मन्त्रमहोदधि - द्वाविंश तरङ्ग

`मन्त्रमहोदधि' इस ग्रंथमें अनेक मंत्रोंका समावेश है, जो आद्य माना जाता है।


अरित्र
अब पूर्वप्रतिज्ञात अर्घ्यस्वरुप कहते हैं - अपने वामाग्र भाग में त्रिकोण, उसके बाद षट्‍कोण, फिर वृत्त तदुपरि चतुरस्त्र रुप मन्त्र लिखकर शड्‍खमुद्रा से उसे स्तम्भित करना चाहिए ॥१॥

विमर्श - शड्‍खमुद्रा का लक्षण - बायें हाथ के अंगूठे को दाहिनी मुट्ठी में रक्खें, दाहिनी मुट्ठी को ऊर्ध्वमुख रखकर उसके अंगूठे को फैलाए । बायें हाथ की सभी उंगालियों को एक दूसरे के साथ सटा कर फैला दे । अब बायें हाथ की फैली उंगलियों को दाहिनी ओर घुमा कर दाहिने हाथ के अंगूठे का स्पर्श करे तब यह शड्‌ख मुद्रा कहलाती हैं ॥१॥

उस यन्त्र के आग्नेयादि कोणों में पुष्प तथा अक्षतों षड्ङ्ग पूजा करनी चाहिए । फिर ‘फट्‍’ इस अस्त्र मन्त्र से प्रक्षालित आधार पात्र को वक्ष्यमाण मन्त्र का उच्चारण करते हुये त्रिकोण पर स्थापित कर देना चाहिए । ‘(ॐ) मं वहिनमण्डलाय दशकलात्मने देवार्घ्यपात्रासनाय नमः’ । यह २४ अक्षर का आधारपात्र स्थापित करने का मन्त्र है ॥२-४॥

तदनन्तर आधारपात्र पर पूर्वादिदिशाओम में (धूम्रार्चिष् आदि) अग्निकलाओं का तत्तनामों द्वारा पूजन करना चाहिए । फिर आधारपात्र के ऊपर अस्त्र मन्त्र से प्रक्षालित शड्‌ख को ‘(ॐ) अं सूर्यमण्डलाय द्वादशकलात्मने देवार्घ्यपात्राय नमः’, इस २३ अक्षरों के मन्त्र से स्थापित करना चाहिए ॥४-६॥

अमुक देव के स्थान पर अपने इष्ट देवता का चतुर्थ्यन्त नाम (राम, कृष्ण, दुर्गा, गणेश, शिव आदि का चतुर्थ्यन्त) उच्चारण करना चाहिए । पुनः तार (ॐ), काम (क्लीं), एवं ‘माहाजलचराय हुं फट्‍ स्वाहा पाञ्चजन्याय नमः’, इस २० अक्षर के मन्त्र से शड्‌ख को प्रक्षालित कर देना चाहिए ॥६-७॥
तदनन्तर शड्‌ख के ऊपर (तापिनी आदि) द्वादश सूर्यकलाओं का पूजन करना चाहिए । पश्चात्‍ विलोम मातृकाओं एवं विलोम मन्त्र ‘ॐ सोममण्डलाय षोडशकलात्मने देवार्घ्यामृताय नमः’ बोलते हुये उसमें जल भर कर इस मन्त्र से जल का पूजन कर उसमें चन्द्रमा की अमृतादि १६ कलाओं का पूजन करना चाहिए ॥८-९॥

पुनः पाऊस अर्घ्यादिप में अंकुश मुद्रा प्रदर्शित कर ‘गङ्गे च यमुने चैव’ इस मन्त्र से तीर्थो का आवाहन करना चाहिए । फिर जल का स्पर्श करते हुये एकाग्रचित्त हो ८ बार मूलमन्त्र का जप करना चाहिए । पश्चात्‍ जल में अङ्गन्यास कर हृदय (नमः) मन्त्र से पुनः उसका पूजन करना चाहिए । फिर मत्स्य मुद्रा से उसे आच्छादित कर १०८ बार मूल मन्त्र का करना चाहिए ॥१०-१२॥

फिर अस्त्र (फट्‌) मन्त्र से मुद्रा द्वारा रक्षा करनी चाहिए । वर्म (हुं) मन्त्र से अवगुण्ठनी मुद्रा द्वारा उसे गोंठ देना चाहिए । पुनः धेनुमुद्रा से अमृतीकरण करने के बाद अमृत बीज (वं) मन्त्र से संरोधिनी मुद्रा प्रदर्शित करते हुये संरोधन कर शड्‌ख, मुशल एवं चक्र मुद्रायें कर महामुद्रा से परमीकरण करना चाहिए । तदनन्तर योनि मुद्रा प्रदर्शित करनी चाहिए ॥१३-१५॥

कृष्ण मन्त्र के अनुष्ठान में गालिनी मुद्रा तथा राम मन्त्र के अनुष्ठान में गरुड मुद्रा प्रदर्शित करनी चाहिए ॥१६॥

शड्‌ख के दक्षिण दिशा में प्रोक्षणी पात्र में जल भर कर अर्घ्य पात्र से उसमें थोडा जल डाल कर अपने शरीर का तीन बार प्रोक्षण करना चाहिए । फिर मूलमन्त्र एवं गायत्री मन्त्र का उच्चारण करते हुये पूजा सामग्री को भी प्रोक्षित करना चाहिए । उस स्थापित की उत्तर दिशा में पाद्य एवं आचमन पात्र स्थापित करना चाहिए ॥१६-१८॥

यहाँ तक सभी देवताओं के पूजन में प्रयुक्त विशेषार्घ्य स्थापन की सामान्य विधि मैने कही ॥१८॥

भगवान् शंकर एवं सूर्यदेव को छोडकर अन्य समस्त देवताओं के अर्घ्य के लिए शड्‌ख पात्र प्रशस्त माना गया है ॥१९॥

विमर्श - अर्घ्य पात्र स्थापन की संक्षेप विधि -
पूर्व में आधार पात्र स्थापन की विधि २२. १-३ में कह आये हैं । उस स्थापित आधार पात्र के पूर्वादि दश दिशाओं में अग्नि की १० कलाओं का इस प्रकार पूजन करना चाहिए । यथा - ॐ रं वहिनमण्डलाय दशकलात्मने नमः । ॐ यं धूम्रार्चिषे नमः, ॐ रं रुष्मायै नमः, ॐ लं ज्वलिन्यै नमः,
ॐ वं ज्वालिन्यै नमः,        ॐ शं विस्फुलिंगिन्यै नमः,        ॐ षं सुश्रियै नमः
ॐ स्म स्वरुपायै नमः,    ॐ हं कपिलायै नमः,            ॐ ळं हव्यवाहायै नमः

फिर ‘ॐ क्लीं महाजलचराय हुं फट् स्वाहा पाञ्चजन्याय नमः’ इस मन्त्र से सामान्यार्घ्यक जल से शड्‌ख को प्रक्षालित करना चाहिए । तदनन्तर ‘अं सूर्यमण्डलाय द्वादशकलात्मने अमुकार्घ्यपात्राय नमः’ इस मन्त्र से आधार पात्र पर शड्‍ख को स्थापित करना चाहिए ।

