अरित्र
अब गणेश जी के सर्वाभीष्ट प्रदायक मन्त्रों को कहता हूँ - जल (व) तदनन्तर वहिन (र) के सहित चक्री (क) (अर्थात् क्र् ), कर्णेन्दु के साध कामिका (तुं), दीर्घ से युक्तदारक (ड) एवं वायु (य) तथा अन्त में कवच (हुम्) इस प्रकार ६ अक्षरों वाला यह गणपति मन्त्र साधकों को सिद्धि प्रदान करता है ॥१-२॥
विमर्श - इस षडक्षर मन्त्र स्वरुप इस प्रकार है - ‘वक्रतुण्डाय हुम्’ ॥१-२॥
अब इस मन्त का विनियोग कहते हैं - इस मन्त्र के भार्गव ऋषि हैं, अनुष्टुप् छन्द है, विघ्नेश देवता हैं, वं बीज है तथा यं शक्ति है ॥३॥
विमर्श - विनियोग का स्वरुप इस प्रकार है - अस्य श्रीगणेशमन्त्रस्य भार्गव ऋषि - रनुष्टुंप् छन्दः विघ्नेशो देवता वं बीजं यं शक्तिरात्मनोऽभीष्टसिद्धर्थे जपे विनियोगः ॥३॥
अब इस मन्त्र के षडङ्ग्न्यास की विधि कहते हैं -
उपर्युक्त षडक्षर मन्त्रों के ऊपर अनुस्वार लगा कर प्रथम प्रणव तथा अन्त में नमः पद लगा कर षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥४॥
विमर्श - कराङ्गन्यास एवं षडङ्गन्यास की विधि -
ॐ वं नमः अङ्गुष्ठाभ्यां नमः,ॐ क्रं नमः तर्जनीभ्यां नमः,
ॐ तुं नमः मध्यमाभ्यां नमः,ॐ डां नमः अनामिकाभ्यां नमः,
ॐ यं नमः कनिष्ठिकाभ्यां नमः,ॐ हुँ नमः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः,
इसी प्रकार उपर्युक्त विधि से हृदय, शिर, शिखा, कवच, नेत्रत्रय एवं ‘अस्त्राय फट्से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥४॥
अब इसी मन्त्र से सर्वाङ्गन्यास कहते हैं - भ्रूमध्य, कण्ठ, हृदय, नाभि, लिङ्ग एवं पैरों में भी क्रमशः इन्हीं मन्त्राक्षरों का न्यास कर संपूर्ण मन्त्र का पूरे शरीर में न्यास करना चाहिए, तदनन्तर गणेश प्रभु का ध्यान करना चाहिए ॥५॥
विमर्श - प्रयोग विधि इस प्रकार है -
ॐ वं नमः भ्रूमध्ये, ॐ क्रं नमः कण्ठे, ॐ तुं नमः हृदये, ॐ डां नम्ह नाभौ,
ॐ यं नमः लिङ्गे, ॐ हुम् नमः पादयोः, ॐ वक्रतुण्डाय हुम् सर्वाङ्गे ॥५॥
अब महाप्रभु गणेश का ध्यान कहते हैं -
जिनका अङ्ग प्रत्यङ्ग उदीयमान सूर्य के समान रक्त वर्ण का है, जो अपने बायें हाथों में पाश एवं अभयमुद्रा तथा दाहिने हाथों में वरदमुद्रा एवं अंकुश धारण किये हुये हैं, समस्त दुःखों को दूर करने वाले, रक्तवस्त्र धारी, प्रसन्न मुख तथा समस्त भूषणॊं से भूषित होने के कारण मनोहर प्रतीत वाल गजानन गणेश का ध्यान करना चाहिए ॥६॥
अब इस इस मन्त्र से पुरश्चरण विधि कहते हैं -
पुरश्चरण कार्य में इस मन्त्र का ६ लाख जप करना चाहिए । इस (छःलाख) की दशांश संख्या (साठ हजार) से अष्टद्रव्यों का होम करना चाहिए । तदनन्तर मन्त्र के फल प्राप्ति के लिए संस्कार-शुद्ध ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये ॥७॥
१. ईख, २. सत्तू, ३. केला, ४. चपेटान्न (चिउडा), ५. तिल, ६. मोदक, ७. नारिकेल और, ८ . धान का लावा - ये अष्टद्रव्य कहे गये हैं ॥८॥
अब पीठपूजाविधान करते हैं -
आधारशक्ति से आरम्भ कर परतत्त्व पर्यन्त पीठ की पूजा करनी चाहिए । उस पर आठ दिशाओं में एवं मध्य में शक्तियों की पूजा करनी चाहिए ॥९॥
१. तीव्रा, २. चालिनी, ३. नन्दा, ४. भोगदा, ५. कामरुपिणी, ६. उग्रा, ७. तेजोवती, ८. सत्या एवं ९. विघ्ननाशिनी - ये गणेश मन्त्र की नव शक्तियों के नाम हैं ॥१०-११॥
प्रारम्भ में गणपति का बीज (गं) लगा कर ‘सर्वशक्तिकम’ तदनन्तर ‘लासनाय’ और अन्त में हृत् (नमः) लगाने से पीठ मन्त्र बनता है । इस मन्त्र से आसन देकर मूलमन्त्र से गणेशमूर्ति की कल्पना करनी चाहिए ॥११-१२॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘गं सर्वशक्तिकमलासनाय नमः’ ॥११-१२॥
उस मूर्ति में गणेश जी का आवाहन कर आसनादि प्रदान कर पुष्पादि से उनका पूजन कर आवरण देवताओं की पूजा करनी चाहिए ॥१३॥
गणेश का पञ्चावरण पूजा विधान - प्रथमावरण की पूजा में विद्वान् साधक आग्नेय कोणों (आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, ईशान) में ‘गां हृदयाय नमः’ गीं शिरसे स्वाहा’, ‘गूं शिखायै वषट्’, ‘गैं कवचाय हुम्’ तदनन्तर मध्य में ‘गौं नेत्रत्रयाय वौषट्तथा चारों दिशाओं में ‘अस्त्राय फट् ’ इन मन्त्रों से षडङ्गपूजा करे ॥१४॥
द्वितीयावरण में पूर्व आदि दिशाओं में आठ शक्तियों का पूजन करना चाहिए । विद्या, विधात्री, भोगदा, विघ्नघातिनी, निधिप्रदीपा, पापघ्नी, पुण्या एवं शशिप्रभा - ये गणपति की आठ शक्तियाँ हैं ॥१५-१६॥
तृतीयावरण में अष्टदल के अग्रभाग में वक्रतुण्ड, एकदंष्ट्र, महोदर, गजास्य, लम्बोदर, विकट, विघ्नराज एवं धूम्रवर्ण का पूजन करना चाहिए । फिर चतुर्थावर में अष्टदल के अग्रभाग में इन्द्रादि देव तथा पञ्चावरण में उनके वज्र आदि आयुधों का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार पाँच आवरणों के साथ गणेश जी का पूजन चाहिए । मन्त्र सिद्धि के लिए पुरश्चरण के पूर्व पूर्वोक्त पञ्चावरण की पूजा आवश्यक है ॥१५-१८॥
विमर्श - प्रयोग विधि - पीठपूजा करने के बाद उस पर निम्नलिखित मन्त्रों से गणेशमन्त्र की नौ शक्तियों का पूजन करना चाहिए ।
पूर्व आदि आठ दिशाओं में यथा -
ॐ तीव्रायै नमः,ॐ चालिन्यै नमः,ॐ नन्दायै नमः,
ॐ भोगदायै नमः,ॐ कामरुपिण्यै नमः,ॐ उग्रायै नमः,
ॐ तेजोवत्यै नमः, ॐ सत्यायै नमः,
इस प्रकार आठ दिशाओं में पूजन कर मध्य में ‘विघ्ननाशिन्यै नमः’ फिर ‘ॐ सर्वशक्तिकमलासनाय नमः’ मन्त्र से आसन देकर मूल मन्त्र से गणेशजी की मूर्ति की कल्पना कर तथा उसमें गणेशजी का आवाहन कर पाद्य एवं अर्ध्य आदि समस्य उपचारों से उनका पूजन कर आवरण पूजा करनी चाहिए ।
ॐ गां हृदाय नमः आग्नेये,ॐ गीं शिरसे स्वाहा नैऋत्ये,
ॐ गूं शिखायै वषट् वायव्ये,ॐ गैं कवचाय हुम् ऐशान्ये,
ॐ गौं नेत्रत्रयाय वौषट् अग्रे,ॐॐ गः अस्त्राय फट् चतुर्दिक्षु ।
