अरित्र
इसके बाद अब साधकों को शीघ्र सिद्धि की प्राप्ति के लिए मन्त्र शोधन का प्रकार कहता हूँ -
पूर्वोक्त सिद्धदि चक्रों में साधक को अपने नाम के प्रथमाक्षर से मन्त्र से प्रथमाक्षर पर्यन्त गणना कर साधन में प्रवृत्त होना चाहिए । मन्त्र शोधन की प्रक्रिया में जन्म नक्षत्र के अनुसार नाम अथवा प्रसिद्ध नाम ग्राह्य होता है ॥१-२॥
अब उसके लिए अकथह नामक चक्र कहते हैं -
५ ऊर्ध्वाधर और फिर ५ तिर्यक् रेखा खींचने से १६ कोष्ठक बनते हैं । फिर इनमें १, ३, ११, ९, २, ४, १२, १०, ६, ८, १६, १४, ५, ७, १५, तथा १३, संख्या वाले कोष्ठक में क्रमशः समस्त मातृका वर्णो को भर देना चाहिए ॥३-५॥
इस चक्र में नाम के प्रथम अक्षर से मन्त्र से प्रथम अक्षर पर्यन्त क्रमशः सिद्ध, साध्य, सुसिद्ध, और अरि नामक योग जानना चाहिए ॥५॥
जिन चार कोष्ठकों में साधक के नाम का प्रथम अक्षर हो उन्हें सिद्धचतुष्टय, फिर प्रदक्षिण क्रम से उस नाम के के अगले वाले द्वितीय चार कोष्ठकों को साध्य यचतुष्ट्य उसके आगे वाले तृतीय चार कोष्ठकों को सुसिद्धचतुष्टय, तदनन्तर अन्तिम चार कोष्ठकों को विद्वान् शत्रुचतुष्ठय नामक कोष्ठ कहते हैं ॥६-७॥
(१) साधक एवं मन्त्र इन दोनं के नाम का प्रथमाक्षर यदि एक ही कोष्ठक में हो तो सिद्धिसिद्ध योग कहलाता है । साधक के नाम के प्रथमाक्षर वाले कोष्ठक से दूसरे कोष्ठक में मन्त्राक्षर पडने पर सिद्ध साध्य, उससे तीसरे कोष्ठक में होने पर सिद्धसुसिद्ध तथा उससे चौथे कोष्ठक में मन्त्राद्याक्षर होने पर सिद्धारि योग कहा जाता है ॥७-८॥
नाम के अक्षर वाले ४ कोष्ठकों से अग्रिम ४ कोष्ठक पर्यन्त मन्त्र का प्रथमाक्षर हो तो जिस कोष्ठक में नामाक्षर हो उसकी पंक्ति वाले कोष्ठक से प्रारम्भ कर पूर्ववत् गणना करनी चाहिए ॥९-१०॥
(२) प्रथम कोष्ठक में मन्त्राक्षर होने पर साध्यसिद्ध, द्वितीय कोष्ठक में होने पर साध्यसाध्य, तृतीय में होने पर साध्युसृसिद्ध और चतुर्थ कोष्ठक में मन्त्राक्षर होने पर पर उस मन्त्र को साध्यशत्रु जानना चाहिए । इसी प्रकार यदि तीसरे चौथे कोष्ठकों में मन्त्राद्यक्षर पडे तो पूर्वोक्त विधि से ही विद्वानों को गणना कर विचार करना चाहिए ॥१०-११॥
(३) तीसरे चारों कोष्ठकों में मन्त्राद्याक्षर होने पर क्रमशः सुसिद्धसिद्ध, सुसिद्धासाध्य, सुसिद्धसुसिद्ध तथा सुसिद्ध शत्रु योग कहा जाता है (४) इसी प्रकार चौथे चारों कोष्ठों में मन्त्राद्याक्षर होने पर वही क्रमशः अरिसिद्ध, अरिसाध्य य, अरिसुसिद्ध एवं अरि-अरि योग होता है ॥१२॥
चारों प्रकार के योगो के फल - (१) इसके पश्चात मन्त्र सिद्धि के विषय में इस प्रकार विचार करना चाहिए । सिद्धसिद्ध मन्त्र यथोक्त काल में, सिद्धसाध्य मन्त्र उससे दूने काल में, सिद्धसुसिद्ध मन्त्र निर्धारित संख्या से आधे जप करने पर सिद्ध जो जाता है । किन्तु सिद्धारि योग साधक के समस्त बन्धु बान्धवों का विनाश कर देता है ॥१३-१४॥
(२) साध्यसिद्ध मन्त्र दूना जप करने पर सिद्ध जो जाता है । साध्यसाध्य निरर्थक होता है । साध्यसुसिद्ध भी दूने जप से सिद्ध होता है । किन्तु साध्यारि मन्त्र योग साधक के अपने समस्त गोत्रों का विनाश करने वाला होता है ॥१४-१५॥
(३) सुसिद्धसिद्ध आधे जप से, सुसिद्ध साध्य दूने जप से, सुसिद्ध एवं सुसिद्ध मन्त्र साधक के दीक्षाग्रहण मात्र से सिद्ध हो जाता है किन्तुइ सुसिद्धारि मन्त्र साधक के समस्त कुटुम्बियों का विनाशक होता है ॥१५-१६॥
(४) अरिसिद्ध मन्त्र पुत्र का, अरिसाध्य कन्या का, अरिसुसिद्ध पत्नी को तथा अरि-अरि मन्त्र का योग साधक का ही विनाश कर देता है ॥१६-१७॥