फिर उस शड्‌ख पर सूय्र की द्वादश कलाओं का तत्तन्नामों से इस प्रकार पूजन करना चाहिए । यथा - ॐ कं भं तपिन्यै नमः, ॐ खं बं तापिन्यै नमः,
ॐ गं फं धूम्रायै नमः        ॐ घं पं मरीच्यै नमः,
ॐ डं नं ज्वालिन्यै नमः    ॐ चं धं रुच्यै नमः,
ॐ छं दं सुषुम्णायै नमः    ॐ जं थं भोगदायै नमः
ॐ झं तं विश्वायै नमः,    ॐ ञं णं बोधिन्यै नमः,
ॐ टं ढं धारिण्यै नमः        ॐ ठं डं क्षमायै नमः

तत्पश्चात् क्षं ळं हं शं ... आं अं पर्यन्त विलोग मातृका से तथा विलोम मूलमन्त्र बोलते हुये शड्‍ख में जल भर कर ‘ॐ सोममण्डलाय षोडशकलात्मने अमुकार्घ्यामृताय नमः’, मन्त्र से लाल चन्दन एवं पुष्पादि से उस जल का पूजन करना चाहिए ।

फिर चन्द्रमा की १६ कलाओं का नाम उनके मन्त्रों से इस प्रकार पूजन करना चाहिए । यथा - ॐ अं अमृतायै नमः,    ॐ आं मानदायै नमः,
ॐ इं पूषायै नमः,        ॐ ईं तुष्ट्‌यै नमः,        ॐ उं पुष्ट्‍यै नमः,
ॐ ऊं रत्यै नमः,        ॐ ऋं धृत्यै नमः,        ॐ ऋं शशिन्यै नमः,
ॐ लृं चण्डिकायै नमः,    ॐ लृं कान्त्यै नमः,        ॐ एं ज्योत्स्नायै नमः,
ॐ ऐं श्रियै नमः,        ॐ ओं प्रीत्यै नमः,        ॐ औं अङ्गदायै नमः,
ॐ अं पूर्णायै नमः,        ॐ पूर्णामृतायै नमः

तदनन्तर - ॐ गङ्गे यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।
नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु ॥
ॐ ब्रह्मण्डोदरतीर्थानि करस्पृष्टानि ते रवे ।
तेम सत्येन मे देव तीर्थं देहि दिवाकर ॥

इस मन्त्र को पढकर अंकुश मुद्रा द्वारा सूर्य मण्डल से अर्घ्योदक में तीर्थो का आवाहन कर हृदय में भी अपने इष्टदेवता का आवाहन करना चाहिए । फिर जल का स्पर्श कर एकाग्रचित्त से ८ बार मूलमन्त्र का जप कर जल में षडङ्गन्यास कर ‘नमः’ मन्त्र से जल का पूजन करना चाहिए ।

फिर मत्स्य मुद्रा से उसे आच्छादित कर मूलमन्त्र का १०८ बार जप करना चाहिए । शेष श्लोकार्थ में स्पष्ट है । अब विशेषार्घ्य स्थापन के प्रसङ्ग में आई हुई मुद्राओं का लक्षण प्रदर्शित करते हैं -

शड्‌ख मुद्रा का लक्षण - द्रष्टव्य २२. १-२।

अंकुशमुद्रा - दोनों मध्यमाओं को सीधा रखते हुए दोनों तर्जनियों को मध्य पोर के पस परस्पर बाँधे । अब तर्जनियों को थोडा झुकाकर एक दूसरे को खींचे । यह अंकुश मुद्रा है ।

मत्स्यमुद्रा -  बाई हथेली को दाहिने हाथ के पृष्ठ भाग पर रक्खे और फिर दोनों अड्‌गुठों को हथेली को पार करते हुए मिलाए । यह मत्स्य मुद्रा है ।

छोटिकामुद्रा - तर्जनी एवं अङ्‌गूठे के घर्षण से चुटकी बजाने को छोटिका मुद्रा कहते है ।

अवगुण्ठनमुद्रा - दायें हाथ की मुट्ठी बाँध कर तर्जनी को अधोमुख करके पुनः उसे नियमित रुप से आगे-पीछे करने से ‘अवगुण्ठन मुद्रा’ बनती है ।

धेनुमुद्रा - बायें हाथ की मध्यमा को दाहिने हाथ की तर्जनी से और बायें हाथ की अनामिका को दाहिने हाथ की कनिष्ठिका से मिलाये । इस प्रकार मिली अनामिका और कनिष्ठा को अङ्‍गुठे से दबा कर उनसे बायें कन्धों का स्पर्श करे । यह धेनु मुद्रा हैं ।

सन्निरोधन मुद्र - दोनों हाथों की मुट्ठी को एक साथ आश्लिष्ट कर सन्निधान में दोनों अङ्‌गूठों को ऊपर करना तन्त्रवेत्ताओं के द्वारा सन्निरोधन मुद्रा कही गई है । वही सन्निरोधनी ‘अङ्गगुष्ठगर्भिणी’ भी कही गई है ।

मुसलमुद्रा - दोनों हाथों की मुठ्‌ठी बाँधे फिर दाहिनी मुट्ठी  को बायें पर रक्खे । इसे मुसल मुद्रा कहते हैं ।

चक्रमुद्रा - दोनों हाथों को इस प्रकार सम्मुख रक्खे कि दोनों हथेलियाँ ऊपर हों । फिर दोनों हाथों की उंगलियों को मोड कर मुटिठयाँ बना लेवे । अब दोनों अङ्ग्‍गूठों को झुका कर परस्पर स्पर्श कराये और दोनों तर्जनियों को छोड कर दोनों हाथों की उंगलियों को फैला दे । अंगूठे की ही भाँति दोनों तर्जनियाँ भी एक दूसरे का स्पर्श करती है । इस चक्र मुद्रा कहते हैं ।

महामुद्रा - दोनों अंगूठों को एक दूसरे के साथ ग्रथित करके दोनों हाथों की उँगलियों को प्रसारित कर देने से परमीकरण के लिए विद्वानों के द्वारा महामुद्रा कही गई है ।

योगिमुद्रा - दोनों कनिष्ठिकाओम को, तथा तर्जनी और अनामिकाओम को बाँधे । अनामिका को मध्यमा से पहले किञ्चित मिलाये और फिर उन्हें सीधा कर दे । अब दोनों अंगूठों को एक दूसरे पर रक्खे । यह योनि मुद्रा है ।

गालिनीमुद्रा - दोनों हथेलियों को एक दूसरे पर रक्खे । कनिष्ठिकाओं को इस प्रकार मोडे कि वे अपनी-अपनी हथेलियों का स्पर्श करें । तर्जनी, मध्यमा और अनामिका उँगलियाँ सीधी और परस्पर मिली रहें । यह शड्‌ख बजाने की गालिनी मुद्रा है ।

गरुडमुद्रा - दोनों हाथों के पृष्ठ भाग को एक दूसरे से मिला लें । अब नीचे की ओर लटके हुए दोनों हाथों की तर्जनी और कनिष्ठिका को एक दूसरे के साथ ग्रथित करे । इसी स्थिति में दोनों हाथों की अनामिका और मध्यमाओं को उल्टी दिशाओं में किसी पक्षी के पंखों की भाँति ऊपर नीचे जब किया जाय तब विष्णु का सन्तोषवर्धन करने वाली गरुड मुद्रा होती है ॥१९॥