इन मन्त्रों से षडङ्पूजा कर पुष्पाञ्जलि लेकर मूल मन्त्र का उच्चारण कर ‘अभीष्टसिद्धिं मे देहि शरणागतवत्सले । भक्तयो समर्पये तुभ्यं प्रथमावरणार्चनम् ’ कह कर पुष्पाञ्जलि समर्पित करे । फिर -
ॐ विद्यायै नम्ह पूर्वे,ॐ विधात्र्यै नमः आग्नेये,
ॐ भोगदायै नमः दक्षिणे,ॐ विघ्नघातिन्यै नमः नैऋत्यै,
ॐ निधि प्रदीपायै नमः पश्चिमे,ॐ पापघ्न्यै नमः वायव्ये,
ॐ पुण्यायै नमः सौम्ये,ॐ शशिप्रभायै नमः ऐशान्ये
इन शक्तियों का पूर्वादि आठ दिशाओं में क्रमेण पूजन करना चाहिए । फिर पूर्वोक्त मूल मन्त्र के साथ ‘अभीष्टसिद्धिं मे देहि... से द्वितीयावरणार्चनम् ’ पर्यन्त मन्त्र बोल कर पुष्पाञ्जलि समर्पित करनी चाहिए । तदनन्तर अष्टदल कमल में -
ॐ वक्रतुण्डाय नमः,ॐ एकदंष्ट्राय नमः,ॐ महोदरय नमः,
ॐ गजास्याय नमः,ॐ लम्बोदराय नमः,ॐ विकटाय नमः,
ॐ विघ्नराजाय नमः, ॐ धूम्रवर्णाय नमः
इन मन्त्रों से वक्रतुण्ड आदि का पूजन कर मूलमन्त्र के साथ ‘अभिष्टसिद्धिं मे देहि ... से तृतीयावरणार्चनम् ’ पर्यन्त मन्त्र पढ कर तृतीय पुष्पाञ्जलि समर्पित करनी चाहिए ।
तत्पश्चात् अष्टदल के अग्रभाग में - ॐ इन्द्राय नमः पूर्वे,
ॐ अग्नये नमः आग्नये,ॐ यमाय नमः दक्षिने,ॐ निऋतये नमः नैऋत्ये,
ॐ वरुणाय नमः पश्चिमे,ॐ वायवे नमः वायव्य,ॐ सोमाय नमः उत्तरे,
ॐ ईशानाय नमः ऐशान्ये,ॐ ब्रह्मणे नमः आकाशे,ॐ अनन्ताय नमः पाताले
इन मन्त्रों से दश दिक्पालोम की पूजा कर मूल मन्त्र पढते हुए ‘अभिष्टसिद्धिं...से चतुर्थावरणार्चनम् ’ पर्यन्त मन्त्र पढ कर चतुर्थपुष्पाञ्जलि समर्पित करे ।
तदनन्तर अष्टदल के अग्रभाग के अन्त में
ॐ वज्राय नमः,ॐ शक्तये नमः,ॐ दण्डाय नमः,
ॐ खड्गाय नमः,ॐ पाशाय नमः,ॐ अंकुशाय नमः,
ॐ गदायै नमः,ॐ त्रिशूलाय नमः, ॐ चक्राय नमः,ॐ पद्माय नमः
इन मन्त्रों से दशदिक्पालों के वज्रादि आयुधों की पूजा कर मूलमन्त्र के साथ‘ अभीष्टसिद्धिं... से ले कर पञ्चमावरणार्चनम् ’ पर्यन्त मन्त्र पढ कर पञ्चम पुष्पाञ्जलि समर्पित करनी चाहिए । इसके पश्चात् २.७ श्लोक में कही गई विधि के अनुसार ६ लाख जप, दशांश हवन, दशांश अभिषेक, दशांश ब्राह्मण भोजन कराने से पुरश्चरण पूर्ण होता है और मन्त्र की सिद्धि हो जाती है ॥१५-१८॥
इस बाद मन्त्र सिद्धि हो जाने काम्य प्रयोग करना चाहिए - यदि साधक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुये प्रतिदिन १२ हजार मन्त्रों का जप करे तो ६ महीने के भीतर निश्चितरुप से उसकी दरिद्रता विनष्ट हो सकती है । एक चतुर्थी से दूसरी चतुर्थी तक प्रतिदिन दश हजार जप करे और एकाग्रचित्त हो प्रतिदिन एक सौ आठ आहुति देता रहे तो भक्तिपूर्वक ऐसा करते रहने से ६ मास के भीतर पूर्वोक्त फल (दरिद्रता का विनाश) प्राप्त हो
जाता है ॥१९-२१॥
घृत मिश्रित अन्न की आहुतियाँ देने से मनुष्य धन धान्य से समृद्ध हो जाता है । चिउडा अथवा नारिकेल अथवा मरिच से प्रतिदिन एक हजार आहुति देन ए से एक महिने के भीतर बहुत बडी समत्ति होती है । जीरा, सेंधा नमक एवं काली मिर्च से मिश्रित अष्टद्रव्यों से प्रतिदिन एक हजार आहुति देने से व्यक्ति एक ही पक्ष (१५ दिनों) में कुबेर के समान धनवान् है । इतना ही नहीं प्रतिदिन मूलमन्त्र से ४४४ बार तर्पण करने से मनुष्यों को मनो वाञ्छित फल की प्राप्ति हो जाती है ॥२२-२५॥
अब साधकों के लिए निधिप्रदान करने वाले अन्य मन्त्र को बतला रहा हूँ ॥२५॥
‘रायस्पोष’ शब्द के आगे भृगु (स) जो ‘य’ से युक्त हो (अर्थात स्य), फिर ‘ददिता’, पश्चात इकार युक्त मेष (नि) तथा इकार युक्त ध (धि) (निधि), तत्पश्चात् ‘दो रत्नधातुमान् रक्षो’ तदनन्तर गगन (ह), सद्य (ओ) से युक्त रति (ण) (अर्थात् हणो), फिर ‘बल’ तथा शार्ङ्गी (ग)खं(ह), तदनन्तर ‘नो’ फिर अन्त में षडक्षर मन्त्र (वक्रतुण्डाय हुम्) लगाने से ३१ अक्षरों का मन्त्र बन जाता है, जो मनोवाञ्छित फल प्रदान करता है ॥२६-२७॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘रायस्पोषस्य ददिता निधिदो रत्नधातुमान् रक्षोहणो बलगहनो वक्रतुण्डाय हुम् ॥२६-२७॥
इस मन्त्र के क्रमशः ५, ३, ८, ४, ५, एवं षडक्षरों से षडङ्गन्यास कहा गया है । इसके ऋषि, छन्द, देवता, तथा पूजन का प्रकार पूर्ववत है; यह मन्त्र निधि प्रदान करता है ॥१८-२९॥
विमर्श - विनियोग की विधि - अस्य श्रीगणेशमन्त्रस्य भार्गवऋषिः अनुष्टुप्छन्दः गणेशो देवता वं बीजं यं शक्तिः अभीष्टसिद्धये जपे विनियोगः ।
ऋष्यादिन्यास की विधि - भार्गवऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप्छन्दसे नमः मुखे, गणेशदेवतायै नमः हृदि, वं बीजाय नमः गुह्ये, यं शक्तये नमः पादयोः ।
करन्यास एवं षडङ्गन्यास की विधि - रायस्पोषस्य अङ्गुष्ठाभ्यां नमः, ददिता तर्जनीभ्या नमः, निधिदो रत्नधातुमान् मध्यमाभ्यां नमः, रक्षोहणो अनामिकाभ्यं नमः, बलगहनो कनिष्ठिकाभ्यां नमः, वक्रतुण्डाय हुं करतलपृष्ठाभ्यां नमः, इसी प्रकार हृदयादि स्थानों में षडङ्गन्यास करना चाहिए ।
तदनन्तर पूर्वोक्त - २. ६ श्लोक द्वारा ध्यान करना चाहिए ।
इस मन्त्र की भी जपसंख्या ६ लाख है । नित्यार्चन एवं हवन विधि पूर्ववत् (२७.१९) विधि से करना चाहिए ॥१८-२९॥
गणेश जी का अन्य षडक्षर मन्त्र इस प्रकार है -
पद्मनाभ (ए) से युक्त भानु म (मे), सद्य (ओ) के सहित घ (घो), दीर्घ आकार के सहित ल् और ककार (ल्का) फिर वायु (य) और अन्त में पावकगेहिनी (स्वाहा) लगाने से निष्पन्न होता है यह षडक्षर मन्त्र साधक के लिए सर्वाभीष्टप्रदाता कहा गया है । पुरश्चरण, अर्घ तथा होमादि का विधान पूर्ववत् (२. ७-२०) है ॥२९-३१॥
विमर्श - इस षडक्षर मन्त्र का स्वरुप इस प्रकर है - ‘मेघोल्काय स्वाहा’ ॥३१॥
