अरित्र
अब हम तारा के मन्त्रों का वर्णन करते हैं । जो सर्वथा सिद्धि प्रदान करने वाले हैं, और जिन्हें गुरुपदेश से जान कर मनुष्य इस लोक में कृतार्थ हो जाते हैं ॥१॥
सरात्रीश आप्यायनी (ॐ), अग्नीन्दुशान्तियुत् वियत् (ह्रीं) पावक (रृ), गोविन्द (ई), चन्द्रमा (अनुस्वार) के साथ हरि (त) अर्थात् त्रीं, अर्घीश (उ), शशाङग अनुस्वार के साथ ख (ह) अर्थात् हुँ, तदनन्तर फट् लगाने से तारा का पञ्चाक्षर मन्त्र निष्पन्न हो जाता है ।
यदि इस मन्त्र के आदि में आदि बीज (ॐ) हटा दिया जाय तो यह एक जटा नामक मन्त्र हो जाता है - ऐसा पूर्वाचार्यो ने कहा है ॥२-३॥
इसी प्रकार आदि बीज ॐ और अन्त बीज फट् से रहित कर देने पर यह नीलसरवस्ती का मन्त्र हो जाता है ॥४॥
विमर्श - (१) तारा पञ्चाक्षर मन्त्रोद्धार - ॐ ह्रीं त्री हुं फट् ।
(२) एक जटा - ह्रीं त्रीं हुं फट ।
(३) नीलसरस्वती - ह्रीं त्रीं हुं ।
वधू (स्त्रीं) बीज कहलाने की कथा इस प्रकार है -
तारावर्ण के अनुसार वसिष्ठ ऋषि ने बहुत समय तक इस विद्या की उपासना की, किन्तु उन्हें सिद्धि नहीं मिली । परिणामतः क्रोधित होकर उन्होंने देवी को शाप दे दिया और तब से यह विद्या फल देने में अक्षम हो गयी ।
बाद में शान्त होने पर ऋषिप्रवर ने इसका शापोद्धार प्राप्त किया । शापोद्धार करते समय ताराबीज (त्रीं) में सकार का योग कर ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं फट्’ इस विद्या (मन्त्र) से साधना करने का निर्देश दिया । तब से यह विद्या वधू के समान यशस्विनी हो गयी तथा तारा का यह बीज (त्रीं) ‘वधू बीज’
कहलाने लगा ।
नीलतन्त्र के अनुसार सप्रणव मायाबीज, वधूबीज, कूर्चबीज, एवं अस्त्र वाला यह (ॐ ह्रीं स्त्रीं हूँ फट्) पञ्चाक्षर दिव्य एवं अति पवित्र है । यह विद्या साधकों को बुद्धि, ज्ञान, शक्ति, जय एवं श्री देने वाली तथा भय, मोह एवं अपमृत्यु का निवारण करने वाली मानी गयी है ।
महीधर के अनुसार तारा के मन्त्र उपर्युक्त हैं - किन्तु, एकताराकल्प, विश्वसारतन्त्र तथा नीलतन्त्र आदि ग्रन्थों में उक्त मन्त्रों में तारा बीज (त्रीं) के स्थान पर वधू बीज (स्त्रीं) का निर्देश किया गया है ॥४॥
ऊपर कहे गये तारा के सभी मन्त्रों के अक्षोभ्य ऋषि हैं, बृहती छन्द हैं और तारा देवता हैं । पञ्चाक्षर मन्त्र के द्वितीय एवं चतुर्थ वर्ण क्रमशः (ह्रीं तथा हुं) सिद्धिदायक बीज एवं शक्तिदायक माने गये हैं अथवा क्रोध (हुं) बीज, तथा अस्त्रमन्त्र (फट्) शक्ति है - ऐसा भी कुछ आचार्य मानते हैं । षड्दीर्घयुक्त द्वितीय मन्त्र (ह्रीं) से षडङ्गन्यास किया जाता है । इसकी विधि पूर्वोक्त है ॥४-६॥
विमर्श - विनियोग का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॐ अस्य श्रीतारांमन्त्रस्य अक्षोभ्यऋषिः बृहतीछन्दः तारादेवता ह्रीं बीजं हुं शक्तिः आत्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थ तारामन्त्रजपे विनियोगः ।
क्योंकि यह देवी उग्र विपत्ति से साधक का उद्धार करती हैं, अतः इन्हें ‘उग्रतारा’ कहा गया हैं। यह राजद्वार, राजसभा, राजकार्य, विवाद, संग्राम एवं धूत आदि में साधक को विजय प्राप्त कराती हैं । अतः इस प्रकार के प्रयोगों में इन मन्त्रों का विनियोग करते समय ‘हुं’ बीज तथा फट् शक्ति माना जाता है क्योंकि वीरतन्त्र के अनुसार बीज एवं शक्ति चतुर्वर्गफल प्राप्ति के लिए भी विनियुक्त होते हैं ।
ऋष्यादिन्यास - ‘ॐ अक्षोभ्यऋषये नमः शिरसि ॐ बृहतीछन्दसे नमः मुखे,
ॐ तारादेवतायै नमः हृदि, ॐ ह्रीं (हूँ) बीजाय नमः गुह्ये,