अब पाद्यादि पात्रों का वर्णन करते हैं -
सुवर्ण चाँदी ताँबा पीतल पलाश के पत्ते अथवा कमल मे पत्तों से बने पाद्य आदि के पात्र श्रेष्ठ कहे गये है । अशक्त होने पर पाद्य पात्र अपने इष्ट देवता को निवेदन करना चाहिए ॥१९-२०॥

अब अन्तर्याग की प्रक्रिया कहते हैं - विद्वान् साधक को अपने देहमय पीठ पर अन्तर्याग करना चाहिए । पीठ न्यास में कहे गये स्थानों पर (द्र० २१. १५८-१६५) मण्डूकादि देवताओं का गन्धादि उपचारों से पूजन करना चाहिए । फिर पीठ मन्त्र से अपने हृदय में इष्ट देवता का पूजन करना चाहिए ॥२१-२२॥

तदनन्तर आधार चक्र से कुण्डलिनी को ऊपर उठाकर ब्रह्मरन्ध्र में वर्तमान परब्रह्म के पास ले जाना चाहिए और वहाँ से टपकती हुई अमृत धारा से इष्टदेव को तृप्त करना चाहिये, और जप कर उन्हें सारा जप समर्पित करना चाहिए । मन से उनका कभी विर्सजन नहीं करना चाहिए ॥२२-२३॥

फिर शिर, हृदय, पैर, गुदाङ्ग एवं समग्र शरीर पर पुष्पाञ्जलियाँ प्रत्यर्पित करनी चाहिए । इस तरह अन्तर्याग करके वाह्यपूजन करना चाहिए । इस प्रकार गृहस्थ को अन्तर्याग और बहिर्याग दोनों करने का अधिकार है । किन्तु ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और यति को मात्र अन्तर्याग ही करना चाहिए ॥२४-२५॥

बाह्य पूजा विधि - सर्वप्रथम साधक एकाग्र होकर अर्घ्यादिक का जल वर्द्धनी में डाले, फिर मूलमन्त्र से प्राणायाम कर अपनी बायीं ओर गुरुपंक्ति को तथा दाहिनी ओर गणपति को प्रणाम कर पीठ पूजा प्रारम्भ करे ॥२६-२७॥

स्वर्ण आदि से निर्मित अथवा चन्दन लिखित यन्त्र पर मण्डूक से परतत्त्वान्त देवताओं का पूजन कर आठो दिशाओं में तथा मध्य में पीठशक्तियों का पूजा करे ॥२७॥

लक्ष्मी के साथ विष्णु पूजन करते समय क्षीर सागर का,गणेश पूजन काल में इक्षुसागर का तथा अन्य देवताओं के पूजन में सागर का पूजन कर ॥२८-२९॥

फिर यन्त्र के आग्नेय, नैऋत्ये, वायव्य और ईशान कोणों में धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य का पूजन करे तथा फिर पूर्व, दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर दिशाओं में अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य तथा अनैश्वर्य का पूजन करना चाहिए । साधक को धर्मादि की पूजा तथा आवरण पूजा में प्राची दिशा से आरम्भ करनी चाहिए । ‘पूज्य पूजकयोर्मघ्ये प्राचीकल्पः’ - ऐसा धर्मशास्त्र का वचन हैं, जिस प्रकार इन्द्रादि दिक्पालों की पूजा प्राची से प्रारम्भ होती है ॥२८-३१॥

फिर श्वेत, कृष्ण, अरुण, पीत, श्याम, रक्त, श्वेत, कृष्ण और रक्त वस्त्र धारण किये हुये तथा अभय मुद्रा वाली पीठ शक्तियों का ध्यान करना चाहिए ॥३१-३२॥

शालग्राम में. मणि में तथा में नित्यपूजा का विधान है । सुवर्णादि निर्मित प्रतिमा अथवा सविधि स्थापित प्रतिमा का भी प्रतिदिन पूजन करना चाहिए। अंगूठे से लेकर १ बलिश्त की प्रतिमा का घर में भी पूजन किया जा सकता है । जली, टूटी, उँची - नीची दुष्टि वाली तथा वक्र आकृति की प्रतिमा का पूजन निषिद्ध है ॥३२-३४॥

सर्वलक्षण संयुक्त शिव लि्ङ्ग का पूजन घर में करना चाहिए और उसमें आवाहन भी करना चाहिए ॥३४॥

मूल मन्त्र का उच्चारण करते हुये हृदय से सुषुम्ना मार्ग द्वारा ब्रह्मरन्ध्र में स्थित इष्टदेव को, नासारन्ध्र से पुनः उन्हें निकाल कर, मातृका यन्त्र पर स्थापित पुष्पाञ्जलि में एकीकृत कर उन्हें मूर्ति पर समर्पित कर देना चाहिए । इस क्रिया को आवाहन कहते हैं ॥३५-३६॥

शालग्राम शिला में अथवा अचल प्रतिष्ठित मूर्ति में न तो आवाहन करना चाहिए और न तो विर्सजन ही करना चाहिए । मूर्ति में आवाहनादि उपचारों से पूजा करते समय शंकर जी द्वारा कहे गये इस श्लोक का उच्चारण करना चाहिए - आत्मसंस्थमज्म त्वामहं परमेश्वर् ।
अरण्यामिव हव्यांश मूर्तावावाहयाप्यहम् ॥३७-३९॥

अब पञ्चायतन में देवताओम के स्थापन का क्रम कहते है -
पञ्चायतन के पक्ष में, मध्य में विष्णु की पूजा होती है । फिर अग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, और ईशान कोण में क्रमशः गणेश, रवि, शक्ति और शिव का स्थापन, कर पूजा करनी चाहिए ॥३९-४०॥

मध्य में गणेश को स्थापित कर पूजा करनी हो तो उक्त कोणों में क्रमशः शिव, शक्ति, रवि और विष्णु का, रवि मध्य में हो तो उक्त कोणों में गणेश, विष्णु, शक्ति और शिव का, शक्ति, मध्य में हो तो उक्त कोणों में शिव, गणेश, सूर्य और विष्णु का तथा शिव मध्य में होने पर क्रमशः रवि, गणेश, शक्ति और अच्युत का पूजन करना चाहिए ॥४०-४१॥

सर्वप्रथम मध्यगत देव का पूजन करने के बाद ही गणेशादि की पूजा करनी चाहिए । मध्य में गणेश होने पर उनका पूजन कर पुनः रवि आदि के पूजन का विधा है । यहाँ प्राचीन मनीषियों ने काण्डानुसमय विधि से पूजा बतलाई है - एक देवता का पूजाकाण्ड समाप्त कर दूसरे देवता का अर्चनकाण्ड ‘काण्डानुसमय’ कहा जाता है ॥४२-४३॥

अब पूजा का क्रम कहते है -
आवाहनी मुद्रा से इस प्रकार इष्टदेव का आवाहन कर मूल मन्त्र के साथ
‘तवेयं महिमामूर्तिस्तस्यां त्वां सर्वगं प्रभो ।
भक्तिस्नेहसमाकुष्टं दीपवत्स्थापयाम्यहम्’ ॥

