मन्त्रमहोदधि - षष्ठ तरङ्ग

`मन्त्रमहोदधि' इस ग्रंथमें अनेक मंत्रोंका समावेश है, जो आद्य माना जाता है।


 अरित्र
 अब शीघ्र सिद्धि प्रदान वाले छिन्नमस्ता के मन्त्रों को मै कहता हूँ-
छिन्नमस्तामन्त्रोद्धार -  पद्‌मासना (श्रीं), शिवायुग्म (ह्रीं ह्रीं), शशिशेखर (सविन्दु), भौतिक (ऐं) फिर ‘वज्रवैरोचनी’ पद, तदनन्तर ‘पद्‍मनाभ’ युक्त सदागति (ये), फिर मायायुग्म (ह्री ह्रीं), फिर अस्त्र (फट्), उसके अन्त में दहनप्रिया (स्वाहा) तथा प्रारम्भं में प्रणव (ॐ) लगाने से १७ अक्षरों वाला छिनमस्ता मन्त्र निष्पन्न होता है ॥१-२॥

विमर्श - इस मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॐ श्रीं ह्रीं ह्रीं वज्रवैरोचनीये ह्रीं ह्रीं फट् स्वाहा’ ॥१-२॥
सप्तदशाक्षर वाले इस मन्त्र के भैरव ऋषि हैं, सम्राट् छन्द हैं, तथा छिन्नमस्ताभुवनेश्वरी देवता हैं ॥३॥

आदि में प्रणव (औ) तथा अन्त में दो माया बीज (ह्रींह्रीं), अस्त्रबीज, ‘आं खड्‌गाय’ से हृदय में, इसी प्रकार ‘ईं खड्‌गाय’ से शिर में, ‘ॐ वज्राय’ से शिखा में, ‘ऐं पाशाय’ से कवच में ‘ॐ अंकुशाय’ से नेत्र में, तथा ‘अः वसुरक्ष’ से अस्त्राय फट् करे । इस प्रकर से अङ्गन्यास करे तथा प्रत्येक अङ्ग में न्यास के समय ‘स्वाहा’ शब्द का उच्चारण करे । इस प्रकार अङ्गन्यास करके भगवती छिन्नमस्ता का ध्यान करना चाहिए ॥४-५॥

विमर्श - विनियोग - ॐ अस्य श्रीछिन्नमस्तामन्त्रस्य भैरवऋषिः सम्राट्‌छन्दः छिन्नमस्तादेवता हूं हूं बीजं स्वाहाशक्तिरात्मनोऽभीष्टसिद्ध्यर्थं जपे विनियोगः ।
ऋष्यादिन्यास -  ॐ भैरवाय ऋषये नमः, शिरसि,
ॐ सम्राट्‌छान्दसे नमः, मुखेछिन्नमस्तादेवतायै नमः, हृदि,
हूं हूं बीजाय नमः, गुह्ये,शक्तये नमः, पादयोः

अङ्गन्यास -
ॐ आं खड्‌गाय ह्रीं ह्रीं फट्‍ हृदयाय स्वाहा,
ॐ ईं सुखड्‌गाय ह्रीं ह्रीं फट्‌ शिरसे स्वाहा,
ॐ ऊं वज्राय ह्रीं ह्रीं फट्‌ शिखायै स्वाहा,
ॐ ऐं पाशाय ह्रीं ह्रीं फट्‌ कवचाय स्वाहा,
ॐ औं अंकुशाय ह्रीं ह्रीं फट्‍ नेत्रत्रयाय स्वाहा,
ॐ अः वसुरक्षाय ह्रीं ह्रीं फट्‌ अस्त्राय फट् स्वाहा,

इसी प्रकार कराङ्गन्यास भी करना चाहिए ॥४-५॥

अब छिन्नमस्ता देवी का ध्यान कहते हैं -
सूर्यमण्डल के मध्य में विराजमान, बायें हाथ में अपने कटे मस्तक को धारण करने वाली, बिखरे केशों वाली, अपने कण्ठ से निकलती हुई रक्त धारा का पान करने वाली, मैथुन में आसक्त, रति तथा काम के ऊपर निवास करने वाली, डाकिनी एवं वर्णिनी नामक अपनी दोनों सखियों को देखकर प्रसन्न रहने वाली छिन्नमस्ता देवी का मैं ध्यान करता हूँ ॥

इस प्रकार छिन्नमस्ता का ध्यान कर मूल मन्त्र का ४ लाख जप करना चाहिए और पलाश या बेल के पुष्पों एवं फलों से दशांश होम करना चाहिए ॥७॥

आधारशक्ति से लेकर परतत्त्वपर्यन्त पूजित पीठ पर ८ दिशाओं में पूर्वादिक्रम से १. जया, २. विजया, ३. अजिता, ४. अपराजिता, ५. नित्या, ६. विलासिनी, ७,. दोग्ध्री, ८. अधोरा का तथा मध्य में ९. मङ्ग्ला का, इस प्रकार पीठ की ९ शक्तियों का पूजन करना चाहिए (द्र० ३. ११-१२) ॥८-९॥

‘सर्वबुद्धिप्रदे वर्णनीये सर्व’ के बाद सदृक् भृगु (सि), फिर ‘द्धिप्रदे डाकिनीये’ फिर तार (औं), फिर ‘वज्र’ के बाद सदृक् (सि), फिर ‘द्धिप्रदे डाकिनीये’ फिर तार (ॐ), फिर ‘वज्र’ पद, फिर फिर सभौतिक ऐ से युक्त खड्‌गीश (व अर्थात्), फिर ‘रोचनीये’ पद, फिर भग ‘ए’ इसके बाद ‘ह्योहे’ तदनन्तर ‘नमः’ तथा मन्त्र के प्रारम्भ में प्रणव्म लगाने से चौंतिस अक्षरों का पीठ मन्त्र निष्पन्न होता है ॥१०-११॥

विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॐ सर्वबुद्धिप्रदे वर्णनीये सर्वसिद्धिप्रदे डाकिनीये ॐ वज्रवैरोचनीय एह्येहि नमः’ १०-११॥
इस मन्त्र से आसन समर्पित कर देवी की पूजा करनी चाहिए ॥१२॥