अब उच्छिष्ट गणपति मन्त्र का उद्धार कहते हैं - लकुली (ह) ‘इ’ के साथ भृगु (स) एवं त अर्थात् ‘स्ति’ सदृक ‘इ’ के सहित लोहित ‘प’ अर्थात् पि, दीर्घ के सहित वक (श) अर्थात् ‘शा’ साक्षि ‘इ’ से युक्त च (चि), फिर लिखे अन्त में शिर (स्वाहा) लगाने से नवाक्षर निष्पन्न होता है ॥३१-३२॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप - ‘ॐ हस्ति पिशाचि लिखे स्वाहा’ ॥३१-३२॥
इस मन्त्र के कङ्कोल ऋषि विराट्छन्द उच्छिष्ट गणपति देवता कहे गये हैं । मन्त्र के दो, तीन दो, दो अक्षरोम से न्यास के पश्चात् सम्पूर्ण मन्त्र से पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए तदनन्तर उच्छिष्ट गणपति की पूजा करनी चाहिए ॥३२-३४॥
विनियोग - अस्योच्छिष्टगणपतिमन्त्रस्य कङ्कोल ऋषिर्विराट्छन्दः उच्छिष्टगणपतिर्देवता सर्वाभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः । पञ्चाङ्गन्यास - यथा - ॐ हस्ति हृदया नमः, ॐ पिशाचेइ शिरसे स्वाहा, ॐ लिखे शिखायै वौषट्, ॐ स्वाहा कवचाय हुम्, ॐ हस्ति पिशाचि लिखे स्वाहा अस्त्राय फट् ॥३१-३४॥
पञ्चाङ्गन्यास करने के बाद उच्छिष्ट गणपति का ध्यान इस प्रकार करना चाहिए - मस्तक पर चन्द्रमा को धारण करने वाले चार भुजाओं एवं तीन नेत्रों वाले महागणपति का मैं ध्यान करता हूँ । जिनके शरीर का वर्ण रक्त है, जो कमलदल पर विराजमान हैं, जिनके दाहिने हाथों में अङ्कुश एवं मोदक पात्र तथा बायें हाथ में पाश एवं दन्त शोभित हो रहे हैं, मैं इस प्रकार के उन्मत्त उच्छिष्ट गणपति भगवान् का ध्यान करता हूँ ॥३४॥
अब उच्छिष्ट गणपति मन्त्र की पुरश्चरण विधि कहते हैं - इस मन्त्र का एक लाख जप करना चाहिए, तदनन्तर तिलों से उसका दशांश होम करना चाहिए । पूर्वोक्त (२.६.२०) विधान से पीठ पर उच्छिष्ट गणपति का पूजन करना चाहिए ॥३५॥
सर्वप्रथम अङ्गों का पूजन कर आठों दिशाओं में ब्राह्यी से ले कर रमा पर्यन्त अष्टमातृकाओं का पूजन करना चाहिए । ब्राह्यी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, इन्द्राणी, चामुण्डा एवं रमा ये आठ मातृकायें है । पुनः दशदिशओं में वक्रतुण्ड, एकदंष्ट्र, लम्बोदर, विकट, धूम्रवर्ण, विघ्न, गजानन, विनायक, गणपति एवं हस्तिदन्त का पूजन करना चाहिए, तदनन्तर दो आवरणों में इन्द्रादि दश दिक्पालों का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार पुरश्चरण द्वारा मन्त्र सिद्ध हो जाने पर साधक में कम्य - प्रयोग की योग्यता हो जाती है ॥३६-४०॥
विमर्श - ३५ श्लोक में कहे गये पीठ पूजा के लिए आधारशक्ति पूजा, मूल मन्त्र से देवता की मूर्ति की कल्पना, ध्यान, तदनन्तर आवाहनादि विधि २.९१८ के अनुसार करनी चाहिए ।
पूर्व आदि आठ दिशाओं में अष्टमातृका पूजा विधि
ॐ ब्राहम्यै नमः,ॐ माहेश्वर्यै नमःॐ क्ॐआर्यै नमः,
ॐ वैष्णवै नमः,ॐ वाराह्यै नमः,ॐ इन्द्राण्यै नमः,
ॐ चमुण्डायै नमः,ॐ महालक्ष्म्यै नमः ।
पुन पूर्वादि दश दिशाओं में - ॐ वक्रतुण्डाय नमः,ॐ एकदंष्ट्राय नमः,
ॐ लम्बोदराय नमः,ॐ विकटाय नमः,ॐ धूम्रवर्णाय नमः,
ॐ विघ्नाय नमः,ॐ गजाननाय नमः,ॐ विनायकाय नमः,
ॐ गणपतये नमः,ॐ हस्तिदन्ताय नमः
इन मन्त्रों से दश दिग्दलों में पुनः उसके बाहर इन्द्रादि दश दिक्पालों तथा उनके आयुधों का पूजन करना चाहिए (द्र० २. १७-१८) । इस इस प्रकार उक्त विधि से मन्त्र सिद्ध हो जाने पर साधक में विविध काम्य प्रयोग करने की क्षमता आ जाती है ॥३६-४०॥
अब काम्य प्रयोग का विधान करते हैं - साधक कपि (रक्त चन्दन) अथवा सितभानु (श्वेत अर्क) की अपने अङ्गुष्ठ मात्र परिमाण वाली गणेश की प्रतिमा का निर्माण करे । जो मनोहर एवं उत्तम लक्षणों से युक्त हो तदनन्तर विधिपूर्वक उसकी प्राणप्रतिष्ठा कर उसे मधुसे स्नान करावे ॥४०-४१॥
कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी से शुक्लपक्ष की चतुर्दशी पर्यन्त गुड सहित पायस का नैवेद्य लगा कर इस मन्त्र का जप करे ॥४२॥
यह क्रिया प्रतिदिन एकान्त में उच्छिष्ट मुख एवं वस्त्र रहित हो कर, ‘मैं स्वयं गणेश हूँ’ इस भावना के साथ करे। घी एवं तिल की आहुति प्रतिदिन एक हजार की संख्या में देता रहे तो इस प्रयोग के प्रभाव से पन्द्रह दिन के भीतर प्रयोगकर्ता व्यक्ति अथवा राजकुल में उत्पन्न हुआ व्यक्ति राज्य प्राप्त कर लेता है । इसी प्रकार कुम्हार के चाक की मिट्टी की गणेश प्रतिमा बना कर पूजन तथा हवन करने से राज्य अथवा नाना प्रकार की संपत्ति की प्राप्ति होती है ॥४३-४४॥
बॉबी की मिट्टी की प्रतिमा में उक्त विधि से पूजन एवं होम करने से अभिलषित सिद्धि होती है; गौडी (गुड निर्मित) प्रतिमा में ऐसा करने से सौभाग्य की प्राप्ति होती है, तथा लावणी प्रतिमा शत्रुओं को विपत्ति से ग्रस्त करती है ॥४५॥
निम्बनिर्मित प्रतिमा में उक्त विधि से पूजन जप एवं होम करने से शत्रु का विनाश होता है, और मधुमिश्रित लाजा का होम सारे जगत् को वश में करने वाला होता है ॥४६॥
शय्या पर सोये हुये उच्छिष्टावस्था में जप करने से शत्रु वश में हो जाते हैं । कटुतैल में मिले राजी पुष्पों के हवन से शत्रुओं में विद्वेष होता है ॥४७॥
द्युत, विवाद एवं युद्ध की स्थिति में इस मन्त्र का जप जयप्रद होता है । इस मन्त्र के जप के प्रभाव से कुबेर नौ निधियों के स्वामी हो गये। इतना ही नहीं, विभीषण और सुग्रीव को इस मन्त्र का जप करने से राज्य की प्राप्ति हो गई । लाल वस्त्र धारण कर लाल अङ्गराग लगा कर तथा ताम्बूल चर्वण हुए रात्रि के समय उक्त मन्त्र का जप करना चाहिए ॥४८-४९॥
अथवा गणेश जी को निवेदित लड्डू का भोजन करते हुए इस मन्त्र का जप करना चाहिए और मांस अथवा फलादि किसी वस्तु की बलि देनी चाहिए ॥५०॥
अब बलि के मन्त्र का उद्धार कहते हैं - सानुस्वार स्मृति (गं), इन्दुसहित आकाश (हं), अनुस्वार एवं औकार युक्त ककार लकार (क्लौं), उसी प्रकार गकार लकार (ग्लौं), तदनन्तर ‘उच्छिष्टग’ फिर एकार युक्त ण (णे), फिर ‘शाय’ पद, फिर ‘महायक्षाया’ तदननत्र (यं) और अन्त में ‘बलिः’ लगाने से १९ अक्षरों का बलिदान मन्त्र बनता है ।