इस श्लोक को बोलते हुये संस्थापनी मुद्रा से मूर्ति स्थापित करनी चाहिए । अपने इष्टदेव का पूजन करते समय आवाहनादि के लिए भवानी, गणेश, रवि तथा विष्णु का ऊहापोह कर लेना चाहिए ॥४३-४५॥

विमर्श - आवाहन मुद्रा - दोनों हाथों से अञ्जलि बाँध कर दोनों अंगूठों को अपनी-अपनी अनामिकाओं के मूल पर्वों पर निक्षिप्त करना चाहिए । विद्वज्जन इसे आवाहनी मुद्रा कहते हैं ।

स्थापनी मुद्रा -  उक्त आवाहनी मुद्रा बनाकर उसे अधोमुखे कर देने से स्थापनी मुद्रा निष्पन्न होती है ॥४३-४५॥

अब आसनदान तथा उपवेशन कहते हैं - मूलमन्त्र के साथ ‘सर्वान्तर्यामिणे देव सर्वबीजमय्म शुभम्, स्वात्मस्थाय पदं शुद्धमासनं कल्पयाम्यहम्’ - यह श्लोक बोलकर, आसन देना चाहिए । पुनः मूलमन्त्र के साथ ‘अस्मिन्वरासने देव सुखसीनोऽक्षरात्मक प्रतिष्ठितो भवेश त्वं प्रसीद परमेश्वर’ यह श्लोकि बोलकर उपवेशन कराना चाहिए ॥४६-४७॥

सन्निधान मूल मन्त्र के साथ - ‘अनन्या तव देवेश मूर्तिशक्तिरियं प्रभो सानिध्यं कुरु तस्यां त्वं भक्तानुग्रहतत्परः’  - इस श्लोक को बोलकर सन्निधान मुद्रा से सन्निधान करना चाहिए ॥४८-४९॥

विमर्श - सन्निधानमुद्रा का लक्षण - तन्त्रवेत्ताओं के द्वारा दोनों मुटिठयोम को एकसाथ मिलाना और दोनों अंगूठों को ऊपर उठाना सन्निधान मुद्रा कही गई है ॥४८-४९॥

अब सन्निरोधन कहते हैं - मूल मन्त्र के साथ’ आज्ञया तव ... निरुणघ्मि पितर्गुरौ पर्यन्त श्लोक बोलते हुये सन्निरोधमुद्रा द्वारा सन्निरोधन करना चाहिए ॥५०॥

सम्मुखीकरण - मूलमन्त्र के साथ ‘अज्ञानाद् दुर्मनस्त्वाद्‌वा ... भव’ पर्यन्त श्लोक पढकर सम्मुखी मुद्रा द्वारा संम्मुखीकरण करना चाहिए ॥५१-५२॥

विमर्श - सम्मुखीकरणमुद्रा -  हृदय पर बंधी हुई अञ्जली रखना सम्मुखीकरणमुद्रा कही गयी है ॥५१-५२॥

अब सकलीकरण कहते है - मूलमन्त्र के साथ ‘दृशापीयूष... महेश्वर; पर्यन्त श्लोक पढते हुये प्रार्थिनी मुद्रा द्वारा इष्टदेव का पूजन करना चाहिए । देवता के अङ्‌गो में षडङ्गन्यास को विद्वान् लोग सकलीकरण कहते हैं ॥५३-५४॥

अब अवगुण्ठन कहते हैं - मूलमन्त्र के साथ ‘अव्यक्त... सर्वतः’ पर्यन्त श्लोक पढते हुये अवगुण्ठन करना चाहिए ॥५५॥

विमर्श - अवगुण्ठन मुद्रा - (द्र० २२. १९) ॥५५॥

अमृतीकरण एवं परमीकरण - धेनुमुद्रा से अमृईकरण करने के बाद महामुद्रा प्रदर्शित करते हुये परमीकरण करना चाहिए । फिर इष्टदेव का स्वागत करना चाहिए ॥५६॥

विमर्श - धेनुमुद्रा, महामुद्रा - (द्र० २२. १९) ॥५६॥

स्वागत एवं सुस्वागत मूल मन्त्र के साथ ‘यस्य ... स्वागतं च तें’ पर्यन्त श्लोक पढते हुये निज इष्ट देव का स्वागत करना चाहिये । फिर मूल मन्त्र के साथ - ‘कृतार्थो... सुस्वागतमिदं पुनः’ पर्यन्त (द्र० ५९, ६०) श्लोक पढते हुये इष्टदेव का सुस्वागत करना चाहिए ॥५७-५९॥

पाद्यसमर्पण विधि - श्यामाक, विष्णुक्रान्ता (अप्राजिता), कमल एवं दूर्वा पाद्य जल में मिलाना चाहिए । फिर मूल मन्त्र के साथ ‘यद्‌भक्तिलेशशुद्धाय कल्पये पर्यन्त (द्र० २२.६१) श्लोक पढ के अन्त में नमः जोड कर इष्टदेव के चरण कमलोम में पाद्य समर्पित करना चाहिए ॥६०-६२॥

आचमन विधि - लवंग, जायफल और कंकोल ये तीन वस्तुये, आचमनीय जल में मिलाना चाहिए । फिर मूल मन्त्र पढकर ‘वेदानामपि...शुद्धिहेतवे’ पर्यन्त (द्र० २२. ६३) श्लोक कहकर इष्टदेव को आचमन देना चाहिए ॥६२-६४॥

अर्ध्यदान विधि - अर्घ्यपात्र में दूर्वा, तिल, कुशा का अग्रभाग, सर्षप, यव, पुष्प, अक्षत एवं कुंकुम डालना चाहिए । फिर मूल मन्त्र के साथ ‘तापत्रहरं’ से ‘कल्पयाम्यहम्’ (द्र० २२. ६६) पर्यन्त श्लोक के अन्त में स्वाहा पढकर देवता को शिर पर अर्घ्य देना चाहिए ॥६४-६६॥

मधुपर्कदान विधि - मधुपर्क के पात्र में दही, घी एवं शहद डालना चाहिए फिर मूल मन्त के साथ ‘सर्वकालुष्य...प्रसीद में’ (द्र० २२. ६८) पर्यन्त श्लोक पढकर अन्त में ‘वं’यह सुधा बीज बोलते हुये इष्टदेव के मुख में मधुपर्क समर्पित करना चाहिए ॥६७-६९॥

पुनराचमन विधि - मूल मन्त्र के साथ ‘उच्छिष्टो...पुनराचमनीयकम्’ पर्यन्त (द्र०२२. ६९-७०) श्लोक पढ्कर पुनराचमनीय समर्पित करना चाहिए । इसी प्रकार स्नान, वस्त्र तथा यज्ञोपवीत एवं नैवेद्य के बाद भी पुनराचमनीय देना चाहिए । पाद्य आदि वस्तुओं के अभाव में उनका स्मरण कर मात्र अक्षत चढा देना चाहिए ॥६९-७१॥

तैल उद्वर्तन एवं स्नान विधि - मूल मन्त्र के साथ ‘स्नेहं गृहाण... स्नेहमुतमम्‍’ (द्र० २२. ७२) पर्यन्त श्लोक पढकर सुगन्धित तेल लगाना चाहिए ॥७१-७२॥