विमर्श - छिन्नमस्ता पूजाविधि - ६. ६ के अनुसार छिन्नमस्ता का ध्यान कर मानसोपचार से देवी का पूजन कर, तारा पद्धति के क्रम से अर्घ्यस्थापनादि क्रिया करे (द्र० ४. ६८-८२) । फिर पीठ निर्माण कर उसकी भी पूजा करे । यथा - ॐ आधारशक्तये नमःॐ प्रकृतये नमः,
ॐ कूर्माय नमः,ॐ अनन्ताय नमः,
ॐ पृथिव्यै नमः,ॐ क्षीरसमुद्राय नमः,
ॐ रत्नद्वीपाय नमः,ॐ कल्पवृक्षाय नमः,
ॐ स्वर्णसिंहासनाय नमः,ॐ आनन्दकन्दाय नमः,
ॐ संविन्नालाय नमः,ॐ सर्वतत्त्वात्मकपद्‌माय नमः,
ॐ सत्त्वाय नमः,ॐ रं रजसे नमः,
ॐ तमसे नमः,ॐ आं आत्मने नमः,
ॐ अं अन्तरात्मनेः,ॐ पं परमात्मने नमः,
ॐ ह्रीं ज्ञानात्मने नमः,ॐ रतिकामाभ्यां नमः ।
इन मन्त्रों से पीठ पूजा कर पूर्वादि ८ दिशाओं के क्रम से तदनन्तर मध्य में नवशक्तियों के नाममन्त्रों से इस प्रकार पूजा करनी चाहिए । यथा-
ॐ जयायै नमः, पूर्वे,ॐ विजयायै नमः, आग्नेये,
ॐ अजितायै नमः, दक्षिणे,ॐ अपराजितायै नमः नैऋत्ये,
ॐ नित्यायै नमः पश्चिमे,ॐ विलासिन्यै नमः वायव्ये,
ॐ दोग्ध्र्यै नमः उत्तरे,ॐ अघोरायै नमः ऐशान्ये ।
ॐ मङ्गलायै नमः, मध्ये,      इस प्रकार ८ शक्तियों का पूजन करना चाहिए ।
इसके बाद ‘सर्वबुद्धिप्रदे वर्णनीये सर्वसिद्धप्रदे डाकिनीये ॐ वज्रवैरोचनीये एह्येहि नमः’, इस पीठ मन्त्र से वर्णनी एव डाकिनी सहित छिन्नमस्ता देवे को आसन उनका पूजन चाहिए ॥१०-१२॥
त्रिकोण, षट्‌कोण, अष्टदल एवं भूपुर से युक्त यन्त्र पर प्रतिलोम क्रम से वाह्य आवरण से प्रारम्भ कर इनकी पूजा करनी चाहिए ॥१२-१३॥

आवरणपूजा विधि इस प्रकार है -
भूपुर बाह्यभाग में वज्रादि आयुधों का, उसके भीतर इन्द्रादि दश दिक्पालों का, फिर भूपुर के चारों पर १. कराल, २. विकराल, ३. अतिकाल्य एवं ४. महाकाल - इस प्रकार चार द्वारपालों का पूजन करना चाहिए ॥१३-१५॥

इसके बाद अष्टदल में १. एकलिङ्गा, २. योगिनी, ३. डाकिनी, ४. भैरवी, ५. महाभैरवी, ६. केन्द्राक्षी, ७. असिताङ्गी एवं ८. संहारिणी इन आठ शक्तियों का पूजन करना चाहिए । तदनन्तर षट्‌कोण में ६ खड्‌गादि अङ्गमूर्त्तियों की, (द्र० ६. ४-५) फिर त्रिकोण के मध्य में वाग्बीज के साथ छिन्नमस्ता की, तथा वाग्बीज (ऐं) के साथ तार से दोनों पार्श्वभाग में डाकिनी और वर्णिनी इन दो सखियों का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार पूजनादि द्वारा मन्त्र सिद्ध हो जाने पर साधक के समस्त मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं ॥१६-१८॥

विमर्श - इस प्रकार पूजादि कर्म से छिन्नमस्ता की पूजा के लिए त्रिकोण उसके बाद षट्‌कोण फिर अष्टदल फिर भूपुर युक्त यन्त्र बनाना चाहिए ।
पीठ पूजन एवं देवी पूजन करने के पश्चात देवी से ‘आज्ञ्पय आवरणं ते पूजयामि’ - कहकर आज्ञा माँगे फिर विलोम क्रम से बाह्य आवरण से पूजा प्रारम्भ करे ।

भूपुर के बाहर पूर्वादि आठ दिशाओं में -
ॐ वज्राय नमः, पूर्वे,ॐ शक्तये नमः, आग्नेये,
ॐ दण्डाय नमः, दक्षिणे,ॐ खड्‌गाय नमः, नैऋत्ये,
ॐ पाशाय नमः, पश्चिमेॐ अंकुशाय नमः, वायव्ये,
ॐ गदायै नमः, उत्तरे,ॐ शूलाय नमः, ऐशान्याम्,
ॐ पदा‌य नमः, ऊर्ध्वम,ॐ चक्राय नमः, अधः ।
इस प्रकार वज्रादि आयुधों के पूजन के पश्चात् भूपुर के भीतर पूर्वादि दिशाओं में इन्द्रादि दश दिक्पालों की पूजा करे । यथा -
ॐ इन्द्राय नमः, पूर्वे,ॐ अग्नये नमः, अग्नेये,ॐ यमाय नमः, दक्षिणे
ॐ निऋतये नमः, नैऋत्येॐ वरुणाय नमः, पश्चिमे,ॐ वायवेम नमः, वायव्ये,
ॐ सोमाय नमः, उतरे,ॐ ईशानाय नमः, ऐशान्ये,ॐ ब्रह्मणे नमः, ऊर्ध्वम्,
ॐ अनन्ताय नमः, अध,

दिक्पालों की पूजा के पश्चात् भूपुर के चारों द्वारों पर पूर्वादि क्रम से कराल आदि द्वारपालों की पूजा करनी चाहिए । यथा -
ॐ करालाय नमः, पूर्वे,ॐ विकरालाय नमः, दक्षिणे,
ॐ अलिकालाय नमः, पश्चिमे, ॐ महाकालाय नमः, उत्तरे ।
द्वारपालोम के पूजन के पश्चात्  अष्टदल कमल में एकलिङ्गा आदि आठ शक्तियों की पूजा करनी चाहिए । यथा -
ॐ एकलिङ्गायै नमः, पूर्वादिदलपत्रे,ॐ योगिन्यै नमः, आग्नेयकोणदलपत्रे
ॐ डाकिन्यै नमः, दक्षिणीग्दलपत्रे,ॐ भैरव्ये नमः, नैऋत्यकोणदलपत्रे,
ॐ महाभैरव्यै नमः, पश्चिमदिग्दलपत्रे, ॐ केन्द्राक्ष्यै नमः, वायव्यकोणदिग्दलपत्रे,
ॐ असितांग्यै नमः, उत्तर दिग्दलपत्रे,ॐ संहारिण्यै नमः ईशानकोणदिग्दलपत्रे,
तपश्चात् षट्‍कोण में षडङ्गों की पूजा करनी चाहिए । यथा -
ॐ आं खड्‍गाय ह्रीं ह्रीं हृदयाय स्वाहा,
ॐ ई सुखड्‌गाय ह्रीं ह्रीं फट् शिरसे स्वाहा,
ॐ ऊं वज्राय ह्रीं ह्रीं फट् शिखायै स्वाहा,
ॐ ऐं पाशाय ह्रीं ह्रीं फट् कवचाय स्वाहा,
ॐ औं अंकुशाय ह्रीं ह्रीं फट् नेत्रत्रयाय वौषट् स्वाहा,
ॐ अः वसुरक्ष ह्रीं ह्रीं फट् अस्त्राय फट् स्वाहा ।
तदनन्तर त्रिकोण में छिन्नमस्ता देवी का पूजन डाकिनी एवं वर्णिनी सहित करना चाहिए । यथा -
ॐ ऐं छिन्नमस्तायै नमः, ॐ ऐं डाकिन्यै नमः, ॐ ऐं वर्णिन्यै नमः
इन मन्त्रों से मध्य में छिन्नमस्ता का तथा दक्षिण पार्श्व के क्रम से उक्त दोनों सखियों का दोनों पार्श्व में पूजन करना चाहिये । पूजा समाप्त कर छ पुष्पाञ्जलियाँ भगवती छिन्नमस्ता को समर्पित करनी चाहिए ॥१६-१८॥