विमर्श - उदाहरणतः यदि देवदत्त को ‘ऐं’ आद्याक्षर वाले किसी मन्त्र को ग्रहण करना है । उक्त कोष्ठ में देवदत्त नाम का प्रथम अक्षर द ३ संख्या के कोष्ठक में तथा मन्त्र का आद्य अक्षर ऐं १४ संख्या के कोष्ठक में पडता है जो गणना करने पर सुसिद्ध चतुष्टय के चतुर्थ कोष्ठक में पडने से सुसिद्धारि योग है, अतः त्याज्य है ॥१७॥
अब अकथह चक्र में ही सिद्धदिशोधन की दूसरी विधि कहते हैं -
साधक का नाम तथा गुह्यमाण मन्त्र के एक-एक अक्षरों को लिख कर जब तक मन्त्र समाप्त्न हो सिद्धादि गणना चाहिए । यदि मन्त्राक्षरों के पहले नाम के वर्ण समाप्त हो जाँय तो पुनः मन्त्र पर्यन्त नाम लिख लेना चाहिए ॥१७-१८॥
इस प्रकार संशोधन करने पर साध्य एवं शत्रु अधिक हो तथा सिद्ध एवं सुसिद्ध कम हो तो साधक के लिए मन्त्र अशुभ होता है । इसके विपरीत यदि सिद्ध एवं सुसिद्ध अधिक हो तथा साध्य एवं अरि कम हो तो वह मन्त्र सुभावह होता है ऐसा कुछ तत्त्वविदों का मत है । प्राचीन तन्त्र के आचार्यो ने इसे स्वीकार भी किया है ॥१९-२०॥
विमर्श - उदाहरणतः यदि साधक देवदत्त गणेश के ‘वक्रतुण्डाय हुम्’ इस मन्त्र को ग्रहण करना चाहतो है तो देवदत्त के नाम के अक्षर - द व द त त, तथा मन्त्र के अक्षर - व क र ड य ह - हुए । यहाँ साधक नाम के प्रथम अक्षर ‘द’ ३ कोष्ठक में है उससे मन्त्र का प्रथम अक्षर ‘व’ से मन्त्र का दूसरा अक्षर ‘क’ सिद्ध है । तीसरे अक्षर ‘द’ से मन्त्र का तीसरा अक्षर ‘र’ साध्य है । चौथे वर्ण ‘त’ से मन्त्र का चौथा अक्षर ‘त’ सिद्ध है, तथा पाँचवो वर्ण ‘त’ से ‘ड’ सुसिद्ध है । पुनः ‘द’ से ‘य’ सिद्ध तथा ‘व’ से ‘ह’ भी सिद्ध है ।
इस प्रका नाम एवं मन्त्र के वर्णो से करने पर साध्य एवं अरि की संख्या दो तथा सिद्ध एवं सुसिद्धों की संख्या ५ (अर्थात् ३ अधिक)) होने से उक्त मन्त्र देवदत्त के लिए शुभदायक होगा ॥१७-२०॥
अब अकडम चक्र कहते हैं - अकडम अथवा अन्य प्रकार से भी सिद्धादिकों के शोधन का विधान है ।
द्वादश दल चक्र में ऋ ऋ लृ लृ इन नपुंसक स्वरों को छोडकर अकार से हकार पर्यन्त मातृका वर्णों को पूर्वोक्त विधि से प्रदक्षिण क्रम से (द्र० २४. ४-५) लिखना चाहिए ॥२१॥
इस चक्र के नाम के प्रथम अक्षर से मन्त्र के प्रथम अक्षर तक सिद्ध, साध्य, सुसिद्ध और अरि इस क्र्म से गणना करनी चाहिए तथा उसका फल इस प्रका कहना चाहिए - सिद्ध मन्त्र निर्धारित काल में, साध्य मन्त्र अधिक जप एवं होम करने से तथा सुसिद्ध मन्त्र दीक्षा मात्र से सिद्ध हो जाता है । किन्तु अरि मन्त्र साधक को खा जाता है ।
नाम के प्रथमाक्षर वाले कोष्ठ से १, ५, ९, कोष्ठक में पडने वाला मन्त्राद्याक्षर सिद्ध है २, ६, १०वें कोष्ठक में पडने वाला साध्य है ३, ७, ११वें कोष्ठक में पडने वाला सुसिद्ध तथा ४, ८, १२वें कोष्ठक में पडने वाला मन्त्राद्याक्षर अरि होता है ॥२२-२४॥
विमर्श - उदाहरणतः देवदत्त नामक साधक को यदि यदि आदि में एकार वर्ण वाले किसी मन्त्र की दीकाहा लेनी है, तो उक्त चक्र में देवदत्त के नाम के प्रथ अक्षर ‘द’ से मन्त्राक्षर ‘ऐं’ तीसरे स्थान में पडता है इसलिए देवदत्त के लिए यह मन्त्र सुसिद्ध कोटि में आ गया, अतः ग्राह्य है ॥२०-२४॥
अब सिद्धादिशोधन की तीसरी विधि कहते है -
सिद्धादिशोधन का एक और भी प्रकार है - चार कोष्ठकों में अकारादि वर्णों को बराबर लिख लेना चाहिए ।फिर नम के प्रथमाक्षर से मन्त्र के प्रथमाक्षर तक सिद्ध, साध्य, सुसिद्ध और अरि योगों की गणना करनी चाहिए ॥२५-२६॥
विमर्श - पूर्वोक्त उदाहरण के अनुसार देवदत्त को एकारादि मन्त्र ग्रहन करना है । तो उक्त चक्र में देवदत्त के प्रथमाक्षर ‘द’ से मन्त्राक्षर ‘ए’ तीसरे स्थान में पडता है । नियमानुसार देवदत्त के लिए यह मन्त्र सुसिद्ध हुआ जो दीक्षा ग्रहण मात्र से सिद्ध हो जायगा ॥२५-२६॥