फिर हरिद्रा लेपन करने के बाद निज इष्टदेव को मूल मन्त्र के साथ ‘परमानन्द...कल्पयाम्यमीशते’ पर्यन्त (द्र० २२.७३-७४) श्लोक पढकर स्नान करना चाहिए ॥७१-७३॥

अभिषेक विधि - इसके बाद एक हजार अथवा १ सौ अथवा यथा शक्ति शड्‌ख से सुगन्धित जल से मूल मन्त्र बोलते हुये इष्ट देवता का अभिषेक करना चाहिए ॥७४॥

वस्त्र एवं उत्तरीय दान विधि - मूलमन्त्र के साथ ‘मायाचित्र’ से ‘कल्पयाम्यहम्’ पर्यन्त (द्र० २२. ७६) श्लोक पढते हुये वस्त्र प्रदान करना चाहिए । फिर मूल मन्त्र के साथ यमाश्रित्य...उत्तरीयकम्’ पर्यन्त (द्र० २२. ७७) श्लोक पढकर इष्टदेव को उत्तरीय प्रदान करना चाहिए । विष्णु को पीतवर्ण का, सदाशिव को श्वेत वर्ण का, गणपति, सूर्य एवं शक्ति को रक्त वर्ण का वस्त्र प्रिय है । फटा हुआ, मैला, पुराना एवं तैलादि दूषित वस्त्र पूजा में सर्वथा त्याज्य हैं ॥७५-७९॥

उपवीत एवं आभूषण समर्पण विधि - मूलमन्त्र के साथ ‘यस्य...यज्ञसूत्रं प्रकल्पये’ पर्यन्त (द्र० २२. ७९-८०) श्लोक पढकर यज्ञोपवीत चढाना चाहिए । इसके बाद पुनः मूलमन्त्र के साथ ‘स्वभाव...कल्पयाम्यमरार्चितम्’ पर्यन्त (द्र०२२. ८०-८१) श्लोक पढकर इष्टदेव को विविध आभूषण समर्पित करना चाहिए ॥७९-८०॥

लोकमोहन न्यास विधि - मूलमन्त्र से संपुटित मातृकाक्षरों (वर्णमाला) के एक एक अक्षर का देवता के अङ्गो पर न्यास करना चाहिए । इसे लोकमोहन न्यास कहते हैं ॥८१॥

गन्धदान विधि - मूल मन्त्र के साथ ‘परमानन्दसौभाग्य... कृपया परमेश्वर’ पर्यन्त (द्र० २२. ८३) श्लोक बोलते हुये कनिष्ठा अंगुली से पात्र में रखे गए गन्ध ले कर गन्ध समर्पण करना चाहिए । फिर कनिष्ठा और अंगूठ मिलाकर गन्ध मुद्रा प्रदर्शित करनी चाहिए ॥९२-८४॥

पुष्पसमर्पण विधि - मूल मन्त्र के साथ ‘तुरीयवन संभूतं ... गृह्यतामिदमुत्तम्म पर्यन्त’ (द्र० २२. ८५) श्लोक पढकर नानाविध पुष्प समर्पित करना चाहिए । फिर तर्जनी एवं अंगूठे को मिलाकर पुष्प मुद्रा प्रदर्शित करनी चाहिए ॥८४-८५॥

अब तत्त्द्‌देवताओं के पूजन में वर्जित पुष्प कहते हैं - बुद्धिमान साधक विष्णु को अक्षत, आक एवं धतूरा का पुष्प न चढावे । बन्धूक (दुपहरिया), केतकी, कुन्द, मौलिसिरी कुटज(कौरैय), जयपर्ण, मालती, एवं जूही के पुष्प शिव को न चढावे । दूब, धतूरा, मन्दार, हरसिङार , बेल दुर्गा पर नहीं चढाना चाहिए । इसी प्रकार सूर्य को तगर और गणपति को तुलसी पत्र कभी भी न समर्पित करे । श्वेत तथा पीत वर्ण के पुष्प विष्णु को प्रिय है । रक्त वर्ण के पुष्प सूर्य एवं गणेश जी के लिए प्रशस्त माने गये हैं ॥८५-८९॥

अब निषिद्ध पुष्प कहते हैं - गन्धरहित, केश एवं कीट, दूषित, उग्रगन्धि, मलिन, नीच व्यक्ति से संस्पृष्ट आघ्रात, अपने प्रयन्त से विकास को प्राप्त, अशुद्धपात्र में रखे गये, स्नान कर आर्द्र वस्त्र से लाये गये, याचित, सूखे हुये, वासी, काले वर्ण के, पृथ्वी पर नीचे गिरे हुये फूलों को देवता नहीं चढाना चाहिए ॥८९-९१॥

चम्पा और कमल की कलियों को छोडकर अन्य पुष्पों की कलियाँ पूजा में वर्जित हैं । कुरण्टक, कचनार और दोनों प्रकार के बृहती पुष्प भी पूजा में वर्जित माने गये हैम । पुष्प, पत्र फल अधोमुख कर देवता को नहीं चढाना चाहिए । पुष्पाञ्जलि में पर्युषित तथा अघोमुख पुष्पों, का दोष नही माना जाता ॥९१-९३॥

पूजा में ग्राह्य पत्र, तुलसी, मौलसिरी, चम्पा, कमलिनी, बेल, कल्हार (श्वेत कमल), दमनक, महुआ, कुशा, दूर्वा, नागवल्ली, अपामार्ग, विष्णुकान्ता, अगस्त्य तथा आँवला इनके पत्तों से देवताओं की पूजा प्रशस्त कही गई है ॥९३-९४॥

अब प्रशस्त फलों को कहते हैं - जामुन, अनार, नींबू, इमली, बिजौरा, केला, आँवला, वैर, आम तथा कटहल के फलों से देव पूजा करनी चाहिए । तुलसी तो विष्णुप्रिया है, अतः अमलतास का पुष्प तथा तुलसी ये दोनों कभी निर्माल्य नहीं होते ॥९५-९७॥

अब आवरणार्चन का विधान कहते हैं - इस प्रकार पुष्प पूजा करने के बाद षडङ्गपूजा से प्रारम्भ कर दिक्पाल तथा उनके आयुधों की पूजापर्यन्त आवरण पूजा करनी चाहिए । इसके बाद धूप, दीप आदि उपचारों से अपने इष्टदेव का पूजन करना चाहिए । आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य तथा ईशान कोणों में हृदय, शिर, शिखा एवं कवच का पूजन कर अग्रभाग में नेत्र तथा दिशाओं में अस्त्र पूजा करनी चाहिए । अङ्गपूजा करते समय ३ श्वेत वर्ण वाली तथा ३ रक्तवर्ण वाली इस प्रकार कुल ६ अङ्ग देवियों का ध्यान करना चाहिए । ये अङ्ग देवियाँ अत्यन्त मनोहर स्त्री वेष में सुशोभित है और हाथों में वर तथा अभय धारण किये हुये हैं । इसके बाद अपनी अपनी दिशाओं में जाति (वाहन) और आयुधोम के साथ दिक्पालों का पूजन करना चाहिए । इनके पूजा मन्त्रों के प्रारम्भ में तार (ॐ) तथा अपने अपने बीजाक्षरों (लं रं मं क्षं वं यं सं हं ह्रीं आं) को लगाना चाहिए ॥९७-१०१॥