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - गं हं क्लौं ग्लौं उच्छिष्टगणेशाय महायक्षायायं बलिः ॥५१-५२॥
अब उच्छिष्ट गणपति का अन्य मन्त्र कहते हैं - ध्रुव (ॐ), माया (ह्रीं) तथा अनुस्वार युक्त शार्ङिगः (गं) ये तीन बीजाक्षर नवार्णमन्त्र के पूर्व जोड देने से द्वादशाक्षर मन्त्र बन जाता हैं, इसका विनियोग न्यास ध्यान आदि नवार्णमन्त्र के समान ही समझना चाहिए (द्र० २. ३२-३९) ।
विमर्श - द्वादशाक्षर मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॐ ह्रीं गं हस्तिपिशाचि लिखे स्वाहा ॥५३॥
आदि में तार (ॐ) इसके पश्चात् नवर्णमन्त्र लगा देने से, अथवा गं इसके पश्चात् नवार्ण मन्त्र लगा देने से दो प्रकार का दशाक्षर गणपति का मन्त्र निष्पन्न होता है - उक्त दोनों मन्त्रों में भी नवार्ण मन्त्र की तरह विनियोग न्यास तथा ध्यान का विधान कहा गया है ॥५४॥
विमर्श - दशाक्षर मन्त्र - (१) ॐ हस्तिपिशचिलिखे स्वाहा
(२) गं हस्तिपिशचिलिखे स्वाहा ॥५४॥
अव एकोनविंशाक्षर मन्त्र का उद्धार करते हैं - ध्रुव (ॐ), हृद् (नमः), फिर ‘उच्छिष्ट गणेशाय’ तदनन्तर नवार्णमन्त्र (२.३१) लगा देने से उन्नीस अक्षरों का मन्त्र बनता है । इसके भी ऋषि, छन्द देवता आदि पूर्वोक्त नवार्णमन्त्र के समाह हैं ॥५५॥
विमर्श - इस मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॐ नमः उच्छिष्टगणेशाय हस्तिपिशाचि लिखे स्वाहा’ ॥५५॥
मन्त्र के ३, ७, २, ३, २ एवं २ अक्षरों से षडङ्गन्यास एवं अङ्गपूजा पूर्ववत् करनी चाहिए ॥५६॥
विमर्श - विनियोग - ॐ अस्योच्छिष्टगणपतिमन्त्रस्य कङ्कोलऋषिः विराट्छन्दः उच्छिष्टगणपतिर्देवता आत्मनः अभीष्टसिद्धयर्थे उच्छिष्टगणपति मन्त्र जपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यासः -ॐ नमः हृदयाय नमः,ॐ उच्छिष्टगणेशाय शिरसे स्वाहा,
ॐ हस्ति शिखाय नमः,ॐ पिशाचि कवचाय हुम्,
ॐ लिखे नेत्रत्रयाय वौषट्,ॐ स्वाहा अस्त्राय फट् ।
ध्यान - चतुर्भुज रक्ततनुमित्यादि .......... (द्र० २. ३४) ॥५६॥
अब अक्षरों का उच्छिष्ट गणपति का मन्त्र कहते हैं - तार (ॐ), तदनन्तर ‘ फिर झिण्टीश (ए), चतुरानन (क), फिर ‘दंष्ट्राहस्तिमु’ फिर ‘खाय’ ‘लम्बोदराय’ फिर ‘उच्छिष्टम’ तदनन्तर दीर्घवियत् (हा), फिर ‘त्मने’ पाश (आ), अङ्कुश (क्रौं), परा (ह्री) सेन्दुशाङ्गीं (गं) भगसहित द्विमेघ (घ घे) इसके अन्त में वहिनकामिनी (स्वाहा) लगाने से ३७ अक्षरों का मन्त्र निष्पन्न हो जाता है ॥५७-५८॥
इस मन्त्र के गणक ऋषिः गायत्री छन्द एवं उच्छिष्ट गणपति देवता हैं । उच्छिष्टमुख से ही इनके जप का विधान है । मन्त्र के यथाक्रम ७, १०, ५, ७, ४ एवं ४ अक्षरों से षडङ्गन्यास एवं अङ्गपूजा करनी चाहिए ॥५९-६०॥
विमर्श - सैंतिस अक्षरों के मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॐ नमो भगवते एकदंष्ट्राय हस्तिमुखाय लम्बोदराय उच्छिष्टमहात्मने आँ क्रौं ह्रीं गं घे घे स्वाहा ।
विनियोग - अस्योच्छिष्टगणपति मन्त्रस्य गणकऋषिर्गायत्रीच्छन्दः उच्छिष्टगणपतिर्देवता आत्मनोऽभीष्टसिद्धये उच्छिष्टगणपतिमन्त्रजपे विनियोगः ।
ध्यान - उच्छिष्टगणपति का ध्यान आगे के श्लोक २. ६१ में देखिए ।
षडङ्गन्यास - ॐ नमो हृदयाय नमः ॐ एकदंष्ट्राय हस्तिमुखाय शिरसे स्वाहा,
ॐ लम्बोदराय शिखायै वषट् ॐ उच्छिष्टमहात्मने कवचाय हुम्,
ॐ आँ ह्रीं क्रौं गं नेत्रत्रयाय वौषट्,ॐ घे घे स्वाहा अत्राय फट् ॥५७-६०॥
अब इस मन्त्र के पुरश्चरण के लिए ध्यान कह रहे हैं - बायें हाथों में धनुष एवं पाश, दाहिने हाथों में शर एवं अङ्कुश धारण किए हुए लाल कमल पर आसीन विवस्त्रा अपनी पत्नी संभोग में निरत पार्वती पुत्र उच्छिष्टगणपति का मैम आश्रय लेता हूँ ॥६१॥
अब इस मन्त्र से पुरश्चरणविधि कहते हैं - साधक अपनी अभीष्ट सिद्धि के लिए पूर्वोक्त पीठ पर उपर्युक्त विधि से पूजन कर उक्त मन्त्र का एक लाख जप करे । फिर घी द्वारा उसका दशांश हवन करे ॥६२॥
कृष्ण पक्ष की अष्टमी से ले कर चतुर्दशी पर्यन्त प्रतिदिन आठ हजार पॉच सौ की संख्या में जप, इसका दशांश (८५० की संख्या में) होम तथ उसका दशांश (८५ बार) से तर्पण करना चाहिए । ऐसा करने से यह मन्त्र सिद्धि प्रदान करता है, इतना ही नहीं धन धान्य, पुत्र, पौत्र, सौभग्य एवं सुयश भी प्राप्त होता है ॥६३-६४॥
शुभ मुहूर्त में नीम की लकडी से गणेश जे की मूर्ति का निर्माण करना चाहिए; तदनन्तर प्राण प्रतिष्ठित कर उसी मूर्ति के आगे जप करना चाहिए ॥६५॥
जिसका ध्यान कर जप किया जात वै वह भी निश्चित रुप से वश में हो जाता है । इतना ही नहीं, नदी का जल ले कर २७ बार इस से उसे अभिमन्त्रित कर उस जले से मुख प्रक्षालन कर राजसभा में जाने पर साधक इस मन्त्र के प्रभाव से जिसे देखता है या जो उसे देखता है वह तत्काल वश में हो जाता है ॥६६-६७॥
राजाओं को अथवा रामकर्मचारियों को अपने वश में करने के लिए उक्त मन्त्र के द्वारा चार हजार की संख्या में धतूरे का पुष्प श्री गणेश जी को समर्पित करना चाहिए ॥६८॥
सुन्दरी स्त्री के बाएँ पैर की धूलि ला कर उसे गणेश प्रतिमा के नीचे स्थापित करे, फिर उस स्त्री का ध्यान कर बारह हजार की संख्या में इस मन्त्र का जप करे तो वह दूर रहने पर भी सन्निकट आ जाती है । सफेद मन्दार की लकडी अथवा निम्ब की लकडी से गणेश जे की मूर्ति का निर्माण कर उसमें प्राणप्रतिष्ठा करे। तदनन्तर चतुर्थी तिथि को रात्रि में लालचन्दन एवं लाल पुष्पों से पूजन करे, तदनन्तर एक हजार उक्त मन्त्र का जप कर उसी रात्रि में उस प्रतिमा को किसी नदी के किनारे डाल दे तो गणपति स्वयं साधक के अभीष्ट कार्य को स्वप्न में बतला देते है । निम्बकाष्ठ की लकडियों की समिधा से एक हजार उक्त मन्त्र द्वारा आहुतियाँ देने से शत्रु का उच्चाटन हो जाता है ॥६८-७२॥