अब सिद्धादिशोधन की चौथी विधि कहते हैं -
विद्वान् साधक को नाम एवं मन्त्र के वर्णों को जोडकर ४, का भाग देना चाहिए । १ शेष होने पर मन्त्र सिद्ध, २ शेष होने पर साध्य, ३ शेष होने पर सुसिद्ध तथा ४ शेष पर शत्रु समझना चाहिए ॥२६-२७॥
विमर्श - उदाहरणतः यदि देवदत्त को १६ अक्षरों वाले वागीश्वरी मन्त्र - ‘ऐं नमो भगवति वद वद वाग्देवि स्वाहा’ को ग्रहण करना हैं । यहाँ देवदत्त के नाम के ४ अक्षर तथा मन्त्र के १६ अक्षरों को जोडने से २० संख्या हुई, जिसमें ४ का भाग दिया तो शेष ४ बचता हैं अतः उक्त नियमानुसार यह मन्त्र देवदत्त के लिए शत्रुयोग कारक होने से अग्राहय है ॥२७॥
यहॉ तक सिद्धादिशोधन का प्रकार कहा गया । नक्षत्र शोधन की विधि कहते हैं ॥२८॥
अश्विनी अ से लेकर रेवती तक के नक्षत्रों के २७ कोष्ठकों में अकारादि, २, १, ३, ४, १, १, २, १, २, २, १, २, २, २, १, २, ३, १, ३, १, १, १, २, २, २, एवं ३ तथा रेवती में क्ष अं अः व्यवस्थित रुप से लिखने चाहिए ॥२८-३०॥
तदनन्तर अपने नाम नक्षत्र से प्रारम्भ कर अग्रिम नक्षत्र क्रमशः जन्म, सम्पत्, विपद्, क्षेम, प्रत्यरि, साधक, वध, मित्र एवं परममित्र संज्ञक समझना चाहिए । इनमें विपद् प्रत्यरि एवं वध योग सर्वथा त्याज्य हैं । शेष नक्षत्र उत्तम कहे गए हैं ॥३१-३२॥
विमर्श - उदाहरण स्वरुप यदि देवदत्त को ‘ऐं नमः’ इत्यादि मन्त्र ग्रहण करना है तो नक्षत्रशोधन की रीति से देवदत्त का नक्षत्र अनुराधा तथा मन्त्र का नक्षत्र आर्द्रा हुआ । अनुराधा से उन नक्षत्रों की गणना करने पर जन्म संज्ञक नक्षत्र हुआ जो सर्वथा ग्रहण करने योग्य हैं ॥२८-३२॥
अब सिद्धिदायक ऋण धन शुद्धि का प्रकार कहते हैं -
७ तिरछी एवं १२ खडी रेखा लिखनी चाहिए, जिससे ६६ कोष्ठक निष्पन्न होते है । इसकी प्रथम पंक्ति में १४, २७, २, १२, १५, ६, ४, ३, ५, ८, अंक तथा दूसरी पंक्ति में ५ दीर्घ स्वरों (आ ई ऊ ऋ एवं लृ) स्वरों को छोडकर शेष ११ स्वरों को तीसरी पंक्ति में ककार से टकार पर्यन्त ११ व्यञ्जन वर्ण चतुर्थ पंक्ति में ठकार से फकार तक ११ वर्ण पञ्जम पंक्ति में बकार से हकार तक ११ वर्ण तथा षष्ठ पंक्ति में १०, १, ७, ४, ८, ३, ७, ५, ४, ६, एवं पुनः ३ अंक के लेखन का प्रकार कहा गया है ॥३२-३८॥
इसके बाद मन्त्र के व्यञ्जनो और स्वरों को अलग-अलग कर लेना चाहिए । फिर जिन जिन कोष्ठकों में जो जो अक्षर आवें उनके, ऊपर वाले कोष्ठकों का अंक ग्रहण करना चाहिए । मन्त्र में आये हुये ५ दीर्घ स्वरों के स्थान से ह्स्व स्वरों के अंक ग्रहण करना चाहिए ॥३८-४०॥
इस प्रकार सभी अक्षरों (स्वर व्यञ्जनों) के अंको को जोड्कार ८ का भाग देना चाहिए । जो शेष बचता है उसे ‘मन्त्र की राशि’ कहते हैं । नाम के स्वर और व्यञ्जनो को इसी प्रकार पृथक् कर उसके नीचे वाली पंक्ति के अंक ग्रहण कर दोनोम का योग करना चाहिए । इस योग में ८ का भाग देने से जो शेष बचे वह ‘नाम राशि’ कही गई है ॥४०-४१॥
इसमें अधिक राशि वाला ऋणी तथा कम राशि वाला धनी कहा जाता है जब मन्त्र ऋणी हो तो उसे ग्रहण करना चाहिए, अन्यथा नहीं ॥४१-४२॥
विमर्श - उदाहरणतः देवदत्त को यदि ‘क्ली गो वल्लभाय स्वाहा’ यह अष्टाक्षर मन्त्र ग्रहण करना है तो नामक्षर एवं अंक - द ७, ए ३, व७, अ १०, द७, अ१०, त्८, अ १० कुल संख्याओं का योग ७० हुआ । इसमें ८ का भाग देने पर शेष ६ नामराशि हुई । मन्त्राक्षर एवं अंक - क १४ ल ६, ई २७, म् २, ग् २, ओ ३, व्, १४, अ १४, ल् ६, ल ६, भ् २७, आ १४, य् १२, अ १४, स् ८, व ४, आ १४ ह ८, आ १४, ल्कुल योग २१० हुआ । इसमें ८ का भाग देने से २ बचे जो नाम राशि की अपेक्षा कम होने से धनी योग में आता है । फलतः अग्राह्य है ॥३२-४२॥
इस प्रकार ऋण धन शोधन की एक विधि बतलाई गई अब दूसरी विधि कहता हूँ -