ॐ हूँ (फट्) शक्तये नमः पादयोः ॐ स्त्रीं कीलकाय नमः सर्वाङ्गे
कराङ्गन्यास - ॐ ह्रां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः, ॐ तर्जनीभ्या नमः,
ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः, ॐ ह्रैं अनकामिकाभ्यां नमः,
ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः ॐ ह्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः,
इसी प्रकार हृदयादिन्यास भी कर लेना चाहिए । मन्त्र का विनियोग पूवर्वत् है । एकजटा तथा नीलसरस्वती के लिए इस प्रकार का न्यास सिद्धसारस्वत तन्त्र के अनुसार करना चाहिए -
ॐ ह्रां एकजटायै अगुंष्ठाभ्यां नमः, ॐ ह्रीं तारिण्यै तर्जनीभ्यां नमः,
ॐ ह्रूं वज्रोदके मध्यमाभ्यां नमः, ॐ ह्रैं उग्रजटे अनामिकाभ्यां नमः,
ॐ ह्रौं महाव्रतिसरे कनिष्ठाभ्यां नमः, ॐ पिङ्गोग्रैकजटे करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः
नीलसरस्वती के लिए न्यास इस प्रकार है -
ॐ ह्रां अखिलवाग्रुपिण्यै अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।
ॐ ह्रीं अखिलवाग्रुपिण्यै तर्जनीभ्यां नमः ।
ॐ हूँ अखिलवग्रुपिण्यै मध्यमाभ्यां नमः ।
ॐ हैं अखिलवग्रुपिण्यै अनामिकाभ्यां नमः ।
ॐ ह्रौं अखिलवाग्रुपिण्यै कनिष्ठाभ्यां नमः ।
ॐ ह्रः अखिलवाग्रुपिण्यै करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
इसी प्रकार हृदयादिन्यास करना चाहिए ।
वीरतन्त्र के मतानुसार काली एवं तारा का स्वरुप एक होने से तारा मन्त्र के जप में कालीन्यास में कहे गये वर्णन्यास का प्रयोग करना आवश्यक है । इसके लिए देखिए कालीन्यासोक्तवर्णन्यास (द्र० ३. ७) ॥४-६॥
साधक को देवत्त्व भाव की सिद्धि के लिए षोढान्यास करना चाहिए । इस न्यास की विधि अपने भक्त शिष्य को ही बतलानी चाहिए । दुष्ट को कदापि नहीं बतलानी चाहिए ॥७॥
प्रथम रुद्रन्यास की विधि कहते हैं - माया बीज (ह्रीं), तृतीय बीज (त्रीं या स्त्रीं), तदनन्तर क्रोध बीज (हुं) के आगे मातृका वर्ण क्रमशः अं आं इत्यादि को लगाकर पुनः चतुर्थ्यन्त श्रीकण्ठादि रुद्रों के नाम, तदनन्तर नमः लगाकर पूर्वोक्त कहे गये (१.८९-९१) मातृकान्यास के स्थानों में यह न्यास करना चाहिए ।
इस न्यास के समय शवासन पर बैठी हुई विविध आभूषणों से युक्त, नीले वर्ण की कान्ति से युक्त, तीन नेत्रों वाली अर्ध चन्द्रकला धारण किए हुये तारा देवी का ध्यान करते रहना चाहिए ॥९-१०॥
विमर्श - छः प्रकार के न्यास को षोढान्यास कहते हैं जो इस प्रकार हैं - १ - रुद्रन्यास, २ - ग्रहन्यास, ३ - लोकपालन्यास, ४ - शिवशक्तिन्यास, ५ - तारादिन्यास तथा ६ - पीठन्यास । तारार्णव तन्त्र के अनुसार सुफल मनोरथ वाले साधक को तारा का षोढान्यास अवश्य करना चाहिए । तन्त्रशास्त्र में यह न्यास अत्यन्त गोपनीय ओर चमत्कारकारी फल देने वाला माना जाता है ।
रुद्रन्यास की विधि - रुद्रन्यास में देवी का ध्यान इस प्रकार है -
नीलवर्णा त्रिनयनां शवासनसमायुताम् ।
बिभ्रतीं विविधां भूषामर्धेन्दुशेखरां वराम् ॥
‘तारा देवी का नीलवर्ण है, उनके तीन नेत्र हैं, वह शवासन पर विराजमान हैं और विविध अलङ्कारों से विभूषित तथा चन्द्रकला से सुशोभित है’ ऐसी देवी का ध्यान करते हुए निम्न विधि से न्यास करना चाहिए, यथा -