वज्री समिध द्वारा होम करने से शत्रु यमपुर चला जाता है वानर की हड्डी पर जप करने से उस हड्डी को जिसके घर में फेंक दिया जाता है उस घर में उच्चाटन हो जाता है ॥७३॥
यदि मनुष्य की हड्डी पर जप कर कन्या के घर में उसे फेंक देवे तो वह कन्या उसे सुलभ हो जाती है । कुम्हार के चाक की मिट्टी को स्त्री के बायें पैर की धूलि से मिला कर पुतला बनावे । फिर उसके हृदय पर प्राप्तव्य स्त्री का नाम लिखे । तदनन्तर उक्त मन्त्र का जप कर उस पुतले को नीम की लकडी के साथ भूमि में गाड देवे तो वह स्त्री तत्काल उन्मत्त हो जाती है । फिर उस पुतले को जमीन से निकालने पर प्रकृतिस्थ हो स्वस्थ हो जाती है । इसी प्रकार शत्रु का पुतला बना कर उसे लशुन के साथ किसी मिट्टी के पात्र में स्थापित कर भली प्रकार से पूजन करे ॥ फिर शत्रु के दरवाजे पर उसे गाड देवे तो पक्ष दिन (१५ दिन) में शत्रु का उच्चाटन हो जाता है ॥७४-७७॥
विषम परिस्थिति उत्पन्न होने पर सफेद विधिवत् उसका पूजन करे, तदनन्तर उसे मद्य पात्र में रख कर जमीन में एक हाथ नीच गाड कर उसके उपर बैठ कर दिन रात इस मन्त्र का जप करे तो एक सप्ताह के भीतर घोर से घोर उपद्रव नष्ट हो जाते हैं, शत्रु वश में हो जाते हैं तथा धन संपत्ति की अभिवृद्धि होती है ॥७८-८०॥
दुष्ट स्त्री के बायें पैर की धूल अपने शरीर के मल मूत्र विष्टा आदि तथा कुम्हार के चाके की मिट्टी इन सबको मिला कर गणेश जी की प्रतिमा निर्माण करे । फिर उसे मद्य-पात्र में रख कर विधिवत पूजन करे । फिर जमीन में एक हाथ नीच गाड कर गड को भर देवे । फिर उसके ऊपर अग्नि स्थपित कर कनेर की पुष्पों की एक हजार आहुति प्रदान करे तो वह दुष्ट स्त्री दासी के समान हो जाती है । उपरोक्त सारे प्रयोग नवार्ण मन्त्र से भी किए जा सकते हैं ॥८१-८४॥
अब २२ अक्षरों वाले गणपति के मन्त्र का उद्धार करते हैं -
तार (ॐ) उसके बाद ‘हस्तिमुखाय’ फिर क्रमशः चतुर्थ्यन्त लम्बोदर (लम्बोदराय) फिर ‘उच्छिष्ट’ के बा द चतुर्थ्यन्त ‘माहात्मा’ पद (उच्छिष्टमहात्मने), फिर पाश (आं), अङ्कुश (क्रौं), शिवा (ह्रीं), आत्मभूः (क्लीं) माया (ह्रीं), वर्म (हुम्) फिर ‘घे घे उच्छिष्टाय’ तदनन्तर दहनाङ्गना (स्वाहा) लगाने से बत्तीस अक्षरों का मन्त्र निष्पन्न होता है ।
इस मन्त्र का पूजन आदि पूर्वोक्त विधि (द्र० २. ६०) से करना चाहिए । मन्त्र के ६,५,७,६,६ एवं दो अक्षरों से अङ्गन्यास कहा गया हैं ॥८४-८६॥
विमर्श - इस मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॐ हस्तिमुखाय लम्बोदराय उच्छिष्टमहात्मने आं क्रौं ह्रीं क्लीं ह्रीं हूं घे हे उच्छिष्टाय स्वाहा ।
विनियोग - ‘ॐ अस्योच्छिष्टगणपतिमन्त्रस्य गणकऋषिः गायत्रीछन्दः उच्छिष्ट गणपतिर्देवता आत्मनोऽभीष्टसिदयर्थे जपे विनियोगः (द्र० २. ५६) ।
षडङ्गन्यास - ॐ हस्तिमुखाय हृदया नमः ॐ लम्बोदराय शिरसे स्वाहा, ॐ उच्छिष्टमाहात्मने शिखायै वषट् ॐ आं क्रौं ह्रीं क्लीं हुम् कवचाय हुम् घे घे उच्छिष्टाय नेत्रत्रयान वौषट्, स्वाहा अस्त्राय फट् । ध्यान - २ . ९२ में देखिये ।
इस प्रकार न्यासादि कर पीठपूजा आवरण पूजा आदि पूर्वोक्त कार्य संपादन कर इस मन्त्र का एक लाख जप दशांश हवन् तद्दशांश तर्पण तद्दशांश मार्जन एवं तद्दशांश ब्राह्मण भोजन कराने से पुरश्चरण अर्थात मन्त्र की सिद्धि होती है ॥८४-८६॥
अब उच्छिष्टगणपति मन्त्र की विशेषता कहते हैं - उच्छिष्टगणपति के मन्त्रों की सिद्धि के लिए किसी संशोधन की आवश्यकता नहीं है न तो सिद्धि के लिए सिद्धिदायक चक्र की आवश्यकता है, न किसी शुभ मासादि का विचार किया जाता है । ये मन्त्र गुरु से प्राप्त होते ही सिद्दिप्रद हो
जाते हैं ॥८७॥
इन मन्त्रों को सद गोपनीय रखना चाहिए, और जैसे तैसे जहाँ तहाँ कभी इसको प्रकाशित भी नहीं करना चाहिए । भलीभॉति परीक्षा करने के उपरान्त ही अपने शिष्य एवं पुत्र को इन मन्त्रों की दीक्षा देनी चाहिए ॥८८॥
अब शक्ति विनायक मन्त्र का उद्धार कहते हैं - प्रारम्भ में तार (ॐ) उसके बाद माया (ह्रीं), फिर त्रिमूर्ति ईकार चन्द्र (अनुस्वार) से युक्त पञ्चान्तक गकार हुताशन रकार (ग्रीं) और अन्त में शक्तिबीज (ह्रीं) लगाने से चार अक्षरों का शक्ति विनायक मन्त्र निष्पन्न होता है ॥८९॥
विमर्श - इस मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॐ ह्रीं ग्रीं ह्रीं ॥८९॥
इसं मन्त्र के भार्गव ऋषि हैं, विराट् छन्द है, शक्ति से युक्त गणपति इसके देवता हैं । माया बीज (ह्रीं) शक्ति है तथा दूसरा ग्रीं बीज कहा हैं, प्रणव सहित द्वितीय ग्र में अनुस्वार सहित ६ दीर्घस्वरो को लगा कर षडङ्गन्यास करना चाहिए, फिर ध्यान कर एकाग्रचित्त हो कर प्रभु श्रीगणेश का जप करना चाहिए ॥९०-९१॥
विमर्श - विनियोग - अस्य श्रीशक्तिविनायकमन्त्रस्य भार्गवऋषिः विराट्छन्दः शक्ति गणाधिपो देवता ह्रीं शक्तिः ग्रीं बीजमात्मनोभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादिन्यास - ॐ भार्गवाय ऋषये नमः शिरसि, विराट्छन्दसे नमः मुखे, ॐ शक्तिगणाधिपदेवतायै नमः हृदये, ॐ ग्रीं बीजाय नमः गुह्ये, ॐ ह्रीं शक्तये नमः पादयोः । ग्रैं कवचाय हुम् ॐ ग्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् ॐ ग्रः अस्त्राय फट् ॥९०-९१॥
अब इस मन्त्र के पुरश्चरण के लिए ध्यान कहते हैं - दाहिने हाथों मे अङ्कुश एवं अक्षसूत्र बायें हाथों में विषाण (दन्त) एवं पाश धारण किए हुए तथा सूँड में मोदक लिए हुए, अपनी पत्नी के साथसुवर्णचित अलङ्कारों से भूषित उदीयमान सूर्य जैसे आभा वाले गणेश की मैं वन्दना करता हूँ ॥९२॥
अब पुरश्चरण का प्रकार कहते हैं - इस प्रकार ध्यान कर उक्त मन्त्र का चार लाख जप करना चाहिए । तदनन्तर मधुयुक्त अपूपों से दशांश होम करना चाहिए । फिर उसका दशांश तर्पणादि करना चाहिए ॥९३॥