इस प्रकार पूजन पुरश्चरणादि के पश्चात्‍ मन्त्र सिद्ध हो जाने पर साधक शीघ्र ही उनकी प्रसन्नता से अपने दुर्लभ मनोरथों को प्राप्त करने में समर्थ हो जाता हैं । श्री पुष्पों के होम से लक्ष्मी तथा लक्ष्मी के प्राप्त होने से सारा मनोरथ पूर्ण करता है ॥१९॥

मालती पुष्पों के होम से वाक्सिद्धि, चम्पा पुष्पों के हवन से सुख मिलता है । इस प्रकार जो व्यक्ति १ मास पर्यन्त घी मिश्रित छाग मांस की १-- आहुतियाँ देता है सभी राजा उसके वश में ही जाते हैं ॥२०-२१॥

सफेद कनेर के पुष्पों से जो व्यक्ति १ लाख आहुतियाँ देता है वह रोग जाल से मुक्त होकर १०० वर्ष पर्यन्त जीवित रहता है ॥२१-२२॥

लाल वर्ण के कनेर के फूलों से एक लाख आहुति देने से साधक व्यक्ति राजाओं और उसके मन्त्रियों को वश में कर लेता है ॥२२॥

उदुम्बर एवं पलाश के फलों द्वारा होम करने वाला व्यक्ति लक्ष्मीवान् हो जाता है । गोमायु (सियार) के मांस से भी होम करने से लक्ष्मी प्राप्त हो जाती है । पायास एवं अन्न के होम से कवित्त्व शक्ति प्राप्त होती है ॥२३॥

बन्धूक पुष्पों के होम से भाग्याभ्युदय होता है । तिल एवं चावलों के होम से सभी लोग वश में हो जाते हैं । स्त्री के रज से होम करने पर आकर्षण, मृगमांस के होम से मोहन, महिष मांस के होम से स्तम्भन और इसी प्रकार घी मिश्रित कमल के हूम से भी स्तम्भन होता है ॥२४-२५॥

चिताग्नि में कोयल के पखों का होम करने से शत्रु की मृत्यु तथा धतूरे की लकडी से प्रज्वलित अग्नि में कौवों के पखों के होम से भी शत्रु मर जाता है ॥२६॥

जुआ, जंगल राजद्वार, संग्राम एवं शत्रुसंकट में छिन्नमस्ता देवी का ध्यान कर मन्त्र का जप करने से विजय प्राप्ति होती है ॥२७॥

भुक्ति एवं मुक्ति के लिए श्वेत वर्ण वाली देवी का, उच्चाटन के लिए नीलवर्ण वाली देवी का, वशीकरण के लिए रक्तवर्ण वाली देवी का, मारण के लिए धूम्रवर्ण वाली देवी का तथा स्तम्भन के लिए सुवर्णवर्णा देवी का ध्यान करना चाहिए ॥२८॥

अब सर्वसिद्धिदायक एवं अत्यन्त गोपनीय प्रयोग कहता हूँ-
कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को मध्यरात्रि में जब घनघोर अन्धकार हो उस समय स्नान कर लाल वस्त्र, लाल माला एवं लाल चन्दन लगाकर नवयुवती सुन्दरी, पञ्चपुरुषोपभुक्ता, स्मेरमुखी (हास्यवदना), और खुले केशों वाली किसी स्त्री को लाकर उसमें छिन्नमस्ता की भावनाकर आभूषणादि प्रदान कर प्रसन्न करें । तदनन्तर उसे नंगी कर उसका पूजन कर दक्ष हजार मन्त्रों का जप करे ॥२९-३२॥

फिर बलि देकर रात्रि बिताकर धन से उसे संतुष्ट कर उसे उसके घर भेज दे । फिर दूसरे दिन देवता की भावना से ब्राह्मणों को विविध प्रकार का भोजन करावें ॥२३॥

इस प्रकार का प्रयोग करने वाला व्यक्ति लक्ष्मी पुत्र, पौत्र, यश, सुख, स्त्री, दीर्घायु एवं धर्म से पूर्ण हो मनोभिलषित फल प्राप्त करता है ॥३४॥

विद्या की कामना वाले साधक को उस रात्रि में व्रत करना चाहिए तथा अन्य प्रकार के फल चाहने वाले मन्त्रवेता को मन्त्र का जप करते हुये उसके साथ संभोग करना चाहिए ॥३५॥

विमर्श - इन प्रयोगों को जनसाधारण को नहीं करना चाहिए । बिना गुरु के इन्हें करने से निश्चित नुकसान होता है ॥३५॥

विशेष क्या कहें, इस विद्या के ज्ञान मात्र से निश्चित रुप से शास्त्रों का ज्ञान तथा पापों का सर्वनाश होकर सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है ॥३६॥

उषः काल में उठकर शय्या पर बैठकर १०० बार प्रतिदिन इस मन्त्र का जप करने वाला व्यक्ति ६ महीने के भीतर अपनी कवित्व शक्ति से शुक्राचार्य को जीत लेता है ॥३७॥

अब मन्त्र के उत्कीलन का विधान करते हैं -
इस विद्या को भगवान् शिव ने कीलित कर दिया है । अतः अब उसका उत्कीलन कहता हूँ । मन्त्रवेत्ता मन्त्र जप के पहले तथा अन्त में इसका १०८ बार जप करे तो उत्कीलन हो जाता है और यह विद्या सिद्धिदायक हो जाती है ।
उत्कीलन का मन्त्र इस प्रकार है - प्रणव (ॐ), उससे संपुटित माया बीज (ॐ ह्रीं ॐ) । सिद्धि की कामना रखने वाले व्यक्ति को यह विधि निश्चित रुप से गुप्त रखनी चाहिए । इस प्रकार कलि में शीघ्र ही मनोऽभीष्टफल देने वाली छिन्नमस्ता विद्या के विषय्त में हमने कहा है ॥३८-४०॥

रेणुका शबरी विद्या भी छिन्नमस्ता के समान ही होती है । अब मै उस विद्या को कह रहा हूँ -
प्रणव (ॐ), कमला (श्रीं), माया (ह्रीं), सृणि (क्रों), एवं इन्दुयुत् अधर पंक्ति छन्द, एवं रेणुकाशबरी देवता हैं । इन्हीं पाँच बीजाक्षरों से तथा समस्त मन्त्र से इसका षडङ्गान्यास करन चाहिए ॥४०-४२॥

विमर्श - मन्त्र का स्वरुप - ॐ श्रीं ह्रीं क्रों ऐं ।
विनियोग - ॐ अस्य श्रीरेणुकाशबरीमन्त्रस्य भैरवऋषिः पंक्तिछन्दः