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं अं श्रीकण्ठेशाय नमः, ललाटे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं आं अनन्तेशाय नमः, मुखवृत्ते ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं इं सूक्ष्मेशाय नमः, दक्षनेत्रं ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं ई त्रिमूर्तीशाय नमः, वामनेत्रे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं उं अमरेशाय नमः, दक्षकर्णे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं ऊं अर्घीशाय नमः, वामकर्णे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं ऋं भारभूतीशाय नमः दक्षनासायाम् ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं ऋं तिथीशाय नमः, वामनासायाम् ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं लृं स्थाण्वीशाय नमः, दक्षगण्डे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं लृं हरेशाय नमः वामगण्डे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं एं झिण्डीशाय नमः, ऊर्ध्वोष्ठे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं ऐं भौतिकेशाय नमः, अधरोष्ठे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं ओं सद्योजाताय नमः, ऊर्ध्वदन्तपंक्तौ ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं औं अनुग्रहेशाय नमः, अधोदन्तपंक्तौ ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं अं अक्रूरेशाय नमः, ब्रह्मरन्ध्रे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं अः महासेनेशाय नमः, मुखे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं कं क्रोधीशाय नमः, दक्षबाहुमूले ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं खं चण्डेशाय - नमः, दक्षकूर्परे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं गं पञ्चान्तकेशाय नमः, दक्षमणिबन्धे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं घं शिवोत्तमेशाय नमः, दक्षकराङ्गुलिमूले ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं डः एकरुद्राय नमः, दक्षकराङ्गुल्यग्रे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं चं कूर्मेशाय नमः, वामबाहुमूले ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं छं एकनेत्रेशाय नमः, वामकूर्परे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं जं चतुराननेशाय नमः, वाममणिबन्धे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं झं अजेशाय नमः, वामकराङ्गुलिमूले ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं ञं सर्वेशाय नमः, वामकराङ्गुल्यग्रे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं टं सोमेशाय नमः, दक्षोरुमूले ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं ठं लाङ्गलीशाय नमः, दक्षजानुमूले ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं डं दारुकेशाय नमः, दक्षपादमूलसन्धौ ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं ढं अर्घनारीश्वराय नमः, दक्षपादाङ्गुलिमूले ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं णं उमाकान्तेशाय नमः, दक्षपादाङ्गुल्यग्रे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं तं आषाढीशाय नमः, वामोरुमूले ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं थं दण्डीशाय नमः, वामजघांमूले ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं दं अन्त्रीशाय नमः, वामपादमूलसन्धौ ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं धं मीनेशाय नमः, वामपादाङ्गुलिमूले ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं नं मेषेनाय