उसकी प्रयोग विधि इस प्रकार है - तार (ॐ), फिर अपना बीजाक्षर, फिर इन्द्राय इत्यादि, फिर ‘अमुकाधिपतये सायुधाय सवाहनाय सपरिवाराय सशक्तिकाय’ के बाद ‘अमुक पदाय’, फिर ‘अमुकपार्षदाय’, इसके अन्त में नमः लगाने से दिक्पालों के पूजा मन्त्र बन जाते है । इन्द्राय के बाद अन्य दिक्पालों की पूजा करते समय उसके स्थान में आग्नेय आदि पद का ऊहापोह कर लेना चाहिए । अमुक पद के स्थान में उनकी जाति बोलनी चाहिए । सुरतेज, प्रेत, रक्ष, जल, प्राण, नक्षत्र, भूत, नाग और लोक ये १० दिक्पालों की जातियाँ है । पार्षदाय के पहले आये अमुक के स्थान पर अपने इष्टदेव का नाम उच्चारन करना चाहिए । इनके बीज, वाहन और आयुध पहले कह आये हैं । निऋति और वरुण के बीज में अनन्त का तथा पूर्व और ईशान के मध्य में ब्रह्मा के पूजन से दश दिक्पाल संख्या पूर्ण हो जाती है ॥१०१-१०८॥
विमर्श - दिक्पालोम की पूजा के मन्त्र - ॐ लं इन्द्राय सुराधिपतये सायुधाय सवाहनाय सपरिवाराय सशक्तिकाय ममामुकेष्टदेवता पार्षदाय नमः ।
ॐ रं अग्नये तेजोधिपतये सायु० सवाह० सपरि० सशक्ति० ममामुकेष्टदेवता पार्षदाय नमः । ॐ मं यमाय प्रेताधिपतये... नमः । ॐ क्षं निऋतये रक्षिधपितये... नमः । ॐ वं वरुणाय जलाधिपतये ... नमः । ॐ यं वायवे प्राणाधिपतये ... नमः । ॐ सं सोमाय नक्षत्रधिपतये... नमः । ॐ हं ईशानाय भूताधिपतये ... नमः । ॐ ह्रीं अनन्तयाय नागाधिपतये... नमः । ॐ आं ब्रह्मणे लोकाधिपतये... नमः ॥९७-१०८॥

प्रत्येक देवता के आवाहनादि प्रत्येक उपचार में जल तथा पुष्प चढाना चाहिए । फिर हाथ धो कर अन्य उपचारों से पूजा करनी चाहिए ॥१०८॥

धूपदान विधि - धूप पात्र में स्थित अङ्गार पर अगर तथ गुग्गुल रख कर ‘फट्’ मन्त से पात्र का प्रक्षालन कर ‘नमः’ मन्त्र से पुष्प समर्पित करना चाहिए । फिर बायें हाथ की तर्जनी से धूप पात्र का स्पर्श करते हुये मूल मन्त्र के साध ‘वनस्पतिरसोपेतो गन्धाढयः सुमनोहरः’ । आघ्रेयः सर्वदेवानां धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम्’ - इस मन्त्र को पढकर ‘साङ्गाय’, ‘सपरिवाराय; ‘अमुक देवताय धूपं सर्मपयामि नमः’ - इस मन्त्र को बोलते हुये शड्‌ख के जल को भूमि पर छोडना चाहिए तथा दाहिने हाथ की तर्जनी और अंगूठे को मिलाकर धूप मुद्रा प्रदर्शित करनी चाहिए । फिर अपने मन्त्र से घण्टा का पूजन करना चाहिए । तदनन्तर धूप देना चाहिए ॥१०९-११३॥

‘जयध्वनिमन्त्रमातः स्वाहा’ - इस दशाक्षर मन्त्र से घण्टा का पूजन करना चाहिए । फिर बायें हाथ से घण्टा बजाते हुये, इष्टदेव की स्तुति करते हुये दाहिने हाथ से देवता की नाभि के पास धूप देनी चाहिए । फिर शड्‌ख का जल तथा पुष्पाञ्जलि देनी चाहिए । दीप दान में भी इसी प्रकार प्रोक्षणादि क्रिया करनी चाहिए ॥११४-११५॥

अब दीपदान में विशेष कहते हैं - बायें हाथ की मध्यमा अंगुलि से दीप स्पर्श करते हुये मूल मन्त्र के साथ ‘सुप्रकाशी महादीपः ... प्रतिगृह्यताम’ पर्यन्त (द्र० २२. ११६-११७) मन्त्र पढकर, पूर्वोक्त धूप मन्त्र के धूप के स्थान पर ‘दीप पद लगाकर ‘साङ्गाय सपरिवाराय ‘अमुक देवतायै दीपं दर्शयामि नमः’ से दीप प्रदर्शित करना चाहिए । तदनन्तर मध्यमा और अंगूठे को मिलाकर दीप-मुद्रा दिखानी चाहिए । देवता के नेत्रों के पास तक दीप को उँचो उठाकर प्रदर्शित करने का विधान है । दीपक में अनेक बत्ती होने पर उनकी संख्या विषम होनी चाहिए । घृत का दीपक दाहिने भाग में तथा तेल का दीपक बायें भाग में स्थापित करना चाहिए । दक्षिण के दीप में सफेद बत्ती तथा बायें भाग के दीपक में रक्त वर्ण की बत्ती लगानी चाहिए । इसमें भी जल प्रक्षेपादि सारि क्रिया धूप की ही तरह करनी चाहिए । इसके बाद नैवेद्य समर्पित करना चाहिए ॥११६-१२०॥

नैवेद्य समर्पण विधि - सुवर्ण आदि पात्र में यथाशक्ति घी के साथ पायस और शर्करादि पदार्थ परोस कर ‘फट्’ मन्त्र से जल द्वारा प्रोक्षण करना चाहिए ॥१२०-१२१॥

फिर चक्रमुद्रा बना कर मूलमन्त्र से अभिमन्त्रित विशेषार्घ्य के जल से अभिमन्त्रित कर वायुबीज (यं) से द्वादश बार जल से पुनः उस नैवेद्य का प्रोक्षण करना चाहिए । इस प्रकार नैवेद्य के दोषों का शोषण कर दहिने हाथ के तलवें पर अग्निबीज (रं) का ध्यान करना चाहिए ॥१२१-१२२॥

फिर उस करतल पर अपना बायाँ हाथ रखना चाहिए । इस मुद्रा को दिखा कर उससे उत्पन्न अग्नि द्वारा नैवेद्य के सारे दोषों को जलाकर, फिर बायीं हथेली में अमृत बीज (वं) का ध्यान करना चाहिए, तथा उस हथेली के पीछे हाथ रखकर, नैवेद्य दिखाकर, उस अमृत बीज से उत्पन्न अमृतधारा से नैवेद्य को आप्लावित करना चाहिये ॥१२३-१२५॥