रेणुकाशबरीदेवता आत्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास - ॐ हृदयाय नमः,ॐ श्रीं शिरसे स्वाहा,
ॐ ह्रीं शिखायै वषट्,ॐ क्रों कवचाय हुम्,
ॐ ऐं नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ श्री ह्रीं क्रों ऐं अस्त्राय फट् ।
इसी प्रकार करन्यास भी करना चाहिए ॥४०-४२॥
अब रेणुकाशबरी का ध्यान कहते हैं -
मेरु शिखर पर अनेक वृक्षों से मण्डित उद्यान में रत्नमण्डप के मध्य स्थित वेदिका पर विराजमान देवी का ध्यान इस प्रकार करना चाहिए ॥४३॥

जो देवी गुञ्जाफलों से निर्मित हार धारण करने से मनोहर हैं, कानों में मोरपखं का कुण्डल धारण किये हुये हैं जिनके दोनों हाथों में धनुष और वाण है ऐसी शबरी देवी का मैं ध्यान करता हूँ ॥४४॥

इस प्रकार रेणुका शबरी देवी का ध्यान कर उक्त मन्त्र का ५ लाख जप करना चाहिए तथा विल्व वृक्ष की लकडी से प्रज्वलित अग्नि में बिल्वफलों से उसका दशांश होम करना चाहिए ॥४५॥

अब पीठपूजा और आवरणपूजा का विधान कहते हैं -
पूर्वोक्त पीठ पर की पूजा करनी चाहिए । प्रथमावरण में षडङ्गपूजा और द्वितीयावरण में शबरी की आठ शक्तियों की पूजा करनी चाहिए । १. हुंकरी, २. खेचरी, ३. चण्डास्या, ४. छेदिनी, ५. क्षेपणा, ६. अस्त्री. ७. हुंकारीं तथा ८ क्षेमकरी - ये शबरी की ८ महाशक्तियाँ कही गई हैं । तृतीयावरण में दश दिक्पालों की तथा चतुर्थावरण मे उनके वज्रादि आयुधों की पूजा करनी चाहिए । इस प्रकार मन्त्र सिद्ध हो जाने पर काम्य प्रयोग चाहिए ॥४६-४९॥

विमर्श - प्रयोग विधि -  षट्‌कोण, अष्टदल एवं भूपुर से युक्त यन्त्र पर देवी की पूजा करनी चाहिए । पुनः ६. ९-११ के विमर्श में कही गई रीति से ‘ॐ आधारशक्तये नमः’ से लेकर ‘ॐ रतिकाभ्यां नमः’ पर्यन्त मन्त्र से से पीठ पूजन कर उस पर जयादि नौ शक्तियों का पूजन करे । तदनन्तर उसी पीठ पर मूल मन्त्र से विधिवत् रेणुका शबरी का पूजन करे । ‘आज्ञापय आवरणं ते पूजयामि’ से इस मन्त्र से भगवती की आज्ञा ले आवरण पूजा प्रारम्भ करनी चाहिए ।
प्रथमावरण में षडङ्ग पूजन करे उसकी विधि इस प्रकार है -
ॐ हृदयाय नमः, श्रीं शिरसे स्वाहा, ह्रीं शिखायै वषट्‌, क्रों कवचाय हुम्, ऐं नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ श्रीं ह्रीं क्रों ऐं अस्त्राय फट् ।
द्वितीयावरण में अष्टदलों के पूर्वादि दिशाओं के क्रम से हुंकारी आदि शक्तियों का पूजन इस प्रकार करना चाहिए -
ॐ हुंकर्यै नमः, अष्टदल पूर्वदिक्पत्रे,ॐ खेचर्यै नमः आग्नेयकोणस्थपत्रे,
ॐ चण्डालास्यायै नमः, दक्षिणदिक्पत्रे, ॐ छेदिन्यै नमः नैऋत्यकोणस्थपत्रे,
ॐ क्षेपणायै नमः, पश्चिमदिक्पत्रे,ॐ अस्त्र्यै नमः, वायव्यकोणस्थपत्रे,
ॐ हुंकायै नमः, उत्तरथ दिक्पत्रे,ॐ क्षेमकर्यै नमः, ईशानकोणस्थत्रे ।
द्वितीयावरण की पूजा के पश्चात् भूपुरे के भीतर दशों दिशाओं में पूर्वादि क्रम से तृतीयावरण में इस प्रकार पूजा करे ।
ॐ इन्द्राय नमः, पूर्वे,ॐ अग्नये नमः, आग्नेयकोण,
ॐ यमाय नमः, दक्षिणे,ॐ निऋतयेः,नमः नैऋत्ये,
ॐ वरुणाय नमः, पश्चिमे ॐ वायवे नमः, वायव्ये,
ॐ सोमाय नमः, उत्तरे,ॐ ईशानाय नमः, ऐशान्ये,
ॐ ब्रह्मणे नमः, पूर्वेशानयोर्मध्ये,ॐ  अनन्तराय नमः, नैऋत्यपश्चिमयोर्मध्ये ।
इस प्रकार तृतीयावरण की पूजा समाप्त कर भूपुर के बाहर वज्रादि आयुधों की चतुर्थावरण पूजा करे, यथा -
ॐ वज्राय नमः, पूर्वे,ॐ शक्तये नमः, आग्नेये,
ॐ दण्डाय नमः, दक्षिणे ॐ पाशाय नमः, नैऋत्ये,
ॐ गदायै नमः, पश्चिमे,ॐ पद्माय नमः, वायव्ये,
ॐ खड्‌गाय नमः, उत्तरे,ॐ अङ्‌कुशाय नमः, ऐशान्ये
ॐ त्रिशूलाय नमः, पूर्वेशानयोर्मध्ये,ॐ चक्राय नम्ह, नैऋत्यपश्चिमयोर्मध्ये ।
इस प्रकार चतुर्थावरण की पूजा कर पुनः देवी का पूजन कर पुष्पाञ्जलियाँ समर्पित करे ॥४६-४८॥

अब काम्य प्रयोग  कहते हैं - मल्लिका पुष्पों द्वारा हवन करने से लोग वश में हो जाते हैं । ऊख के टुकडों के होम से धन लाभ होता है । पञ्चगव्य के होम से साधक के गोधन की वृद्धि होती है और अशोक के फूलों के हवन से पुत्र प्राप्ति होती है । कमल पुष्पों के होम से रानी वश में होती है । अन्न के होम से अन्न की प्राप्ति होती है । मधूक के होम से सभी मनोभलषित कार्य संपन्न होते हैं, कलियुग में सिद्धि देने वाली शबरी विद्या यहाँ तक कही गई ॥४९-५०॥

अब इसके बाद विवाह के लिए स्वयंवर कला विद्या का मन्त्र कहते हैं -
तार (ॐ), माया (ह्रीं), तदनन्तर दो बार ‘योगिनि’ पद (योगिनि योगिनि),उसके बाद २ बार ‘योगेश्वरी’ (योगेश्वरी योगेश्वरि), फिर योग तदनन्तर निद्रा (भ), फिर ‘यङ्करि सकलस्थावरजङ्गमस्य मुखं’ फिर ‘हृदय मम’, फिर ‘वशमाकर्षयाकर्ष’, फिर पवन (य), तदनन्तर वहिनसुन्दरी (स्वाहा) लगाने से ५० अक्षरों का स्वयंवर कला मन्त्र बनता है ॥५१-५३॥