नमः, वामपादाङुल्यग्रे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं पं लोहितेशाय नमः, दक्षपार्श्वे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं फं शिखीशाय नमः, वामपार्श्वे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं बं छगलण्डेशाय नमः, पृष्ठे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं भं द्विरण्डेशाय नमः, नाभौ ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं मं महाकालेशाय नमः, उदरे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं यं बालीशाय नमः, वक्षे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं रं भुजङ्गेशाय नमः, दक्षस्कन्धे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं लं पिनाकीशाय नमः, ककुदि ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं वं खड्गीशाय नमः, वामस्कन्दे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं शं बकेशाय नमः, हृदयादिदक्षहस्ते ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं षं श्वेतेशाय नमः, हृदयादिवामहस्ते ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं सं भृग्वीशाय नमः, हृदयादिदक्षपादे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं हं नकुलीशाय नमः, हृदयादिवामपादे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं लं शिवेशाय नमः, हृदादि उदरे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं क्षं सम्वर्तकाय नमः, हृदयादिमुखे ।
॥ इति रुद्रन्यासः ॥९-१०॥
अब ग्रहन्यास की विधि कहते हैं - उपर्युक्त प्रकार से देवी का स्मरण करते हुये इस प्रकार ग्रहन्यास करना चाहिए - उक्त तीनों बीजों के साथ स्वर, फिर रक्तवर्ण सूर्य उच्चारण कर हृदय में, इसी प्रकार य वर्ग के साथ शुक्लवर्ण सोम का उच्चारण कर दोंनों भ्रू में, कवर्ग के साथ रक्तवर्ण मङ्गल का उच्चारण कर तीनों नेत्रों में, चवर्ग के साथ श्यामवर्ण बुध का उच्चरण कर वक्षःस्थल में, टवर्ग के साथ पीतवर्ण बृहस्पति बोलकर कण्ठकूप में, तवर्ग के साथ श्वेतवर्ण भार्गव को घण्टिका में, पवर्ग के साथ नीलवर्ण शनैशर का उच्चारण कर नाभि में, शवर्ग के साथ धूम्रवर्ण राहु बोलकर मुख में तथा लवर्ग के साथ, धूम्रवर्ण केतु बोलकर पुनः नाभि में न्यास करना चाहिए ॥१०-१५॥
ग्रहन्यास विधि - ग्रहन्यास में सभी वर्णों के प्रारम्भ में ह्रीं त्रीं हूँ इन तीन बीजाक्षरों को लगा कर न्यास करना चाहिए ॥१५॥
विमर्श - १ - ॐ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ऋं लं लृं ऐं ऐं ओं औं अं अः रक्तवर्ण सूर्यं हृदि न्यसामि ।
२ - ॐ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं यं रं लं वं शुक्लवर्णं सोमं भ्रुवद्वये न्यसामि ।
३ - ॐ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं कं खं गं घं डं रक्तवर्ण मंगलं लोचनत्रये न्यसामि ।
४ - ॐ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं चं छं जं झं ञं श्यामवर्णं बुघं वक्षस्थले न्यसामि ।
५ - ॐ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं टं ठं डं ढं णं पीतवर्णं बृहस्पति कण्ठकूपे न्यसामि ।
६ - ॐ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं तं थं दं धं नं श्वेतवरं भार्गवं घण्टिकायाम् ।
७ - ॐ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं पं फं बं भं मं नीलवर्णं शनैश्चरं नाभिदेशे न्यासामि ।
८ - ॐ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं शं षं सं हं धूम्रवर्णं राहुं मुखे न्यासामि ।