नाम के प्रथम अक्षर से मन्त्र के प्रथम अक्षर वर्ण माला के क्रम से गणना करे । जो संख्या आवे, उसमें तीन का गुणा कर, सात का भाग देवे, जो शेष बचे वह ‘नाम राशि’ कही जाती है ॥४३-४४॥
इसी प्रकार मन्त्र के प्रथम अक्षर से वर्णमाला के क्रम से गणना कर जितनी संख्या आवे, उसमें भी ३ का गुणा कर ७ का भाग देवे, जो शेष आवे वह ‘मन्त्र राशि’ कही जाती है । पूर्वोक्त नियमानुसार अधिक राशि वाला ऋणी’ तथा अलपराशि वाला ‘धनी’ कहा जाता है ॥४३-४६॥
विमर्श - उदाहरणतः देवदत्त को यदि ‘क्लीं गोवल्लभाय स्वाहा’ यह अष्टाक्षर मन्त्र ग्रहण करना है । देवदत्त के आद्याक्षर ‘द’ से ‘क’ तक वर्ण माला के गणना करने पर ३७ संख्या हुई । उसमें ३ का गुणा किया, तो १११ हुआ । उसमें ७ का भाग दिया तो ६ शेष हुआ जो ‘नाम राशि’ हुई । इसी प्रकार मन्त्राद्याक्षर ‘क’ से ‘द’ तक गणना करने पर १८ हुआ । उसमें ३ का गुणाकर ७ का भाग दिया, जो शेश ५ बचे वो ‘मन्त्र राशि’ की संख्या हुई, जो नाम राशि की अपेक्षा स्वल्प होने से धनी योग में आता है । फलतः अग्राह्य हैं ॥४३-४५॥
अब ऋण धन के प्रकार से संशोधन की तीसरी विधि कहते हैं -
मन्त्र के स्वर एवं व्यञ्जनों को पृथक्-पृथक् कर उनका योग करे । फिर उसमें २ का गुणा कर, गुणनफल में साधक के नामाक्षरों के भी स्वर व्यञ्जन को पृथक् कर, उसमें जोड देना चाहिए । इस योगफल में ८ का भाग देने से जो शेश बचे वह ‘मन्त्र राशि’ हुई ॥४६-४७॥
इसी प्रकार नाम के स्वर व्यञ्जनों को पृथक्-पृथक् कर, उनके योग में २ का गुणाकर गुणनफल में मन्त्र के स्वरु व्यञ्जनोम को पृथक्-पृथक् उस उसमें जोड देना चाहिए । फिर योगफल में ८ का भाग देने से जो शेष बचे वह ‘नाम राशि’ हुई ॥४८॥
यहाँ पर भी ऋणिता तथा धनिता की पूर्वोक्त नियमानुसार ग्रहण करना चाहिए । उक्त तीनोम प्रकारों में से किसी एक रीति से ऋण धन का शोधन करना चाहिए ॥४९॥
विमर्श - उदाहरणतः देवदत्त के नाम के स्वर और व्यञ्जनों का योग (द ए व द आ द अ त् त् अ) ९ है, तदनन्तर उसका दुगुना १५ है, इस में मन्त्राक्षर का योग (क् ल् ई अं ग् ओं व् अ ल् ल् अ भ् आ य् अ स् व आ ह् आ ) २० जोडने पर कुल योग ३८ हुआ । इसमें ८ का भाग दिया । ६ शेष रहा । यह ‘नाम राशि’ हुई ।
इसी प्रकार मन्त्र के स्वर व्यञ्जनों का योग २० है । उसका द्विगुणित ४० है । उसमें नामाक्षरों का योग ९ जोडे देने पर ४९ हुआ । इसमें ८ का भाग देने से १ शेष रहा । यह ‘मन्त्र राशि’ हुई, जो नाम राशि की अपेक्षा स्वल्प होने से धानिक योग में आता है अतः अग्राह्य है ॥४६-४९॥
मन्त्रों के ऋणी और धनी होने की फलश्रुति करते हैं -
यदि पूर्वजन्म में उपासना के समय पापाधिक्य होने के कारण साधक (उपासक) की आयु समाप्त हो गई और मन्त्र अपना फल न दे सका, तो वह उपासक का ऋणी ही रहा । अतः इस जन्म में वह मन्त्र ग्रहण करने पर साधक को अभीष्ट फल देने के लिए उन्मुख है ॥५०-५१॥
यदि नाम राशि और मन्त्र राशि के अंग समान हो तो भी उपासक को उसकी उपासना का फल मिलेगा । इतना अवश्य है कि धनी मन्त्र अत्यधिक साधना से फलोन्मुख होगा ॥५२॥
अब मन्त्र संशोधन की एक और विधि का प्रतिपादन करते हैं -
षट्कोण चक्र में पूर्व से आरम्भ कर नपुंसक (ऋ ऋ लृ लृ) स्वरों को छोडकर अकार से हकार पर्यन्त एक एक वर्णों को क्रमशः लिखना चाहिए । तदनन्तर नाम के प्रथम अक्षर से मन्त्र के प्रथम अक्षर तक इस प्रकार संशोधन करना चाहिए ॥५३-५४॥
नाम के प्रथमाक्षर से मन्त्राक्षर पहले कोष्ठ में हो तो संपत्ति का लाभ, दूसरे में हो तो धन हानि, तीसरे में हो तो धन लाभ, चौथे में हो तो बन्धुओं से कलह, पाँचवे में हो तो आधिव्याधि, छठें कोष्ठक में हो तो सर्वस्वनाश होता है ॥५५-५६॥