पूर्वोक्त पीठ पर तथा केसरों में अङ्देवताओम का पूजन करन चाहिए । दलों में वक्रतुण्ड आदि का तथा दल के अग्रभाग में ब्राह्यी आदि मातृकाओं का, फिर दशों दिशाओं में दश दिक्पालों का, तदनन्तर उनके आयुधों का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार यन्त्र पर पूजन कर मन्त्र का पुरश्चरण करने से मन्त्र की सिद्धि होती है । (द्र० २. ८-१८) ॥९४-९५॥
अब गणेश प्रयोग में विविध पदार्थो के होम का फल कहते हैं - घृत सहित अन्न की आहुतियॉ देन से साधक अन्नवान हो जाता है, पायस के होम से तक्ष्मी प्राप्ति तथा गन्ने के होम से राज्यलक्ष्मी प्राप्त होती है । केला एवं नारिकेल द्वारा हवन करने से लोगों को वश में करने की शक्ति आती है । घी के हवन से धन प्राप्ति तथा मधु मिश्रित लवण के होम से स्त्री वश में हो जाती है । इतना ही नहीं अपूपों के होम से राजा वश में हो
जाता है ॥९५-९७॥
अब लक्ष्मी विनायक मन्त्र कहते हैं - तार (ॐ), रमा (श्रीं) इसके बाद सानुस्वार ख के आगे वाला वर्ण (गं) फिर ‘सौम्या’ पद तदनन्तर समीरण ‘य’ इसके बाद चतुर्थ्यन्त गणपति शब्द (गणपतये), फिर तोय (व), फिर र (वर), इसके बाद पुनः दान्त वरशब्द (वरद), तदनन्तर ‘सर्वजनं मे वश’ के बाद ‘मा’ दीर्घ (न), वायु (य) और अन्त में पावककामिनी (स्वाहा) लगाने से २८ अक्षरों का मन्त्र बनता है जो धन की समृद्धि करता है ॥९८-९९॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॐ श्रीं गं सौम्याय वर वरद सर्वजनं मे वशमानय स्वाहा ॥९९-९९॥
इस मन्त्र के अन्तर्यामी ऋषि हैं, गायत्री छन्द है, लक्ष्मीविनायक देवता हैं रमा (श्रीं) बीज है तथा स्वहा शक्ति है । रमा (श्रीं) गणेश (गं) में ६ वर्णो को लगा कर षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥१००॥
विमर्श - विनियोग का स्वरुप - अस्य श्रीलक्ष्मीविनायकमन्त्रस्य अन्तर्यामीऋषिः गायत्रीछन्देः लक्ष्मीविनायको देवता श्रीं बीजं स्वाहा शक्तिः आत्मनोभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादिन्यास - ॐ अन्तर्यामीऋषये नमः शिरसि, गायत्रीछन्दसे नमः मुख, लक्ष्मीविनायकदेवतायै नमः हृदि, श्री बीजाय नमः गुह्ये, स्वाहा शक्तये नमः पादयोः ।
षडङ्गन्यास -ॐ श्रीं गां हृदयाय नमः, ॐ श्रीं गीं शिरसे स्वाहा
ॐ श्रीं गूं शिखायैं वषट्,ॐ श्रीं गैं कवचाय हुम्
ॐ श्री गौं नेत्रत्रयाय वौषट्,ॐ श्रीं गः अस्त्राय फट् ॥१००॥
अब इस मन्त्र का ध्यान कहते हैं - अपने दाहिने हाथ में दन्त एवं शङ्ख तथा बायें हाथ में अभय एवं चक्र धारण किये सूँड के अग्र भाग में सुवर्ण निर्मित घट लिए हुये हाथ में कमल धारण करणे वाली महालक्ष्मी द्वार अलिङ्गित, तीनों नेत्रों वाले सुवर्ण के समान आभा वाले लक्ष्मी गणेश की मैं वन्दना करता हूँ ॥१०१॥
अब उक्त मन्त्र के पुरश्चरण की विधि कहते हैं - उपर्युक्त २८ अक्षरों वाले लक्ष्मीविनायक मन्त्र का चार लाख जप करना चाहिए । तदनन्तर बिल्ववृक्ष की लकडी में दशांश होम करना चाहिए । पूर्वोक्त पीठ पर लक्ष्मीविनायक का पूजन करना चाहिए । सर्वप्रथम अङ्गपूजा करे । तदनन्तर इन आठ शक्तियों कीं पूजा करनी चाहिए; १. बलाका, २.विमला, ३. कमला, ४. वनमालिका, ५ विभीषिका, ६. मालिका, ७. शाङ्करी एवं ८. वसुबालिका - ये आठ शक्तियाँ हैं । तदनन्तर दाहिने एवं बायें भाग में क्रमशः शंखनिधि एवं पद्मनिधि का पूजन करना चाहिए । उनके बाहरे बाग में लोकपालों एवं उनके आयुधों का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार पुरश्चरण करने के उपरान्त मन्त्र सिद्ध हो जाने पर मन्त्रवेत्ता अन्य काम्य प्रयोगों को कर
सकता है ॥१०२-१०५॥
विमर्श - प्रयोग विधि - १०१ श्लोकोक्त ध्यान के अनन्तर मानसोपचारों से पूजन कर गणशोक्त पीठपूजा करे (द्र० २. ९-१०) । तदनन्तर लक्ष्मी विनायक के मूलमन्त्र का उच्चारण कर पीठ पर उनकी मूर्ति की कल्पना करनी चाहिए । तदनन्तर ध्यान, आवाहनादि पञ्च पुष्पाञ्जलि समर्पित कर आवरण पूजा इस प्रकार करनी चाहिए -
सर्वप्रथम ॐ श्रीं गां हृदयाय नमः, ॐ शिरसे स्वाहा, ॐ श्रीं गूं शिखायै वषट्, ॐ श्री गैं कवचाय हम्प, ॐ श्रीं गौं नेत्रत्रयान वौषट्, ॐ श्रीं गः अस्त्राय फट् से षडङ्गन्यास कर अष्टदलों में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से बलाकायै नमः से ले कर वसुबालिकायै नमः पर्यन्त अष्टशक्तियों की पूजा करनी चाहिए । तदनन्तर दाहिनी ओर ॐ शङ्खनिधये नमः तथा बाई ओर ॐ पद्मनिधये नमः इन मन्त्रों से अष्टदल के दोनों भाग में दोनों निधियों का पूजन कर दलागभाग में इन्द्राय नमः इत्यादि मन्त्रों से इन्द्रादि दशदिक्पालों का फिर उसके भी अग्रभाग में वज्राय नमः इत्यादि मन्त्रों से उनके आयुधों की पूजा करनी चाहिए । तदनन्तर मूल मन्त्र का जप एवं उत्तर पूजन की क्रिया करनी चाहिए । जैसा की उपर कहा गया है मूल मन्त्र की जप संख्या चार लाख है । उसका दशांश हवन बिल्ववृक्ष की समिधाओं से करना चाहिए । फिर दशांश तर्पण, तद्दशांश मार्जन, फिर उसका दशांश ब्राह्मण भोजन कराने से मन्त्र सिद्ध हो जाता है और मन्त्रवेत्ता काम्य प्रयोग का अधिकारी होता है ॥१०२-१०५॥
अब उक्त मन्त्र का काम्य प्रयोग कहते हैं - हृदय पर्यन्त जल में खडे हो कर सूर्यमण्डल में लक्ष्मी विनायक का ध्यान कर तीन लाख की संख्या में जप करे तो धन की अभिवृद्धि होती है यही फल बिल्ववृक्ष के मूलभाग में बैठ कर उतनी ही संख्या में जप करने से प्राप्त होती है । अशोक की लकडी से प्रज्वलित अग्नि में घृताक्त चावलों कें होम से सारा विश्व वश में हो जाता है । खादिर की लकडी से प्रज्वलित निर्मल अग्नि में आक की समिधाओं से होम करने से राजा भी वश में हो जाता है । उपर्युक्त मन्त्र द्वारा पायस के होम से महालक्ष्मी प्रसन्न हो जाती है ॥१०६-१०८॥