विमर्श - इस मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॐ ह्रीं योगिनि योगिनि योगेश्वरि योगेश्वरि योगभयंकरि सकलस्थावरजङ्गमस्य मुखं हृदयं मम वशमाकर्षयाकर्षक स्वाहा’ ॥५१-५३॥

पचास अक्षरों वाली इस विद्या के पितामहं ब्रह्या ऋर्षि हैं, अतिजग्ती छन्द है तथा गिरिपुत्री स्वयंवरा इसकी देवता कही गयीं हैं ॥५४॥

अब मन्त्र का षडङ्गन्यास कहते हैं -
आदि में तार (ॐ), माया (ह्रीं) को प्रारम्भ में तथा अन्त में ‘वश्य मोहिन्यै’ पद लगाकर, मध्य में क्रमशः ‘जगत्त्रय’ से हृदय, ‘त्रैलोक्य’ से शिर, ‘उरग’ से शिखा, ‘सर्वराज’ से कवच, ‘सर्वस्त्रीपुरुष’ से अक्षि (नेत्र), तथा ‘सर्व’ से अस्त्रन्यास करना चाहिए । यहाँ तक तो षङङ्गन्यास कहा गया । इसके बाद मूल मन्त्र पढकर व्यापक न्यास करना चाहिए । फिर महादेव का वरण करने के लिए आयी हुई गिरिराजपुत्री गिरिजा का ध्यान करना चाहिए ॥५५-५७॥

विमर्श - विनियोग -  ‘ॐ अस्य श्रीस्वयंवरकलामन्त्रस्य ब्रह्माऋषिः अतिजगतीछन्दः देवीगिरिपुत्रीस्वयंवरादेवतात्मनोऽभीष्टसिद्धये मन्त्रजपे
विनियोगः ।
षडङ्गन्यास -ॐ ह्रीं जगत्त्रयवश्यमोहिन्यै हृदयाय नमः,
ॐ ह्रें त्रैलोक्यवश्यमोहिन्यै शिरसे स्वाहा,
ॐ ह्रीं सर्वराजवश्यमोहिन्यै कवचाय हुम्,
ॐ ह्रीं सर्वस्त्रीपुरुषवश्यमोहिन्यै नेत्रत्रयाय वौषट्,
ॐ ह्रीं सर्वश्यमोहिन्यै अस्त्राय फट् ।
ॐ ह्रीं योगिनि योगिनि योगेश्वरि योगेश्वरि योगभयङ्करि सकलस्थावरजङ्गमस्य मुखं हृदयं मम वशमाकर्षयाकर्षय स्वाहा इति सर्वाङ्गे ॥५५-५७॥

गिरिराजपुत्री का ध्यान-
भगवान सदाशिव के जगन्मोहन परिपूर्णरुप को देखकर संकोच से लजाती हुई मन्द मन्द मुस्कान् से युक्त, अपने सखियों के साथ वर वरणार्थ मधूक पुष्प की माला लिए हुये गिरिराजपुत्रीं का मैम ध्यान करता हूँ ॥५८॥

इस प्रकार ध्यान कर चार लाख उक्त मन्त्र का जप करना चाहिए, फिर उसका दशांश पायस से हवन करना चाहिए । तदनन्तर पूर्वोक्त पीठ पर देवी का पूजन करना चाहिए ॥५९॥

प्रथम त्रिकोण, उसके बाद चतुष्कोण, उसके बाद षट्‍कोण, तदनन्तर अष्टदल, फिर दशदल, पुनः दशदल, फिर षोडशदल, फिर बत्तीस दल, फिर चौंसठ दल, इसके बाद तीन वृत्त, उसके बाद चार द्वार वाला भूपुर - इस प्रकार का यन्त्र बनाकर उस पर देवी का पूजन करना चाहिए ॥६०-६१॥
(१) त्रिकोण में पार्वतो का पूजन कर चतुरस्र (२) में मेधा, विद्या, लक्ष्मी एवं महालक्ष्मी इन चारों का पूजन करना चाहिए ॥६२॥
षट्‌कोण (३) में षड्ङपूजा (द्र० ६. ५५-५७) तथा अष्टदलों (४) में २ के क्रम से १६ की, दोनों (५-६) दश दलों में क्रमशः इन्द्रादि दश दिक्पालों का तथा उनके वज्रदि आयुधों का पूजन करना चाहिए ॥६३॥

षोडशदलोम (७) में ‘श्रीरमायै नमः’ इस मन्त्र से रमा का, बत्तीस (८) दलों वाले कमल में ‘आं ह्रीं क्री शिवायै नमः’ मन्त्र से शिवा का पूजन करना चाहिए ॥६४॥
६४ दल वाले कमल में ‘श्री ह्रीं क्लीं त्रिपुरायै नमः’ से त्रिपुरा का, तदनन्तर तीनों वृतों में क्रमशः महालक्ष्मी,भवानी और कामेश्वरी का, तथा भूपुर मे पूर्वादि चारों द्वारों पर क्रमश गणेश, क्षेत्रपाल, भैरव एवं योगिनियों का पूजन कर ९ आवरणों की पूजा समाप्ति करनी चाहिए ॥६५-६६॥

इस रीति से जो व्यक्ति देवी की आराधना करता है उसके वश में सभी लोग हो जाते हैं । जो व्यक्ति त्रिमधु (घी, मधु, दुग्ध) मिश्रित लाजा के साथ इस मन्त्र से होम करता हैं, वह धन एवं मान सहित अभिलषित कन्या प्राप्त करता है । यहाँ तक स्वयंवरा विद्या कही गई अब आगे मधुमती विद्या कही जायेगी ॥६७-६८॥

विमर्श - प्रयोग विधि -  (६. ५८) के अनुसार देवी का ध्यान कर मानसोपचार से पूजा सम्पादन कर विधिवत अर्ध्य स्थापन पीठ पूजा करे (द्र० ६. ८) पीठ पर मूलमन्त्र (द्र ० ५१-५३) से देवी की पूजा कर ‘आज्ञापय आवरणं पूजयामि’ इस मन्त्र से देवी की आज्ञा ले आवरण पूजा प्रारम्भ करे ।