मन्त्रवेत्ता गुरु को चाहिए कि वह इस प्रकार से संशोधित करके ही अपने शिष्य कोइ मन्त्र दे ॥५६॥
अब मन्त्र शोधन के अपवाद का प्रतिवादन करते हैं -
अब जिन जिन मन्त्रों के लिए सिद्धादिशोधन की आवश्यकता नहीं है उन्हे कहता हूँ - एकाक्षर, त्र्यक्षर, पञ्चाक्षर, षडक्षर, सप्ताक्षर, नवाक्षर, एकादशाक्षर, द्वात्रिंशदक्षर, अष्टाक्षर, हंस मन्त्र, कूट मन्त्र, वेदोक्त मन्त्र, प्रणव, स्वप्न-प्राप्त मन्त्र, स्त्रीद्वारा प्राप्त, माला मन्त्र, नरसिंह मन्त्र, प्रसाद (हौं) रवि मन्त्र, वाराह मन्त्र, मातृका मन्त्र, परा (ह्रीं) त्रिपुरा काम मन्त्र, आज्ञासिद्ध, गरुडमन्त्र बौध एवं जै मन्त्र इन सभी मन्त्रों में सिद्धादि शोधन नहीं किया जाता ॥५७-६०॥
इनके अतिरिक्त अन्य सभी मन्त्रों में सिध्दादिशोधन करना चाहिए । विद्या मन्त्र, स्तव, सूक्त तथा अरि मन्त्र हों तो उन्हें निश्चित रुप में त्याग देना चाहिए ॥६१॥
अब अरिमन्त्र के त्याग का प्रकार कहते हैं -
यदि अज्ञान वश अरि मन्त्र दीक्षा ले ई गई तो उसके त्याग की विधि कहता हूँ -
शुभ मुहूर्त में सर्वतोभद्रमण्डल पर कलश स्थापित करना चाहिए तथा विलोम मन्त्र का जप करते हुये उसमें पवित्र जल भरना चाहिए । फिर मन्त्र देवता का आवाहन कर आवरण सहित उनका पूजन करना चाहिए ॥६२-६४॥
उसके सामने स्थण्डिल बनाकर विधिवत् अग्नि की प्रतिष्ठा कर विलोम मन्त्र से घी की १०० आहुतियाँ देना चाहिए । फिर खीर एवं घी मिश्रित अन्न से दिक्पालोम को बलि देकर पुनः पूजन कर - ‘आनुकूल्य ... भक्तिरस्तुते’ (द्र० २४. ६६-६८) पर्यन्त मन्त्र पढकर प्रार्थना करनी चाहिए ॥६५-६८॥
इस प्रकार की प्रार्थना कर ताडपत्र पर कपूर, अगर एवं चन्दन से विलोम मन्त्र लिख कर, उसका पूजन कर, अपने शिर पर बाँध कर, कुम्भ जल से स्नान करना चाहिए । तत्पश्चात् कुम्भ में पुनः जल भर कर उसके भीतर मन्त्र लिखा हुआ ताड्पत्र डाल कर, कुम्भ का पूजन कर, उसे नदी या तालाब में डाल देना चाहिए । इसके बाद ब्राह्मणों को भोजन करा कर साधक अरिमन्त्र की बाधा से मुक्त हो जाता है ॥६८-७१॥
अनेक बार शोधन करने पर भी यदि शुद्ध मन्त्र न मिले तो मन्त्र के पहले माया (ह्रीं) काम (क्लीं) तथा श्रीं (श्रीं) बीज लगाकर ग्रहण करने से मन्त्र का दोष समाप्त हो जाता है । अथवा सदोष मन्त्र को प्रणव से संपुटित करने मात्र से वह शुद्ध हो जाता है । अथवा क्रमपूर्वक एवं व्युत्क्रमपूर्वक वर्णमाला से जप करने पर मन्त्र का संशोधन हो जाता है । जिस व्यक्ति की जिस मन्त्र में विशेष निष्ठा हो वह मन्त्र उसके लिए श्रेष्ठतम होता है । ऐसा मन्त्र अरिवर्ग में होने पर भी साधक को सिद्धिदायक होता है ॥७२-७४॥
अब सभी मन्त्रों के तीन प्रकार के भेदों का निरुपण करते हैं -
आगमवेत्ता विद्वानोम ने १. बीजमन्त्र, २. मन्त्र-मन्त्र तथा ३. माला मन्त्र - मन्त्रों के ये तीन भेद बतलाए हैं । दश अक्षर पर्यन्त मन्त्र ‘बीज मन्त्र’ , ११ से २० अक्षरों के ‘मन्त्र मन्त्र’ तथा बीस अक्षरों से अधिक मन्त्रों की ‘माला मन्त्र’ की संज्ञा है ॥७५-७६॥
अब विविध अवस्थाओम में सिद्धिदायक मन्त्र कहते हैं - उपासक को बाल्यावस्था में ‘बीज मन्त्र’ सिद्ध होते है । युवावस्था में ‘मन्त्र मन्त्र’ सिद्ध होते हैं, तह्ता वृद्धावस्था में ‘माला मन्त्र’ सिद्ध होते हैं । उक्त अवस्थाओम से भिन्न अवस्थाओं में अपनी अभीष्ट सिद्धि के लिए साधक को तत्तद् बीज मन्त्रादि मन्त्रों का द्विगुणित जप करना चाहिए ॥७७-७८॥