अब त्रैलोक्यमोहनगणपति मन्त्र कहते हैं -
वक्र फिर कर्णेन्दु सहित णकारान्त त अर्थात् (तुण्) फिर ‘ऐकदंष्ट्राय’ यह पद तदनन्तर मन्मथ (क्लीं) माया (ह्री), रमा (श्रीं) गजमुख (गं), फिर ‘गणप’ तदनन्तर भगीहरि (ते) फिर ‘वर’ फिर बाल (व), अग्नि (र), सत्य (द) (वरद), फिर स, तदनन्तर रेफारुढ जल (र्व), तदनन्तर स्थिरा (ज), सेन्दुमेष (नं) फिर ‘मे वशमानय’ तदनन्तर उषर्बुधक्रिया (स्वावा) लगाने से भक्तों को सिद्धिप्रदान करने वाल त्रैलाक्य मोहन मन्त्र निष्पन्न हो जाता है । यह मन्त्र ३३ अक्षरों का होता है - इस मन्त्र के गणक ऋषि हैं, गायत्री छन्द है तथा भक्तों को सिद्धिप्रदान करने वाले एवं त्रैलाक्य को मोहित करने वाले, श्री गणेश देवता है । इस मन्त्र के क्रमशः १२, ४, ५, ४, एवं ६ और २ अक्षरों से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥१०९-११२॥
विमर्श - इस मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - वक्रतुण्डैकदंष्ट्राय क्लीं ह्रीं श्रीं गं गणपते वरवरद सर्वजनं मे वशमानय स्वाहा ।
विनियोग विधि - ॐ अस्य श्रीत्रैलोक्यमोहनमन्त्रस्य गणकऋषिर्गायत्री छन्दो भक्तेष्ट सिद्धिदायकत्रैलोक्यमोहनकारको गणपतिर्देवता आत्मनोभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास - ॐ वक्रतुण्डैकदंष्ट्राय क्लीं ह्रीं श्रीं गं हृदयाय नमः,
ॐ गणपते शिर्से स्वाहा,ॐ वरवरद शिखायै वषट्,
ॐ सर्वजनं कवचाय हुम,ॐ मे वशमानय नेत्रत्रयाय वौषट्,ॐ स्वाहा अस्त्राय फट्
तदनन्तर आगे कहे गए ११३वें मन्त्र से ध्यान करना चाहिए ॥१०९-११२॥
अब त्रैलोक्यमोहन गणपति का ध्यान कहते हैं - अपने दाहिने हाथों में गदा, बीजपूर, शूल, चक्र एवं पद्म तथा बायें हाथों में धनुष, उत्पल, पाश, धान्यमञ्जरी (धान के अग्रभाग में रहने वाली बाल) एवं दन्त धारण किए हुए जिन गणेश के शुण्डाग्रभाग में मणिकलश शोभित हो रहा है जिनका श्री अङ्ग कमल एवं आभूषणों से जगमगाति हुई अतएव उज्वल वर्णवाली अपनी गोद मेम बैठी हुई पत्नी ए आलिङ्गित हैं - ऐसे त्रिनेत्र, हाथी के समान मुख वाले, सिर पर चन्दकला धारण किए हुए, तीनों लोकों को मोहित करने वाले, रक्तवर्ण की कान्ति से युक्त श्री गणेशजी का मैं ध्यान
करता हूँ ॥११३-११४॥
अब इस मन्त्र से पुरश्चरण विधि कहते हैं - उक्त मन्त्र का चार लाख जप करना चाहिए तथा अष्टाद्रव्यों (द्र० २.८) से जप का दशांश होम करना चाहिए । इसके अनन्तर पूर्वोक्त पीठ पर (द्र. २.९) श्री गणेश जी की पूजा करनी चाहिए । अङ्गन्यासका विधान भी पूर्ववत (द्र० २. १४) है । दलों पर शक्तियों की पूजा करनी चाहिए । १. वामा, २. ज्येष्ठा, ३. रौद्री, ४. कलकाली, ५. बलविकरिणी, ६. बलप्रमथिनी, ७. सर्वभूतदमनी और ८. मनोन्मनी ये आठ शक्तियाँ हैं । पुनः आगे चारों दिशाओं में पूर्वादिक्रम से प्रमोद, सुमुख, दुर्मुख, विघ्ननाशक, का पूजन करना चाहिए । तदनन्तर आं ब्राह्ययै नमः, ई माहेश्वर्यै नमः इत्यादि अष्टमातृकाओं के आदि में (द्र० २. ३६) षड्दीर्घाक्षर लगा कर उनका पूजन करना चाहिए । तदनन्तर इन्द्रादि दिक्पालों का, पुनः उनके दज्र आदि आयुधों का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार पुरश्चरण द्वारा मन्त्र की सिद्धि हो जाने पर अभीष्ट सिद्धि के लिए काम्य प्रयोग करना
चाहिए ॥११५-११९॥
विमर्श - प्रयोग विधि - श्लोक ११३-११४ के अनुसार त्रैलोक्यमोहन गणपति का ध्यान कर मानसोपचारों से पूजन कर अर्घ्य स्थापित करे । पश्चात पीठ एवं पीठदेवता का पूजन कर मूलमन्त्र से त्रैलोक्यमोहन गणेश की मूर्ति की कल्पना कर उनका ध्यान करते हुए आवाहनादि से लेकर पुष्पाञ्जलि समर्पण पर्यन्त समस्त कार्य करना चाहिए । इस मन्त्र का अङ्गन्यास पूर्व में (द्र० २. ११२) में कहा जा चुका है । तदनन्तर आठ दलों पर वामायै नमः से ले कर मनोन्मन्ये नमः पर्यन्त आठ शक्तियों की पूजा करनी चाहिए । तदनन्तर पूर्वादि चारों दिशाओं में प्रमोद सुमुख, दुर्मुख और विघ्ननाशक इन चार नामों के अन्त में चतुर्त्यन्तयुक्त नमः शब्द लगा कर पूजन करना चाहिए । फिर दल के अग्रभाग में ब्राह्यी आदि अष्ट मातृकाओं की क्रमशः आदि में ६ दीर्घो से युक्त कर तथा अन्त में चतुर्थ्यन्तयुक्तः नमः लगा कर पूजा करे (द्र० २.३६) । फिर दलों के बाहर इन्द्रादि दश दिक्पालों का तथा उनके वज्रादि आयुधों क (द्र० २. ३९) पूजन करना चाहिए। इस प्रकार आवरण पूजा का धूप दीपादिविसर्जनान्त समस्त क्रिया संपन्न करनी चाहिए, फिर जप करना चाहिए । ऐसा प्रतिदिन करते हुए जब चार लाख जप पूरा हो जावे तब अष्टद्रव्यों से उसका दशांश होम, होम का दशांश तर्पण, तर्पण का दशांश मार्जन तथा मार्जन का दशांश ब्राह्मण भोजन कराने पर मन्त्र सिद्ध हो जाता है और साधक काम्य प्रयोग का अधिकारी हो जाता है ॥११५-११९॥
अब इस मन्त्र से काम्य प्रयोग कहते हैं - कमलों के हवन से राजा तथा कुमुद पुष्पं के होम से उसके मन्त्री को वश में किया जा सकता है । पीपल की समिधाओं के हवन से ब्राह्यणों को, उदुम्बर की समिधाओं के हवन से क्षत्रियों को, प्लक्ष समिधाओं के हवन से वैश्यों को तथा वट वृक्ष की समिधाओं के हवन से शूद्रों को वश में किया जा सकता है । इसी प्रकार क्षौद्र (मुनक्का) हे होम से सुवर्ण, गो दुग्ध के हवन से गौवें, दधि मिश्रित चरु के हवन से ऋद्धि, घी की आहुति से अन्न एव्म लक्ष्मी की तथा वेतस की आहुतियों से सुवृष्टि की प्राप्ति होती है ॥११९-१२१॥
अब हरिद्रागणपति के मन्त्र उद्धार कहते हैं -
तार (ॐ), वर्म (हुम्), गणेश (गं), भू (ग्लौं), इन बीजाक्षरों के अनन्तर ‘हरिद्रागण’ पद, इसके बाद लोहित (प), आषाढी (त), तदनन्तर ‘ये’ फिर ‘वर वर’ के अनन्तर सत्य (द), फिर ‘सर्वज’ पद, तदनन्तर तर्जनी (न), फिर ‘हृदयं स्तम्भय स्तम्भय’, फिर अन्त में अग्निवल्लभा (स्वाहा)लगाने से बत्तीस अक्षरों का हरिद्रागणपति मन्त्र निष्पन्न होता है ॥१२२-१२३॥