प्रथमावरण में ६. ६०-६१ के अनुसार बनाये गये यन्त्र पर भीतर त्रिकोण में ‘ह्रीं पार्वत्यै नमः’ इस मन्त्र से पार्वती का पूजन करे । फिर द्वितीयावरण में चतुरस्त्र पर -
ॐ मेधार्यै नमः,ॐ विद्यायै नमः,
ॐ लक्ष्म्यै नमः,ॐ महालक्ष्म्ये नमः,
आदि मन्त्रों से पूजा करे । फिर षट्‌कोण पर तृतीयावरण में क्रमशः
ॐ ह्रीं जगत्त्रयवश्यमोहिन्यै हृदयाय नमः,
ॐ ह्रीं त्रैलोक्यवश्यमोहिन्यै शिरसे स्वाहा,
ॐ ह्रीं उरगवश्यमोहिन्यै शिखायै वषट्,
ॐ ह्रीं सर्वराजवश्यमोहिन्यै कवचाय हुम्
ॐ ह्रीं सर्वस्त्रीपुरुषवश्यमोहिन्यै नेत्रत्रयाय वौषट्,
ॐ सर्ववश्यमोहिन्यै अस्त्राय फट्,
तथा मूलमन्त्र से यन्त्र के ऊपर पूजा करे । फिर चतुर्थावरण में अष्टदल कमलों का क्रमशः दो दो स्वरों के साथ ‘ॐ प्रं प्रां नमः’ ‘ॐ इ ईं नमः’ इत्यादि क्रम से चतुर्थावरण की पूजा करे ।
दश दल वाले कमल पर पञ्चावरण में इन्द्र आदि दश दिक्पालों की पूजा करनी चाहिए । यथा -
ॐ इन्द्राय नमः, पूर्वे,ॐ अग्नये नमः, आग्नेये,
ॐ यमाय नमः, दक्षिने,ॐ निऋतये नमः, नैऋत्ये,
ॐ वरुणाय नमः, पश्चिमेॐ वायवे नमः, वायव्ये,
ॐ सोमाय नमः, उत्तरे,ॐ ईशानाय नमः, ऐशान्ये,
ॐ ब्रह्मणे नमः, पूर्वेशानयोर्मध्ये, ॐ अनन्ताय नमः, निऋति पश्चिमयोर्मध्ये, फिर षष्ठावरण में दूसरे दश कमल पत्रों पर दश दिक्पालों के आयुधों की पूजा करे । यथा -
ॐ वज्राय नमः, पूर्वे,ॐ शक्तये नमः, आग्नेये,
ॐ दण्डाय नमः, दक्षिणे,ॐ पाशाय नमः, नैऋत्ये,
ॐ गदायै नमः, पश्चिमे,ॐ पद्माय नमः, वायव्ये,
ॐ खड्‌गाय नमः उत्तरेॐ अड्‌कुशाय नमः, ऐशान्ये
ॐ त्रिसूलाय नमः, पूर्वेशानयोर्मध्ये, ॐ चक्राय नमः, नैऋत्यपश्चिमयोर्मध्ये ।
सत्यमावरण में षोडशदलोम पर ‘ॐ श्री रमायै नमः’ से, तदनन्तर अष्टमावरण में बत्तीस दलों पर ‘ॐ आं ह्रीं क्रों शिवायै नमः’ मन्त्र से, फिर नवमावरण में ६४ दलों पर ‘ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं त्रिपुरायै नमः’ मन्त्र से त्रिपुरा का पूजन करे ।
इस प्रकार नवमावरणों की पूजा कर तीन वृत्तों में क्रमशः महालक्ष्मी, भवानी एवं कामेश्वरी का निम्नलिखित मन्त्रों से पूजन करना चाहिए-
ॐ श्री महालक्ष्म्यै नमः, ॐ ह्रीं भवान्यै नमः, ॐ क्लीं कामेश्वर्यै नमः,
अन्त में भूपुर में पूर्वादि चारोम दिशाओम में गणेश, क्षेत्रपाल, भैरव एवं योगिनियोम का पूजन करना चाहिए । यथा -
ॐ ह्रीं गं गणेशाय नमः, पूर्वद्वारे,
ॐ ह्रीं वं वटुकाय नमः, दक्षिणद्वारे,
ॐ ह्रीं क्षं क्षेत्रपालाय नमः, पश्चिमद्वारे,
ॐ ह्रीं यं योगिनीभ्यों नमः, उत्तरद्वारे ।
इस प्रकार आवरण पूजा कर देवी को ९ पुष्पाञ्जलि समर्पित कर, विधिवत् जप करना चाहिए ॥६२-६८॥
अब पूर्व प्रतिज्ञात (द्र ० ६. ६८) मधुमती मन्त्र का उद्धार कहते हैं-
बिन्दु सहित नारायण (आं) हृल्लेखा (ह्रीं), अंकुश (क्रों), मन्मथ (क्लीं) दीर्घवर्म (हूं), फिर ध्रुव (ॐ), तथा अन्त में वहिए प्रेयसी (स्वाहा) लगाने से ८ अक्षरों का मधुमती मन्त्र निष्पन्न होता है ॥६९॥

विमर्श - मन्त्र का स्वरुप  इस प्रकार है - ‘आं ह्रीं क्रों क्लीं हूं ॐ स्वाहा’ ॥६९॥
इस मन्त्र के मधु ऋषि हैं, त्रिष्टुप् छन्द है तथा मधुमती देवता हैं ॥ पाँच बीजों से पाँच अगों का तथा स्वहान्त प्रणव से अस्त्र न्यास कर विद्वान् साधक को देवी ध्यान करना चाहिए ॥७०-७१॥

विमर्श - विनियोग -  ॐ अस्य श्रीमधुमतीमन्त्रस्य मधुऋषिः त्रिष्टुप्‌छ्न्दः मधुमतीदेवता आत्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे मधुमतीमन्त्रजपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास - ॐ हृदयाय नमः,ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा,
ॐ क्रों शिखायै वषट्,ॐ क्लीं कवचाय हुं,
ॐ हुं नेत्रत्रयाय वौषट्,ॐ स्वाहा अस्त्राय फट् ॥७०-७१॥

अब मधुमती देवी का ध्यान कहते हैं -
अनेक वृक्ष एवं लताओं से घिरे कैलाश पर्वत के गहन वन में मणि जटित काञ्चन पीठ पर विराजमान, अपने दोनों हाथों में क्रमशः दाहिने हाथ में नागलता एवं बायें में नीलकमल धारण किये हुये देवाङ्गना एवं नागपत्नियों से सेवित सर्वार्थसिद्धिदायक मधुमती का ध्यान करता हूँ ॥७२॥
उक्त मन्त्र का आठ लाख जप करना चाहिए । जप पूर्ण होने पर विल्ब पत्रोम से उसका दशांश होम करना चाहिए और पीठ पर जयादि शक्तियों का पूजन करना चाहिए ॥७३॥
कर्णिका में षडङ्गन्यास, एवं अष्टदलों में शक्तियों का पूजन करना चाहिए ।
१. निद्रा, २. छाया, ३. क्षमा, ४. तृष्णा, ५. कान्ति, ६. आर्या, ७. श्रुति एवं ८. स्मृति ये आठ मधुमती की शक्तियाँ हैं । इसके बाद इन्द्रादि दश दिक्पालों का, तदनन्तर उनके वज्रादि आयुधों का सुख प्राप्ति के लिए पूजन करना चाहिए । जो इस प्रकार मधुमती देवी की उपासना करता है वह समृद्धि प्राप्त करता है ॥७४-७५॥