फिर ८ बार मूल मन्त्र का जप करते हुये, नैवेद्य का स्पर्श कर, धेनुमुद्रा प्रदर्शित कर, गन्ध और पुष्प चढाना चाहिए । इस प्रकार इष्टदेव को पुष्पाञ्जलि समर्पित कर, उनके मुख से निकले हुये तेज का ध्यान कर, बायें अंगूठे से नैवेद्य पात्र का स्पर्श करना चाहिए । अब दाहिने हाथ में जल लेकर, मूल मन्त्र के साथ ‘सत्पात्र सिद्धं ... गृहाण तत्; पर्यन्त (द्र० २२. १२५) श्लोक पढकर ‘साङ्गाय सपरिवाराय अमुकदेवतायै नैवेद्यं निवेदयामि नमः’ - कहकर, भूमि पर जल छोडकर, अंगूठा और अनामिका मिलाकर नैवेद्य मुद्रा प्रदर्शित करनी चाहिए ॥१२५-१२९॥

फिर हाथ में फूल ले कर नैवेद्य को ३ बार ऊपर उठाते हुये ‘निवेदयामि भवते जुषाणेदं हविर्हरे’ इस षोडशाक्षर मन्त्र का उच्चारण करते हुये बायें हाथ से कमल जैसी ग्रास मुद्रा और दाहिने हाथ से प्राण आदि मुद्रायें प्रदर्शित करनी चाहिए ॥१३०-१३१॥

अब प्राणादि मुद्राओं को कहते हैं - कनिष्ठिका, अनामिका एवं अंगूठे को मिलाने से प्रानमुद्रा, तर्जनी मध्यमा एवं अंगूठा मिलाने से अपान मुद्रा, अनामिका, मध्यमा और अंगूठे को मिलाने से उदान मुद्रा, तर्जनी, अनामिका मध्यमा, और अंगूठा को मिलाने से समान मुद्रा बनती है, चतुर्थ्यन्त प्राण आदि (प्राणय, अपानाय, उदानाय, व्यानाय तथा समानाय) के अन्त में स्वाहा तथा प्रारम्भ में प्रणव लगाने से बने मन्त्रों का जप करते हुये प्राणादि मुद्रायें प्रदर्शित करनी चाहिए ॥१३२-१३४॥

फिर पर्दा खींचकर ‘ब्रह्मेशाद्यैः परित ऊरुभिः सूपविष्टै समेतैर्लक्ष्म्याशिञ्जद्वलकरया सादरं वीज्यमानः लीलानर्मप्रहसनमुखैर्व्याप्नुवन्पंक्ति मध्य्म भुड्‌क्ते पात्रेकनकघटिते षड्‌रसं श्रीरमेश । शालेर्भक्त सुपक्वं शिशिरसितं पायसापूपसूप्म लेह्यं पेयं च चोष्यं सितममृतफल्म पूरिकाद्यं सुखाद्यम् आज्य्म प्राज्यं सभोज्यं नयनरुचिकरं राजिकैलामरीचे स्वादीयः शाकराजी परिकरममृताहार जोषञ्जुषस्व’ । इसके बाद पर्दा ऊपर हटा कर ‘समस्त देव देवेश सर्वतृप्तिकरं परम् । अखण्डानन्द संपूर्णं गृहाण जलमुत्तमम्’ इस श्लोक से आचमनीय के लिए जल देना चाहिए ॥१३५-१३७॥


स्थण्डिल (वेदी) पर अग्निस्थापन कर वैश्वदेव क्रिया करनी चाहिए । मूल मन्त्र से अग्नि को देखकर अस्त्र (फट्) मन्त्र से प्रेक्षण एवं कुशाओं से ताडन करना चाहिए (द्र० १. १११-११२) ‘हुम्’ मन्त्र से सेचन कर पूर्ववत् वहाँ अग्नि की स्थापना करनी चाहिए (द्र० १. ११३. १२२-१२४) ॥१३७-१३८॥

उस ‘वैश्वानर’ मन्त्र से उनका पूजन करना चाहिए (द्र० १. १२९) फिर इष्टदेव का आवाहन कर गन्ध एवं पुष्पों से उनका भी पूजन करना चाहिए । फिर महाव्याहृति से होम कर व्यस्त (अलग-अलग) और समस्त (एक साथ) व्याहृतियों से ४ आहुतियाँ देनी चाहिए । इसकी बाद मूल मन्त्र से अन्न की २५ आहुतियाँ देनी चाहिए ॥१३९-१४०॥

फिर व्याहृतियों से होमकर इष्टदेव की मूर्ति में इष्टदेव को नियोजित करना चाहिए फिर अग्नि का विसर्जन कर इष्टदेव को आचमन के लिए जल देना चाहिए ॥१४१॥

इष्टदेव के मुख से निकले हुये तेज को नैवेद्य में संयोजित कर उसका कुछ भाग उच्छिष्ट भोजी को दे देना चाहिए ॥१४२॥

अब तत्त्‌द देवताओम के उच्छिष्ट भोजियों का नाम कहते हैं -
विष्णु के विष्वक्‌सेन, शिव के चण्डेश्वर, रवि के चण्डांशु, गणेश के वक्रतुण्ड और शक्ति के उच्छिष्टचाण्डाली उच्छिष्टभोजी कहे गये हैम ॥१४३-१४४॥

आरती एवं ताम्बूल - इसके बाद साधक को आरती तन्मय होकर ‘बुद्धि सवासना ... तवोपकरणात्मना’ पर्यन्त ४ श्लोक १४६-१४८ पढकर देवाधिदेव की स्तुति करनी चाहिए ॥१४४-१४५॥

स्तुति श्लोकों का अर्थ - हे प्रभो मै बुद्धिरुप दर्पण तथा वासना रुप मङ्गल एवं अपने विचित्र विचित्र मनोवृत्तियों को नृत्यरुप में आप को समर्पित करता हूँ । शब्द रुपी बाजे के साथ विविध ध्वनि रुप गीत, नवीन विकसित पद्‌म रुप छत्र, सुषुम्ना रुप ध्वज आप को तथा अपने पञ्च प्राणोम को देव रुप से आप को समर्पित करता हूँ ॥१४६-१४८॥

अपने अहंकार रुप गज के मन के वेग रुपी रथ को जिसमें इन्द्रियोम के घोडे जुते हुये है जो शब्दादि रुप मार्ग में चलने वाले है जिनमें मन का लगाम, तथा बुद्धि रुप सारथी जुडे हुये है उन्हे भी आप को समर्पित करता हूँ । इसके अतिरिक्त और भी मेरा जो सर्वस्व है उन सभी को उपकरण रुप में आप को समर्पित हूँ ॥१४८-१५०॥

इन श्लोकों से स्तुति करने के पश्चात् साधक तन्मय हो कर मूलमन्त्र का यथाशक्ति जप कर देवता के दाहिने हाथ में विशेषार्घ्य का जल देकर ‘गुह्याति ...त्वयि स्थितिः’ पर्यन्त (द्र० २२. १५२) श्लोक पढकर जप निवेदन करे । फिर पीछे की ओर अर्घ्य देकर शड्‌ख का पूजन करना चाहिए ॥१५१-१५३॥

प्रदक्षिणाविधि - अपने इष्टदेव को दण्डवत् प्रणाम कर उनकी प्रदक्षिणा करनी चाहिए । विष्णु की चार्, शिव की आधी, शक्ति की एक, गणेश की तीन एवं सूर्यनारायण की सात परिक्रमायें सर्वसिद्धिलाभ के लिए करनी चाहिए ॥१५४-१५५॥