विमर्श - इस मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॐ हुं गं ग्लौं हरिद्रागणपतअये वरवरद सर्वजनहृदय्म स्तम्भय स्तम्भय स्वाहा’ ॥१२२-१२३॥
इस मन्त्र के मदन ऋषि, अनुष्टुप् छन्द और हरिद्रागणनायकदेवता कहे गये हैं । मन्त्र के क्रमशः ४, ८, ५, ७, ६ और दो अक्षरों से षडङ्गन्यास बतलाया गया है ॥१२४॥
विमर्श - विनियोग विधि - ॐ अस्य श्रीहरिद्रागणनायकमन्त्रस्य मदनऋषिः अनुष्टुपछन्दः हरिद्रागणनायको देवता आत्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास विधि - ॐ हुं गं ग्लौं हृदयाय नमः, ॐ हरिरागणपतये शिरसे स्वाहा, वरवरद शिखायै वषट् सर्वजनहृदयं कवचाय हुम्, स्तम्भय नेत्रत्रयाय वौषट् स्वाहा अस्त्राय फट् ॥१२४॥
अब हरिद्रागणपति का ध्यान कहते हैं -
जो अपने दाहिने हाथों में अङ्कुश और मोदक तथा बायें हाथों में पाश एवं दन्त धारण किये हुए सुवर्ण के सिंहासन पर स्थित हैं - ऐसे हल्दी जैसी आभा वाले, त्रिनेत्र तथा पीत वस्त्रधारी हरिद्रागणपति की मैं वन्दना करता हूँ ॥१२५॥
अब इस मन्त्र की पुरश्चरण कहते हैं -
हरिद्रागणपति के मन्त्र का चार लाख जप कर पिसी हल्दी को चावलों में मिश्रित करके दशांश का होम करना चाहिए (तथा होम के दशांश से तर्पण और उसके दशांश से मार्जन, फिर उसका दशांश) ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए ॥१२६॥
पूर्वोक्त विधि से पीठ पर अङपूजा, मातृका पूजन तथा दिक्पाल आदि का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार पुरश्चरण करने पर पूर्वोक्त
मन्त्र (द्र०. २. १२२.-१२३) समस्त मनोवाञ्छित वस्तु प्रदान करता है ॥१२७॥
विमर्श - प्रयोग विधि - सर्वप्रथम १२५ श्लोक के अनुसार हरिद्रागणेश का ध्यान करना चाहिए । तदनन्तर मानसपूजा एवं अर्घ्यस्थापन करना चाहिए । तत्पश्चात् पीठपूजा एवं केशरों के मध्य में तीव्रादि पीठ देवताओं का पूजन कर मूल मन्त्र से हरिद्रागणपति की मूर्ति की कल्पना कर पुनः ध्यान करन चाहिए । तदनन्तर आवाहन से ले कर पञ्चपुष्पाञ्जलि पर्यन्त पूजन करना चाहिए । फिर कर्णिकाओं में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से क्रमश ॐ गणाधिपतये नमः, ॐ गणेशाय नमः, ॐ गननायकाय नमः, ॐ गणक्रीडाय नमः - से पूजन करना चाहिए । फिर केशरों में ‘ॐ हूं गं ग्लौं हृदयाय नमः’ इत्यादि मन्त्रों से षडङ्गन्यास और अङ्गपूजा करनी चाहिए । तदनन्तर पद्मदलों पर वक्रतुण्ड आदि अष्टगणपतियों का पूजन करना चाहिए । दलों के अग्रभाग में ब्राह्यी आदि अष्टमातृकाओं का, फिर दलों के बहिर्भाग में इन्द्रादि दश दिक्पालों का तथा उसके भे बाहर उनके वज्रादि आयुधों का पूजन कर धूप दीपादि पर्यन्त समस्त क्रिया संपन्न करनी चाहिए ॥१२७॥
अब हरिद्रागणपति मन्त्र का काम्य प्रयोग कहते हैं -
शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को कन्या द्वारा गई हल्दी से अपने शरीर में लेप करे । तदनन्तर जल में स्नान कर गणपति का पूजन करे । फिर गणेश के आगे स्थित हो तर्पण करे और उनके सम्मुख १००८ की संख्या में जप करे । फिर घी और मालपूआ से १०० आहुतियाँ देकर ब्रह्मचारियों को भोजन करावे तथा कुमारियों एवं स्वगुरु को भी संतुष्ट करे तो साधक अपना अभीष्ट प्राप्त कर लेता है ॥१२८-१३०॥
लाजाओं के होम से उत्तम वधू तथा कन्या को भी अनुरुप वर की प्राप्ति होती है । बन्ध्या स्त्री ऋतुस्नान के पश्चात् गणेश जी का पूजन कर एक पल (चार तोला) गोमूत्र में दूधवच एवं हल्दी पीस कर उसे १००० बार हरिद्रागणपति के मन्त्र से अभिमन्त्रित करे, फिर कन्या एवं वटुकों को लड्डू खिला कर स्वयं उस औषधि का पान करे तो उसे गुणवान् पुत्र की प्राप्ति होती है । इतना ही नहीं इस मन्त्र की उपासना से वाणी स्तम्भन एवं शत्रुस्तम्भन भी हो जाता है तथा जल, अग्नि, चोर, सिंह एवं अस्त्र आदि का प्रकोप भी रोका जा सकता है ॥१३०-१३३॥
अब हरिद्रागणेश का नय मन्त्र कहते हैं -
शार्ङ्गी (ग), मांसस्थित (ल), इन दोनों में अनुस्वार लगाने से हरिद्रागणपति का बीजमन्त्र (ग्लं) यह पूर्व में बतलाया जा चुका है । इस मन्त्र का पुरश्चरन भी पूर्वोक्त विधि से करना चाहिए ॥१३४॥
विमर्श - विनियोग - ‘ॐ अस्य श्रीहरिद्रागणपतिमन्त्रस्य वशिष्टऋषिः गायत्रीछन्दः हरिद्रागणपतिर्देवता गं बीजं लं शक्तिः आत्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
षडङ्गन्यास - ॐ गां हृदाय नमः, ॐ गां शिरसे स्वाहा, ॐ गूं शिखायै वषट्, ॐ गैं कवचाय हुम्, ॐ गौं नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ गः अस्त्राय फट्।
हरिद्रागणपति का ध्यान -हरिद्राभं चतुर्बाहुं हरिद्रावसनं विभुम् ।
पाशाङ्कुशधरं देवं मोदकं दन्तमेव च ॥
हल्दी के समान पीत वर्ण की आभा वाले, चार हाथों वाले, पीत वर्ण के वस्त्र को धारण करने वाले, व्याप्त, पाश एवं अङ्कुश अपने दाहिने हाथों में धारण करने वाले तथा मोदक एवं दन्त अपने बाएँ हाथों में धारन करने वाले हरिद्रागणेश का मैं ध्यान करता हूँ ।
इस प्रकार ध्यान करने के उपरान्त मानसोपचारपूजन, अर्घ्यस्थापन, पीठपूजा, तीव्रादि पीठशक्तियों की पूजा, अङ्गपूजा एवं आवरण पूजादि समस्त कार्य पूर्वाक्त रीति से संपन्न करना चाहिए । चार लाख जप पूर्ण करने के पश्चात् घी, मधु, शर्करा एवं हरिद्रा मिश्रित तण्डुलों से दशांश होम, तद्दशांश तर्पण, तद्दशांश मार्जन और तद्दशांश ब्राह्मण भोजन करा कर पुरश्चरण की क्रिया करनी चाहिए ॥१३४॥
अब उपसंहार करते हुये ग्रन्थकार कहते हैं कि - मनोभीष्ट फल देने वाले गणेश जी के मन्त्रों को हमने कहा । ये मन्त्र दुष्ट जनों सर्वदा गोपनीय रखने चाहिए तथा उन्हें कभी भी इनका उपदेश (कानो में मन्त्र देना) नहीं करना चाहिए ॥१३५॥