९ - ॐ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं लं क्षं धूम्रवर्णं केतुं नाभौं न्यसामि ।
॥ इति ग्रहन्यासः ॥१०-१५॥
तदनन्तर उक्त प्रकार से भगवती का ध्यान करते हुये प्रयत्न पूर्वक तृतीय लोकपालन्यास करना चाहिए । सर्वसिद्धियाँ प्राप्त करने के लिए आरम्भ में माया बीजादि तीन बीज, तदनन्तर हस्व दीर्घ स्वरों का क्रमशः न्यास अपने मस्तक के ललाटादि प्रथम दो स्थानो और दो दिशाओं में, तदनन्तर आठ दिशाओं में आठ कवर्गादि वर्णो का न्यास करना चाहिए ॥१६-१७॥
लोकपालन्यास विधि -
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं अं इं उं ऋं लृं अं ओं अं ललाटपूर्वे इन्द्राय नमः ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं आं इं ऊं ऋं लृं ऐं औं अः ललाटाग्नेय्यां अग्नये नमः ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं कं खं गं घं डं ललाटदक्षिणे यमाय नमः ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं चं छं जं झं ञं लालाटनैऋत्यां निऋतये नमः ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं टं ठं डं ढं णं ललाटपश्चिमायां वरुणाय नमः ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं तं थं दं धं नं ललाट वायव्यां वायवे नमः ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं पं फं बं भं मं ललाटोत्तरस्यां सोमाय नमः ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं यं रं लं वं ललाटैशान्यां ईशानाय नमः ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं शं षं सं हं ललाटोर्ध्वायां ब्रह्मणे नमः ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं लं क्षं ललाटाधोदिशि अनन्ताय नमः ।
॥ इति लोकपालन्यासः तृतीयः ॥१६-१७॥
लोकपालन्यास के अनन्तर शिव शक्ति संज्ञक चतुर्थ न्यास करना चाहिए । प्रारम्भ में पूर्वोक्त तीनों बीजों को लगाकर फिर चक्रस्थ वर्ण, फिर अपनी अपनी शक्तितयों के साध ६ शिवों को क्रमशः मूलाधार आदि ६ चक्रों में न्यस्त करना चाहिए । उसकी विधि इस प्रकार है - चार दल वाले मूलाधार चक्र पर वक्ररादि (व श ष स) चार वर्णो के साथ डाकिनी सहित द्वितीयान्त १. ‘ब्रह्मदेव’ को न्यस्त करना चाहिए । तदनन्तर लिङ्गस्थान स्थि ६ दलों वाले स्वाधिष्ठान चक्र में बकरादि ६ वर्णो से राकिनी सहित द्वितीयान्त २. ‘विष्णु’ का तदनन्तर नाभि देश में स्थित दशदल वाले मणिपूर चक्र में डकार से लेकर फकारान्त वर्ण पर्यन्त लाकिनी सहित द्वितीयान्त ३. ‘रुद्र’ का, तदनन्तर हृदयस्थ द्वादश दल वाले अनाहतचक्र में क से ठ पर्यन्त वर्णो का तथा काकिनी सहित द्वितीयान्त ४. ‘ईश्वर’ का न्यास करना चाहिए । इसी प्रकार कण्ठ स्थान में स्थित १६ दल वाले विशुद्ध चक्र में १६ स्वरों के साथ शाकिनी सहित द्वितीयान्त ५. ‘सदाशिव’ का तथा भ्रूमध्य स्थित दो दल वाले आज्ञाचक्र में ‘ल’ ‘क्ष’ वर्णो के साथ हाकिनी सहित द्वितीयान्त ६. परशिव ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं न्यास करना चाहिए ॥१९-२४॥
विमर्श - इस न्यास की विधि इस प्रकार है -
ॐ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं वं शं षं सं डाकिनीसहितब्रह्यणे नमः मूलाधारे ।
ॐ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं बं भं मं यं रं लं राकिनीसहितविष्णवे नमः स्वाधिष्ठाने ।
ॐ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुँ डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं लाकिनीसहितरुद्राअय नमः मणिपूरके ।