विमर्श - प्रयोग विधि -  वृत्ताकार कर्णिका के ऊपर क्रमशः अष्टदल एवं भूपुर बना कर उस यन्त्र में मधुमती का मूल मन्त्र से आवाहन कर पूजन करना चाहिए ।
फिर ‘आज्ञापय आवरणं ते पूजयामि’  इस मन्त्र से आज्ञा लेकर आवरन पूजा प्रारम्भ करना चाहिए ।
प्रथमावरण में वृत्ताकर कर्णिका में निम्न मन्त्रों षडङ्गपूजा करनी चाहिए -
ॐ आं हृदाय नमः,ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा,ॐ क्रों शिखायै वषट्
ॐ क्लीं कवचाय हुम्,ॐ हूं नेत्रत्रया वौषत्, ॐ स्वाहा अस्त्राय फट्,
इसके अनुसार अष्टदल कमल में पूर्वादि दिशाओम के क्रम से -
ॐ निद्रायै नमः,ॐ छायायै नमः,ॐ क्षमायै नमः,
ॐ तृष्णायै नमः,ॐ कान्त्यै नमः,ॐ आर्यायै नमः,
ॐ श्रुत्यै नमः,ॐ स्मृत्यै नमः,
पर्यन्त मन्त्रों से द्वितीयावरण की पूजा करनी चाहिए ।
इसके बाद भूपुर के द्शों दिशाओं में -
ॐ इन्द्राय नमः, पूर्वे,ॐ अग्नये नमः, आग्नेये,
ॐ यमाय नमः, दक्षिणे,ॐ निऋतये नमः, नैऋत्ये,
ॐ वरुणाय नमः, पश्चिमे,ॐ वायवे नमः, वायव्ये,
ॐ सोमाय नमः, उत्तरे, ॐ ईशानाय नमः, ऐशान्ये,
ॐ ब्रह्मणे नमः पूर्वेशानयोर्मध्ये,ॐ अनन्ताय नमः पश्चिमनैऋत्यमध्ये,
इस प्रकार तृतीयावरण की पूजा करनी चाहिए । तदनन्तर भूपुर के बाहर पूर्वादि क्रम से उनके वज्रादि आयुधों की पूजा करनी चाहिए यथा-
ॐ वज्राय नमः पूर्वे,ॐ शक्तये नमः,आग्नेये,ॐ दण्डाय नमः दक्षिणे,
ॐ खड्‌गाय नमः वायव्य,ॐ गदायै नमः, उत्तरे,ॐ पाशाय नमः पश्चिमे,
ॐ अड्‌कुशाय नमः वायव्ये,ॐ त्रिशूलाय नमः पश्चिमनैऋत्ययोर्मध्ये,
ॐ पद्‍माय नमः पूर्वशानयोर्मध्ये,ॐ चक्राय नमः पश्चिमनैऋत्ययोर्मध्ये,
इस प्रकार चतुर्थावरण की पूजाकर गन्धादि उपचारों से देवी का पूजन कर चार पुष्पाञ्जलियाँ समर्पित करना चाहिए । तदनन्तर विधिवत् जप कार्य करना चाहिए ॥७४-७५॥

अब काम्य प्रयोग कहते हैं - लाल कमलों के होम से साधक राजा एवं राजमन्त्री को अपने वश में कर लेता है । पायस के होम से अनेक भोगों की प्राप्ति होती है ताम्बूल के होम से स्त्रियाँ वश में हो जाती हैं ॥७६॥

अब मधुमती का अन्य मन्त्र कहते हैं - बिन्दु सहित दामोदर (ऐं) यह मधुमती का अन्य मन्त्र हैं । पूर्वोक्त रीति से इसका अनुष्ठान करन चाहिए । इस मन्त्र के अनुष्ठान में कुमारिका देवी का ध्यान तथा पूजन करना चाहिए । इस मन्त्र के अनुष्ठान में कुमारिका देवी का ध्यान तथा पूजन करना चाहिए । आधा करोड (अर्थात् ५० लाख) जप करने से साधक सभी विद्याओं में पारंगत हो जाता हैं । इस प्रकार नाना प्रकार के सुखों एवं भोगों को प्रदान करने वाला मधुमती के समान अन्य कोई मन्त्र नहीं है ॥७७-७८॥

विमर्श - इस मन्त्र का स्वरुप - (ऐं), एक अक्षर मात्र है ॥७७-७८॥
अब प्रमदा देवी का मन्त्र  कहते हैं - माया (ह्रीं), वहन्यासन शूर (प्र), फिर ‘मदे’ पद, तदनन्तर पावकसुन्दरी (स्वाहा), लगाने से ६ अक्षरों का प्रमदामन्त्र बनता हैं ॥७९॥

विमर्श - इस मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ह्रीं प्रमदे स्वाहा’ ॥७९॥
इस मन्त्र के शक्ति ऋषि हैं, गायत्री छन्द तथा प्रमदा देवता हैं । षड्‌दीर्घ सहित माया मन्त्र से इसका षडङ्गान्यास करना चाहिए ॥८०॥
षडङ्गन्यास - ॐ ह्रां हृदयाय नमः,ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा,
ॐ ह्रूं शिखायै नमः,ॐ ह्रैं कवचाय हुं,
ॐ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्,ॐ ह्रः अस्त्राय फट् ॥८०॥
अब प्रमदा देवी का ध्यान कहते हैं -
केयूर आदि समस्त प्रधान आभूषणों से अलंकृत, अपने दोनों हाथों में वर और अभय मुद्रा धारण करणे वाली, इन्द्रादि देवताओम से सेव्यमान पादों वाली,उत्तम सुवर्ण के समान देदीप्यमा कान्ति वाली प्रमदा देवे का मै ध्यान करता हूँ ॥८१॥

अब  अनुष्ठान का प्रकार कहते हैं -
उक्त मन्त्र का ६ लाख जप करे, उसका दशांश घी से होम करे, जप से पूर्व पूवोक्त पीठ पर देवी का पूजन करे तथा कर्णिका में षडङ्गपूजा, दिक्पालों की पूजा एवं आयुधोम की पूजा करे । किसी निर्जन वन में रात्रि के समय नियमपूर्वक दश हजार जप करना चाहिए तथा पायस से एक हजार आहुतियाँ देन के बाद शयन करना चाहिए । २१ दिनों तक लगातार रात्रि में ऐसा करने अप देवी साक्षात् दृष्टिगोचर होकर साधक की समस्त मनोकामनायें पूर्ण कर देती हैं ॥८२-८४॥

अब प्रमोदा का मन्त्र एवं प्रयोग कहते हैं -
माया (ह्रीं), फिर ‘प्रमोदे’ यह पद, इसके अन्त में ठद्वय (स्वाहा) लगाने से ६ अक्षरों का प्रमोदा का श्रेष्ठ मन्त्र निष्पन्न होता है । इस मन्त्र के ऋषि, छन्द, देवता तथा पूजा विधि प्रमदा के समान ही कहे गए हैम ॥८५॥
अनुष्ठान विधि -  नदी के निर्जन तट पर चन्दन से मण्डल निर्माण करे । पूर्वोक्त रीति से पूजा, जप और होम करने से साधक निश्चित रुप से प्रमोदा देवी का दर्शन पा जाता है ॥८६॥

विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ह्रीं प्रमोदे स्वाहा; ।
विनियोग एवं षडङ्गन्यास आदि के प्रयोग प्रमदा के मन्त्रों में देखिये । (द्र०
अब बन्दी मन्त्र का उद्धार करते हैं-
तार (ॐ), फिर हिलियुग्म (हिलि हिलि), फिर ‘बन्दी देवी’ पद का चतुर्थ्यन्त (बन्दी देव्यै), तदनन्तर नमः लगाने से ग्यारह अक्षरों का बन्दी मन्त्र बनता है ॥८७॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप - ‘ॐ हिलि हिलि बन्दीदेव्यै नमः’ ८७॥
इस मन्त्र के भैरव ऋषि हैं, त्रिष्टुप् छन्द है तथा बन्दी देवता हैं । मन्त्र के एक तदनन्तर २, २, २, २, २, अक्षरों से षडङ्गन्यास करना चाहिए । फिर रत्न सिंहासन पर विराजमान बन्दी देवी का ध्यान करना चाहिए ॥८७-८८॥

विनियोग - ॐ अस्य श्रीबन्दीमन्त्रस्य भैरवऋषिः त्रिष्टुपछन्दः बन्दीदेवता भवबन्धक्तये बन्दीमन्त्र जपे विनियोगः ।
षडङ्गान्यस - ॐ हृदया नमः,ॐ हिलि शिरसे स्वाहा,
ॐ हिलि शिखायि वषट्,ॐ बन्दी कवचाय हुम्
ॐ देव्यै नेत्रत्रयाय वौषट्,ॐ नमः अस्त्राय फट् ॥८७-८८॥
अब बन्दी देवी ध्यान कहते हैं -
जलधर मेघ के समान कान्ति वाली, हाथोम में कमल एवं मृत कलश लिए हुये एवं देवाङ्गनाओम से सेव्यमान चरणों वाली बन्दी देवी का मैम बन्धन से मुक्ति पाने हेतु ध्यान करता हूँ ॥८९॥
अब पुरश्चरण विधि कह्ते हैं -
उपर्युक्त बन्दी मन्त्र का दो लाख जप तथा तद्‌दशांश पायस से होम करना चाहिए । सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्ति पाने के लिए पूर्वोक्त पीठ पर देवी का पूजन करना चाहिए ॥९०॥

१. काली, २. तारा, ३. भगवती, ४. कुब्जा, ५. शीतला, ६. त्रिपुरा, ७. मातृका एवं ८. लक्ष्मी ये आठ बन्दी देवी की शक्तियाँ है । कमल के केशरों में अंगपूजा तथा कमलदलों के मध्य शक्तियों का पूजना करना चाहिए । आठ शक्तियों की पूजा के पश्चात् दिक्पालों एवं उनके आयुधों का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार की आराधना से प्रसन्न होकर बन्दी देवी मनुष्यों को अभीष्ट फल देती हैं ॥९०-९१॥

साधक को ब्रह्मचर्य वर्त का पालन करते हुये २१ दिन पर्यन्त गणेश पूजन पूर्वक प्रति दिन दश हजार मन्त्रों का जप करना चाहिए । ऐसा करने से कारागार में बन्दी व्यक्ति कारागार से मुक्त हो जाता है ॥९३-९४॥

विमर्श - प्रयोग विधि - (अनुष्ठान के लिए ६. १९-३७ श्लोक द्रष्टव्य है।) अनुष्ठान के प्रारम्भ में गणपति का सविधि पूजन करे । फिर ६. ८९ श्लोकानुसार देवी का ध्यान कर मानसोपचारों से उनकी पूजा करे । पुनः सुसम्पन्न मण्डल रचना कर अर्घ स्थापित करे । तीर्थाभिमिश्रित अर्ध्य के जल को प्रोक्षणी में डाल देवे । फिर उस जल से पूजन सामग्री का प्रोक्षण करे । तदनन्तर पीठ पूजा कर उस पर षट्‌कोण, अष्टदल एवं भूपुर युक्त यन्त्र का निर्माण कर, उसमें देवी का ध्यान कर, पुनः उनका पूजन करे । तदनन्तर षडङ्गपूजा सहित देवी के आवरणों की पूजा करे ।
प्रथमावरण में षट्‌कोण में -
ॐ हृदयाय नमः,        ॐ हिलि शिरसे स्वाहा,        ॐ हिलि शिखायै वषट्,
ॐ बन्दी कवचाय हुम्,    ॐ देव्यै नेत्रत्रयाय वौषट्,        ॐ नमः अस्त्राय फट् ।

यहाँ तक प्रथमावरण की पूजा कही गई । इसके बाद द्वितीयावरण की पूजा हेतु दलों के मध्य में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से काली आदि शक्तियों का पूजन करना चाहिए । यथा -    ॐ काल्यै नमः        ॐ तारायै नमः,
ॐ भगवत्यै नमः,        ॐ कुब्जायै नमः,        ॐ शीतलायै नमः,
ॐ त्रिपुरायै नमः,        ॐ मातृकायै नमः,        ॐ लक्ष्म्यै नमः ।
फिर भूपुर के भीतर पूर्वोक्त रीति से पूवादि दिशाओं के क्रम से पूवोक्त इन्द्रादि दश दिक्पालों की पूजा कर तृतीयावरण की पूजा सम्पन्न करे । फिर बाहर पूर्वादि दिशाओं के क्रम से पूर्वोक्त इन्द्रादि दश दिक्पालों के वज्रादि आयुधों की पूजा कर चतुर्थावरण की पूजा सम्पन्न कर जप करना चाहिए । जप की समाप्ति हो जाने पर पायस से दशांश होम करना चाहिए ॥९०-९४॥

अब कारागार से बन्दियों को छुडाने का एक अन्य प्रयोग कहते हैं -
अपूप (माल पूआ) पर घी से चतुरस्त्र के भीतर ठकार लिखकर जिसे छुडाना हो उस साध्य का नाम लिखकर (अमुकं) मोचय लिखना चाहिए । फिर चतुरस्त्र के चारों दिशाओं में माया बीज (ह्रीं) लिखकर उसे अष्टादशाक्षर मन्त्र से (प्रतिलोम क्रम से) परिवेष्टित करे ॥९५॥

वाग्‌बीज (ऐं), भुवनेशानी (ह्रीं), रमा (श्रीं), फिर ‘बन्दी’ पद, उसके बाद केशव (अ), फिर ‘मुष्य बन्ध’, तदनन्तर ‘मोक्षं’ फिर दो बार कुरु (कुरु कुरु), फिर ठद्वय (स्वाहा) लगाने से अष्टादशाक्षर मन्त्र निष्पन्न होता है, जो बन्दियों को शीघ्र मोक्ष देने वाला है ॥९६-९७॥

विमर्श - अष्टादशाक्षर मन्त्र का उद्धार -  ‘ऐं ह्रीं श्रीं बन्दि अमुष्य बन्ध मोक्षं कुरु स्वाहा’ (१८) । इसका प्रयोग चित्र में स्पष्ट है ॥९७॥
इस प्रकार १८ अक्षरों से परिवेष्टित साध्यनाम वाल अपूप पर देवी की पूजा कर जिस अपने मित्र को कारागार से मुक्त करना हो उसे खिला दे । बन्दी रहने वाला साध्य शुद्ध होकर मौन हो उस अपूप को खा जावे तो उसके भक्षण करने से वह शीघ्र ही कारागार से मुक्त हो जाता है । यह बन्दी देवी ऐसी हैं कि स्मरण मात्र से बन्धन से मुक्त कर देती हैं ॥९७-९९॥

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Last Updated : April 26, 2012

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