अब कुलाकुल का विचार कहते हैं - यतः सारी प्रकृति पञ्चभूतात्मक है उनसे मातृकायें उत्पन्न हुई फिर उससे ५० वर्णोम की उत्पत्ति हुई । अतः वे भी पञ्चभूतमय है । वर्ग के तृतीयाक्षर (गजडदब) कर्ण (उ ऊ), ओ ल एवं ळ वर्ण भूसंज्ञक हैं । नासा (ऋ ऋ), औ वर्ग के चतुर्थ अक्षर (घ, झ, ध, ध, भ), व एवं स वर्ण जलसंज्ञक हैं । नेत्र (इ ई) वर्गों के द्वितीय अक्षर ख,छ, ठ, थ, फ) ए, र एवं क्ष - ये वर्ण अग्निसंज्ञक हैं ॥७९-८१॥
वर्गों के प्रथम अक्षर (क, च, ट, त, प), अनन्त अ झिण्टीश, ए और आ ये वर्णो वायवीय माने गये हैं ।
वर्ग के अन्तिम ड ञ, ण, न म और लृ लृ श ह एवं बिन्दु अं, ये वर्ण आकाशात्मक है यतः विसर्ग प्रकृति की आत्मा है अतः सर्वभूतात्मक है । प्राण (विसर्ग) को छोडकर अन्य वर्ण कण्ठ आदि स्थानोम को स्पर्श करते हुये ध्वनि के रुप निकलते हैं ॥८२-८३॥
पृथ्वी आदि तत्त्वों के अपने अपने वर्ण स्वकुल संज्ञक कहे गये हैं । पृथ्वी तत्त्व वाले वर्णों के लिए जल तत्त्व वाले मित्र हैं अग्नितत्त्व वाले वर्ण शत्रु तहा वायुतत्त्व वाले वर्ण उदासीन कहे गये हैं । जल तत्त्व वाले वर्णो के पृथ्वी तत्त्व वाल वर्ण मित्र, अग्नितत्त्व, वर्ण शत्रु तथा वायुतत्त्व वाले वर्ण उदासीन कहे गये हैं ॥८४-८५॥
तेज तत्त्व वाले वर्णों के वायुतत्त्व वर्ण मिर, जल तत्त्व वाले वर्ण शत्रु तथा पृथ्वी तत्त्व वाले वर्ण उदासीन हैं । वायुतत्त्व वाले वर्णोम के तेज तत्त्व वाल वर्ण मित्र, पृथ्वी तत्त्व वाल वर्ण शत्रु तथा जल तत्त्व वाले वर्ण उदासीन कहे गये हैं । पृथ्वी आदि चारों तत्त्वो के आकाश तत्त्व वाले वर्ण सदैव मित्र होते हैं । मन्त्र एवं साधक के नाम के जो आद्य अक्षर हों उनसे स्वकुल आदि का विचार दीक्षा देने वाले गुरु को करना चाहिए ॥८६-८९॥
अपने कुल का मन्त्र ग्रहण करने से अभीष्ट सिद्धि होती है और मित्र कुल के मन्त्र लेने से भी सिद्धि होती है । शत्रुकुल का मन्त्र लेने से रोग एवं मृत्यु होती है । किन्तु उदासीन कुल का मन्त्र लेने से कुछ भी नहीं होता । अतः उदासीन एवं शत्रु कुल के मन्त्रों को दूर से ही परित्यक्त कर देना चाहिए ॥९०-९१॥
इष्ट सिद्धि चाहने वाले व्यक्ति को स्वकुल एवं मित्रकुल के ही मन्त्र ग्रहण करना चाहिए । इस सम्बन्ध में विशेष यह है कि नाम एवं मन्त्र का एक नक्षत्र होने पर भी स्वकुल मन्त्र कहा जाता है ॥९१-९२॥
अब पुरुष, स्त्री, और नपुंसक मन्त्रों को कहते हैं -
विद्वानों ने पुरुष, स्त्री, और नपुंसक भेद से ३ प्रकार के मन्त्र कहे हैं । जिन मन्त्रों के अन्त में ‘वषट्’ अथवा ‘फट्’ हों वे पुरुष मन्त्र हैं । ‘वौषट्’ और ‘स्वाहा’ अन्त वाले मन्त्र् स्त्री, तथा ‘हुं’ एवं ‘नमः’ वाले मन्त्र नपुंसक मन्त्र कहे गये हैं ॥९३-९४॥
वश्य, उच्चाटन एवं स्तम्भन में पुरुष मन्त्र, क्षुद्रकर्म एवं रोग विनाश में स्त्री मन्त्र शीघ्र सिद्धि प्रदान करते है और अभिचार प्रयोग में नपुंसक मन्त्र सिद्धिदायक कहे गये हैं । इस प्रकार मन्त्र के तीन ही भेद होते है ॥९४-९५॥
नक्षत्र शोधन में जन्म नक्षत्र का तथा अन्य शोधनोम मे जन्म काल से पुकारे जाने वाले प्रसिद्ध नाम के नक्षत्र लेना चाहिए । इसी प्रकार अच्छे प्रकरों से संशोधित मन्त्र शिष्य को अभीष्ट सिद्धि प्रदान करते हैं ॥९५-९६॥
मन्त्रों के छिन्न, शक्तिहीनता आदि ५० दोष (‘शारदातिलक’ के द्वितीय पटल में) कहे गये हैं । इन दोषों से सातों मन्त्र व्याप्त है । अतः इन दोषों की शान्ति के लिए वक्ष्यमाण दश संस्कार करना चाहिए ॥९७-९८॥
विमर्श - द्रष्टव्य शारदा तिलक पटल २ (९७॥
(१) जनन संस्कार - भोजपत्र पर गोरोचन आदि से समत्रिभुज बनाना चाहिए । फिर पश्चिम के (वारुण) कोण से प्रारम्भ कर उसे ७ समान भागों में प्रविभक्त करना चाहिए । इसी प्रकार ईशान एवं आग्नेय कोणों से भी सात सात समान भाग करना चाहिए । इस प्रकार उनके मध्य में छः छः रेखाओं के खींचने पर ४९ योनियाँ बनती है ॥९८-९९॥
