ह्रां ह्रीं ह्रूम सः हृदयाय नमः,
वं आपदुद्धारणाय शिरसे स्वाहा,        अजामलवद्धाय लोकेश्वराय शिखायै वषट्,
स्वर्णाकर्षण भैरवाय कवचाय हुम्,        मम दारिद्रयविद्वेषणाय नेत्रत्रयाय वौषट्,
ॐ श्रीं महाभैरवाय नमः अस्त्राय फट्,

षड्ङ्गन्यास की दूसरी विधि -     क्लां ह्रां हृदयाय नमः,
क्लीं ह्रीं शिरसे स्वाहा,            क्लूं ह्रूं शिखायै वषट्,
क्लैं ह्रें कवचाय हुम्            क्लौं ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्,
क्लाः ह्रः अस्त्राय फट्-१२७॥

अब स्वर्गीकर्षण भैरव का ध्यान कहते हैं -
पारिजात वृक्षों के वन में स्थित माणिक्य निर्मित मण्डप में रत्न सिंहासन पर विराजमान स्वर्ण प्रदान करने वाले स्वर्ण भैरव का ध्यान करना चाहिए ॥१२७॥

अपने चारों हाथों में क्रमशः गाङ्गेय पात्र (स्वर्णपात्र) डमरु, त्रिशूल और वर धारण किये हुये, त्रिनेत्र, तत्पसुवर्ण जैसी आभा वाले, अपनी देवी के साथ  विराजमान स्वर्नाकर्षण भैरव का मैम आश्रय लेता हूँ ॥१२८॥

पुरश्चरण - विद्वान् साधक उक्त स्वर्णाकर्षण मन्त्र का एक लाख जप करे । फिर खीर से दशांश होम करे । शैव पीठ पर अङ्ग पूजा, दिक्पालों और उनके आयुधों के साथ आवरण पूजा करे ॥१२९॥

विमर्श - यन्त्र निर्माण विधि - स्वर्णाकर्षण भैरव के पूजन के लिये षट्‌कोण कर्णिका तथा भूपुर सहित यन्त्र का निर्माण करना चाहिए ।

पीठ-पूजाविधि - सर्वप्रथम २०. १२७-१२८ में वर्णित स्वर्णाकर्षण भैरव का ध्यान कर मानसोपचार से पूजन कर विधिवत् अर्घ्यस्थापन कर ‘ॐ आधारशक्तये नमः’ से ‘ह्रीं ज्ञानात्मने नमः’ से ‘ह्रीं ज्ञानात्मने नमः’ पर्यन्त सामान्य विधि से पीठ देवताओम का पूजन कर ‘वामा’ आदि पीठ शक्तियों का पूजन करना चाहिए । (द्र० १६. २२-२६) इसके बाद ‘ॐ नमो भगवते सकलगुणात्मकशक्तियुक्तायानन्ताय योगपीठात्मने नमः’ इस पीठ मन्त्र से आसन देकर मूलमन्त्र से मूर्ति स्थापित कर ध्यान आवाहनादि उपचारों से पूजन कर पुष्पाञ्जलि समर्पण पर्यन्त सारी विधि संपादन करनी चाहिए ।

अब आवरण पूजा का विधान कहते हैं - सर्वप्रथम कर्णिका के आग्नेयादि कोणोम में मध्य में तथा चतुर्दिक्षु में षडङ्गपूजा करनी चाहिए । यथा -
क्लां ह्रां हृदयाय नमः        क्लीं ह्रीं शिरसे स्वाहा,
क्लूं ह्रू शिखायै वषट्        क्लैं ह्रैम कवचाय हुम्
क्लौं ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्,    क्लः ह्रः अस्त्राय फट्

पश्चात भूपुर के पूर्वादि दिशाओं में इन्द्रादि लोकपालों की निम्न रीति से पूजा करनी चाहिए । यथा -     ॐ लं इन्द्राय नमः पूर्वे
ॐ रं अग्नये नमः आग्नेये,        ॐ लं इन्द्राय नमः पूर्वे
ॐ क्षं निऋत्यये नमः नैऋत्ये,    ॐ मं यमाय नमः दक्षिणे,
ॐ यं वायवे नमः वायव्ये,        ॐ वं वरुणाय नमः पश्चिमे
ॐ  हं ईशानाय नमः ऐशान्ये,    ॐ सं सोमाय नमः उत्तरे
ॐ ह्रीं अनन्ताय नमः अधः ।

फिर भूपुर के बाहर पूर्वादि दिशाओं में दिक्पालोम के आयुधों की पूजा करनी चाहिए - यथा - ॐ वं वज्राय नमः,        ॐ शं शक्ततये नमः,
ॐ दं दण्डाय नमः,        ॐ खं खड्‌गाय नमः,        ॐ पां पाशाय नमः,
ॐ अं अंकुशाय नमः,        ॐ गं गदायै नमः,        ॐ शूं शूलाय नमः
ॐ चं चक्राय नमः        ॐ पं पद्माय नमः

इस प्रकार आवरन पूजा कर पुनः धूप, दीपादि उपचारों से स्वर्णाकर्षण भैरव की विधिवत् पूजा कर पुष्पाञ्जलि समर्पित करनी चाहिए ॥१२९॥

उक्त विधि से जो साधक ४९ दिन पर्यन्त ३०० की संख्या में जप करता है उसकी दरिद्रता दूर जो जाती है तथा वह कुबेर तुल्य वैभवशाली बन जाता है ॥१३०॥

जप आदि के द्वारा यन्त्रों के सिद्ध जो जाने पर यन्त्रों से भी सिद्ध प्राप्त हो जाती है । भैरवाकर्षण यन्त्र के जप के प्रभाव से घर में सुवर्ण की वृद्धि होती है तथा शत्रु से कभी पराभव नहीं प्राप्त होता ॥१३१॥

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Last Updated : May 07, 2012

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