इसके बाद स्तुति ब्रह्मर्पण मन्त्र से आत्म निवेदन करना चाहिए । ‘इतः पूर्व्म प्राणबुद्धिदेहधर्माधिकारतः जाग्रत्स्वसुषुप्त्यवस्थासु मनसा वाचा हस्ताभ्यां पद्‌भ्यामुदरेण शिश्ने’ के बाद अनन्तान्वित (ए) से युक्त मेष ()न), फिर ‘यं यत्स्मृतं यदुक्तं तत्सर्व्म ब्रहमर्पण भवतु स्वाहा’, फिर ‘मां मदीयं च सकलं हरये ते समर्पये’ तथा अन्त में तार (ॐ) तथा तत्सत् एवं प्रारम्भ में प्रणव लगाने से ८२ अक्षरों का ब्रह्मर्पण मन्त्र देवता को आत्मसमर्पण करने के लिए कहा गया है ॥१५५-१५९॥

विमर्श - ब्रह्मार्पण मन्त्र का स्वरुप - ॐ इतः पूर्वं प्राणबुद्धिदेह धर्माधिकारतो जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्यवस्थासु मनसा वाचा हस्ताभ्यां पद्‌ब्यामुदरेण शिश्नेन यत्स्मृतं यदुक्तं यत्कृतं तत्सर्वं ब्रह्मार्पणं भवतु स्वाहा मां मदीयं च सकलं हरये ते समर्पये ॐ तत्सत् (८२ अक्षर न होकर ८४ है) ॥१५५-१५९॥

इसके बाद संहारमुद्रा दिखाकर, अपने इष्टदेव को हृदय में स्थापित करे । अन्य देवता के ब्रह्मार्पण में ‘हरये’ के स्थान पर उस देवता का चतुर्थ्यन्त ऊह कर लेना चाहिए ॥१६०॥

इष्टदेव का पूजन करने के बाद ब्रह्म यज्ञ (वेदाध्ययन) करना चाहिए । फिर योगक्षेम (व्यावसायिक एवं घर के कार्य) करने के बाद मध्याहन में स्नान करना चाहिए ॥१६१॥

फिर पूर्वोक्त रीति से स्मार्त्त एवं तान्त्रिक (स्नान द्र० १.३) सन्ध्या एवं तर्पण बलि-वैश्वदेव आदि सारा कार्य करना चाहिए । तदनन्तर ब्राह्मणों को भोजन करा कर देवतानिवेदित प्रसाद का स्वय्म भोजन करना चाहिए । तत्पश्चात् आचमनादि एवं देव स्मरण कर पुराणों का पाठ एवं श्रवण करना चाहिए ॥१६२-१६३॥

अब सायं पूजन का विधान करते है -
सन्ध्याकाल का हवन संपादन कर पुनः पूर्वोक्त विधि से इष्टदेव का पूजन कर, थोडा भोजन कर, देवता का स्मरण करे । फिर शुद्ध शय्या पर सो जाना चाहिए ॥१६४॥

जो व्यक्ति इस प्रकार धर्माचरण करते हुये त्रिकाल देव पूजन करता है वह कभी भी शत्रुओं एवं दुःखों से पीडित नहीं होता उसके इष्टदेव स्वयम उसकी रक्षा करते है ॥१६५॥

त्रिकाल पूजा में असमर्थ होने पर व्यक्ति को मात्र प्रातः एवं साय्म द्विकाल ही देवता का पूजन करना चाहिए । संक्रान्ति आदि पर्वो पर विशेष रुप से त्रिकाल पूजन करना चाहिए । असमर्थ व्यक्ति को दशोपचार अथवा पञ्चोपचार से पूजन करना चाहिए । अथवा सर्वथा अशक्त होने पर उपचार सामग्री दूसरों दो देकर उसी से पूजा करा लेनी चाहिए । यदि उपचार देने में भी असमर्थ हो तो एकाग्रचित्त हो दूसरे के द्वार पर होने वाली पूजा स्वयम देखना चाहिए ॥१६६-१६९॥

विमर्श - दशोपचार - पाद्यार्घ्यचमनीय्म च मधुपर्काचमनस्तथा ।
गन्धादयो नैवेद्यान्ता उपचारा दशात्मकाः ॥

पञ्चोपचार - गन्धपुष्पं च धूप्म च दीपं नैवेद्यमेव च ।
प्रदद्यात्परमेशानि पूजा पञ्चोपचारिका ॥१६६-१६८॥

साधानाभेद और लक्षण - अभाविनी, त्रासी दौर्बोधी, सौतिकी तथा आतुरी इन भेदों से साधना के ५ भेद कहे गये है । अब इनके लक्षण कहते हैं -

१-२पूजा के उपकरणों के अभाव में मन से अथवा जल मात्र से जो पूजा की है उसे अभाविनी साधना कहते हैं । त्रस्त व्यक्ति तत्कालोपलब्ध अथवा मानसोपचारों से जो पूजा करता है उसे त्रासी साधना कहते हैं । ऐसी साधना सब प्रकार की सिद्धि देती है ॥१६९-१७१॥

३. बालक,वृद्ध, स्त्री, मुर्ख एवं अनजान व्यक्तियोम के द्वारा उनकी जानकारी के अनुसार यथाशक्ति की जाने वाली पूजा दौर्बौधी साधना कही जाती है । सूतक में पडा हुआ व्यक्ति स्नान कर केवल मानसिक सन्ध्या करे ॥१७१-१७२॥

४. सकाम होने पर मानसिक पूजन करे, निष्काम होने पर सव कार्य करे - यह सौतिकी साधना है । रोगी व्यक्ति को स्नान एवं पूजा दोनों वर्जित है । वह देवता की मूर्ति अथवा सूर्यमण्डल का दर्शन कर एक बार मूल मन्त्र का जप कर केवल पुष्प चढा देवे ॥१७३-१७४॥

५. फिर रोग की समाप्ति हाने पर स्नान कर पश्चात् गुरु एवं ब्राह्मणों की पूजा कर ‘पूजा विच्छेद का दोष मुझे न लगे’ ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए । उन गुरुजनों से आशीर्वाद ग्रहण कर पूर्वोक्त विधि से अपने इष्टदेव का यजन करना चाहिए । इस साधना को आतुरी साधना कहते हैं । ये पाँचों साधनायें ब्रह्मार्षि नारद के द्वारा कही गई है ॥१७५-१७६॥

पूजा की सारी सामग्री स्वय्म एकत्रित कर जो व्यक्ति तन्मय होकर अपने इष्टदेव की पूजा करता है उसे संपूर्ण फल प्राप्त होता है । अन्य व्यक्तियों द्वारा सड्‌गृहित उपचारों से पूजा करने पर साधक को मात्र माधा फल प्राप्त होता है । इसलिए पूजा की सारी सामग्री का संभार स्वयं ला कर पूजा करनी चाहिए ॥१७७-१७८॥

क्योंकि देवपूजा न करने पर नरक की प्राप्ति होती है अतः व्यक्ति को देवता के प्रति आस्था एवं श्रद्धा रख कर देव पूजन ही चाहिए ॥१७९॥

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Last Updated : May 07, 2012

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