इस चक्र में ईशान कोण से प्रारम्भ कर पश्चिम तक अकार से हकार तक समस्त ४९ वर्णों को क्रमशः लिखकर उस पर मातृका देवी का आवाहन कर, चन्दनादि से उनकी पूजा करनी चाहिए । फिर उसी से मन्त्र के एक एक वर्णो का उद्धार करना चाहिए अर्थात् वहाँ से अन्य पत्र पर लिखे । इसे मन्त्र का जनन संस्कार कहते हैं ।
(२) हंस मन्त्र से संपुटित मूल मन्त्र का एक हजार जप करना ‘दीपन संस्कार’ कहा जाता है । यथा - ‘हंसः रामाय नमः सोहम्’ ॥१००-१०१॥
(३) बोधन संस्कार -
नभ (ह) वहिन् (र्) एवं इन्दु (अनुस्वार) सहित अर्घीश (ऊ) अर्थात् ‘हुं’ इस मन्त्र से संपुटित मूल मन्त्र का ५ हजार जप करने से ‘बोधन संस्कार’ होता हैम । यथा - ‘ह्रुं रामाय नमः ह्रुं ॥१०२॥
(४) ताडन संस्कार -
अस्त्र मन्त्र (फट्) से संपुटित मूल मन्त्र का एक हजार जप करने से ताडन संस्कार होता हैं । यथा - ‘फट् रामाय नमः फट्’ ॥१०३॥
(५) अब अभिषेक संस्कार कहते हैं -
वाग् (ऐं), हंस (हं सः ) तथा तार (ॐ) इस मन्त्र द्वारा १हजार बार अभिमन्त्रित जल द्वारा पुनः इसी मन्त्र से मूल मन्त्र को अभिषिक्त करना अभिषेक संस्कार कहा जाता है ॥१०४॥
विमर्श - ‘ऐं हंसः ॐ’ मन्त्र् से १ हजार बार अभिमन्त्रित किये गये जल से ताडपत्र पर उल्लिखित मूल मो अश्वत्थ पत्र से पुनः ‘ऐं हंसः ॐ’ मन्त्र से अभिषिक्त करने को अभिषेक संस्कार कहते है ॥१०४॥
(६) विमलीकरण संस्कार -
वहिन ल(र), तार (ॐ) सहित हरि (त्) अर्थात् (त्रों) इसके अनत में ‘वषट्’ तता आदि में ध्रुव (ॐ) लगाने से निष्पन्न (ॐ त्रों वषट्) इस मन्त्र से संपुटित मूल मन्त्र का एक हजाअर बार जप करने से मन्त्र का विमलीकरण संस्कार हो जाता है । यथा - ॐ त्रों वषट् रामाय नमः वषट् त्रों आं ।१०५॥
(७) जीवन संस्कार के लिए स्वधा सहित वषट् मन्त्र से संपुटित मूल मन्त्र का एक हजार बार जप करने से मन्त्र का जीवन संस्कार हो जाता है । यथा - स्वधा वषट् रामाय नमः वषट् स्वधा ।
(८) दूध घी एवं जल से मूल मन्त्र द्वारा एक सौ बार तर्पण करने से मन्त्र का तर्पण संस्कार हो जाता है । तर्पण संस्कार के लिए गोरोचन आदि से ताडपत्र पर मूल मन्त्र लिखकर पश्चात् तर्पण करने का विधान है ।
(९) गोपन संस्कार - माया बीज (ह्रीं) से संपुटित मूल मन्त्र का एक हजार बार जप करने से मन्त्र क गोपन संस्कार हो जाता है । यथा - ह्रीं रामाय नमः ह्रीं ॥१०५-१०७॥
(१०) बाला के तृतीय बीज मन्त्र के प्रारम्भ में गगन (ह्) अर्थात् ह् सौः से संपुटित मूलमन्त्र का एक हजार बार जप करने से मन्त्र का आप्यायन संस्कार हो जाता है । यहाँ तक मन्त्र के छिन्नत्वादि ५० दोषों को दूर करने के लिए १० संस्कार कहे गये ॥१०७-१०८॥
अब कलियुग में सिद्धिल्प्रद मन्त्रों का आख्यान करते हैं -
नृसिंह का त्र्यक्षर, एकाक्षर, एवं अनुष्टुप् मन्त्र, (कार्तवीर्य) अर्जुन के एकाक्षर और अनुष्टुप् दो मन्त्र, हयग्रीव, मन्त्र, चिन्तामणि मन्त्र, क्षेत्रपाल, भैरव यक्षराज (कुबेर) गोपाल, गणपति, चेटकायक्षिणी, मातंगी सुन्दरी, श्यामा, तारा, कर्ण पिशाचिनी, शबरी, एकजटा, वामाकाली, नीलसरस्वती त्रिपुरा और कालरात्रि के मन्त्र कलियुग में अभीष्टफलदायक माने गये है ॥११०-११२॥
विमर्श - नृसिंह का एकाक्षर मन्त्र - क्ष्रौं । अक्षर मन्त्र - ह्रीं क्ष्रौं ह्रीं । नृसिंह का अनुष्टुप मन्त्र - उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुख । नृसिंह भीषणं भद्रं मृत्युं मृत्युं नमाम्यहम् । कार्तवीर्यार्जुन का एकाक्षर मन्त्र - फ्रों । कार्तवीर्यार्जुन का अनुष्टप् मन्त्र - कार्तवीर्याजुनी नाम राज बाहुसहस्त्रवान् । तस्य स्मरभ्नमात्रेण गतं नष्टं च लभ्यते - हयग्रीव का एकाक्षर मन्त्र - ह्सूं । हयग्रीव का अनुष्टुप् मन्त्र - उद्गिरद् प्रणवोद्गीथ सर्ववागीश्वरेश्वर । सर्वदेवमय्ताचिन्तय सर्वं बोधय बोधय । चिन्तामणि मन्त्र - क्ष्म्न्यों ॥११०-११२॥
विप्रादि त्रिवर्णों का दीक्षोचित मन्त्र - अघोर, दक्षिणामूर्ति, उमामहेश्वर, (ॐ ह्रीं ह्रौं नमः शिवाय) हयग्रीव, वराह, लक्ष्मीनारायण मन्त्र, प्रणवादि ४ वर्ण वाले अग्नि मन्त्र, सूर्य के मन्त्र, प्रणव सहित गणपति एवं हरिद्रा गणपति, अष्टाक्षर सूर्य मन्त्र, षडक्षर राम मन्त्र, प्रणवादि मन्त्रराज नृसिंह, मन्त्र, प्रणव तथा वैदिक मन्त्र से सभी मन्त्र ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन त्रैवर्णिकों को ही देना चाहिए शूद्रों को नही ॥११३-११५॥
सुदर्शन, पाशुपत, आग्नेयास्त्र और नृसिंह के मन्त्र ब्राह्मण और क्षत्रिय केवल दो वर्णों को ही देना चाहिए । अन्य वर्णों को कभी नही देना चाहिए ॥११६-११७॥
चारों वर्णों के लिए देय मन्त्र -
छिन्नमस्ता मातंगी, त्रिपुरा, कालिका, शिव, लघुश्यामा, कालरात्रि, गोपाज, जानकीपति राम, उग्रतारा और भैरव के मन्त्र चारों वर्णों को देना चाहिए । स्त्रियों के लिए ये मन्त्र विशेषरुपेण सिद्धिदायक कहे गये हैं ॥११७-११८॥
देवता, गुरु तथा द्विजपूजा में श्रद्धावान् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और स्त्रियाँ ये सभी अधिकारिणी ॥११९-१२०॥
अब विविध वर्णों के लिए देय बीज मन्त्र कहते हैं -
माया (ह्रीं) काम (क्लीं), श्री (श्रीं) तथा वाक् (ऐं) बीज ब्राह्मणों को ही देने का विधान है । माया बीज (ह्रीं) को छोडकर शेष तीन बीज (क्लीं, श्रीं और ऐं) - ये क्षत्रियों को तथा श्रीं एवं ऐं बीज वैश्योम को, वाग्, बीज (ऐं) शूद्रों को तथा वर्म (हुं), वषट् और ‘नमः’ अन्यों (प्रतिलोमज अनुलोमज वर्णों) दो देना चाहिए ॥१२०-१२१॥
अब सर्वसाधारण कार्यों में विहित द्रव्योम को कहता हूँ -
फलों के होम से सुख प्राप्ति, पलाश के होम से इष्टसिद्धि तथा कनेर के होम से स्त्रियाँ वशीभूत हो जाती हैं । गुडूची (गुरुच) के होम से रोगों का नाश, दूर्वा के होम से बुद्धि की वृद्धि तथा गुड के होम से सामान्य जन वश में हो जाते है ॥१२२-१२३॥
बिल्वपत्र, घृत, कमल, गुलाब तथा चम्पा के फूलों का होम करने से लक्ष्मी मिलती है । सिद्धार्थ (सफेद सरसोम) तथा चमेली के होम से कीर्ति बढती है । जाति के पुष्पों के होम से वाक्सिद्धि प्राप्त होती है ॥१२४॥
व्रीहि (धान), जौ, प्लक्ष (पाकर), उदुम्बर (गूलर) और पीपल की समिधा तथा त्रिमधु (शर्करा, घृत, मधु) सहित तिलों के होम से अभीष्ट संपत्ति प्राप्त होती है ॥१२५॥
पलाश, कालमर्द, (लिसोङ्गा), कृतमाल, (राजवृक्ष) तथा गुलाब के होम से क्रमशः ब्राह्मण आदि वर्ण वशीभूत हो जाते हैं । कर्पूर आदि सुगन्धित द्रव्योम के होम से सौभाग्य समृद्धि होती है ॥१२६॥
कोदों के होम से शत्रुओं को व्याधि तथा बहेडा के होम से शत्रुओं को पागलपन का रोग, मोर के पंखों के होम से शत्रुओं को भय, उडद के होम से शत्रुओं को मूकता, शाल्मली समिधाओं के होम से शत्रुओं का शीघ्र विनाश होता है ॥१२७-१२८॥
विशेष क्या कहें विधि पूर्वक उपासना से इष्टदेव अभीष्ट फल प्रदान करते हैं ॥१२८॥
यदि पूर्व जन्म के प्रतिबन्धक पापों से एक बार पुरश्चरण करने पर मन्त्र सिद्ध न हों तो दूसरी बार भी पुरश्चरण करना चाहिए ॥१२९॥
अब संक्षिप्त पुरश्चरण विधि कहते हैं -
चन्द्रग्रहण अथवा सूर्यग्रहण के समय समुद्र्गामिनी गंगा आदि नदियोम के जल में खडा होकर स्पर्शकाल से मोक्षकाल पर्यन्त जप कर उसके दशांश का होम तथा होम के दशांश संख्या में ब्राह्मणों को विविध प्रकार का भोजन कराने से मन्त्र सिद्धि हो जाती है । निरन्तर जप करने वाले साधकों को शीघ्रातिशीघ्र मन्त्र सिद्ध हो जाते है ॥१३०-१३१॥