ॐ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं काकिनीसहिताय ईश्वराय नमः अनाहते ।
ॐ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ऋं लृं लृं अं ऐं ओं औं अं अः शाकिनीसहितसदाशिवाय नमः विशुद्धाख्ये ।
ॐ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं लं (हं) क्षं हाकिनसहितपरशिवाय नमः आज्ञाचक्रे ।
॥ इति शिवशक्तिन्यासः चतुर्थः ॥१९-२४॥
तत्पश्चात् अपनी अभीष्ट सिद्धि के निमित्त तारादि पञ्चम न्यास करना चाहिए । पूर्वोक्त तीन बीजों के अनन्तर दो दो स्वर, तदनन्तर क्रमशः उसके आगे एक एक वर्ग, तदनन्तर तारा आदि अष्ट मूर्तियों को क्रमशः ब्रह्यरन्ध्रः, ललाट, भ्रूमध्य, कण्ठ, हृदय, नाभि, लिङ्गमूल एवं मूलाधार में न्यास करना चाहिए । १. तारा, २. उग्रा, ३. महोग्रा, ४. वज्रा, ५. काली, ६. सरस्वती, ७. कामेश्वरी तथा ८. चामुण्डा - ये तारा आदि अष्ट मूर्त्तियाँ कही गई हैं ॥२५-२८॥
विमर्श - इसकी विधि इस प्रकार है -
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं अं आं कं खं गं घं ङं तारायै नमः, ब्रह्मरन्ध्रे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं इं ईं चं छं जं झं अं उग्रायै नमः, ललाटे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं उं ऊं टं ठं डं ढं णं महोग्रायै नमः, भ्रमूध्ये ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं ऋं ऋं तं थं दे घं नं वज्रायै नमः, कण्ठदेशे ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं लृं लृं पं फं बं भं मं महाकाल्यै नमः, हृदि ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं एं ऐं यं रं लं वं सरस्वत्यै नमः, नाभौ ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं ओं औं शं षं सं हं कामेश्वर्यै नमः, लिङ्गमूले ।
ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं अं अः लं क्षं चामुण्डायै नमः, मूलाधारे ।
॥ इति तारादिन्यासः ॥२५-२८॥
अब साधकों को शीघ्र सिद्धि प्रदान करने वाले षष्ठ पीठन्यास की विधि कहते हैं -
आधार में बीजत्रितय सहित हृस्वस्वरों के साथ कामरुप पीठ का, हृदय में पूर्वबीजोम के सहित दीर्घस्वरों का उच्चारण कर जालन्धर पीठ का, ललाट में पूर्ववत् तीनों बीजों के आगे कवर्ग का उच्चारण कर पूर्णगिरि संज्ञक पीठ का, केशसन्धियो में पूर्ववत् तीनों बीजों के साथ चवर्ग का उच्चारण कर वाराणसे पीठ का, कण्ठ में यवर्ग के साथ मथुरा पीठ का, नाभि में शवर्ग के साथ अयोध्या पीठ का, तथा कटि में (ल क्ष के साथ) दशम काञ्चीपुरी पीठ का न्यास करना चाहिए । यहाँ तक जो तारा के पृष्ठ पीठ न्यास कहे गये हैं वे साधकों को सभी प्रकार की सिद्धि प्रदान करते हैं ॥२९-३४॥
विमर्श - षष्ठपीठन्यास विधि -
ॐ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं अं इं उं ऋं ल्रुं एं ओं अं कामरुपपीठाय नमः, आधारे ।
ॐ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं आं ईं ऊं ऋं लृं ऐं औं अः जालन्धरपीठाय नमः हृदि ।
ॐ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं कं खं गं घं ङं पूर्णगिरिपीठाय नमः, ललाटे ।
ॐ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं चं छं जं झं ञं उड्डीयानपीठाय नमः, केशसंघौ ।
ॐ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं टं ठं डं ढं ण वाराणसीपीठाय नमः, भ्रुवोः ।
ॐ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं तं थं थं दं धं नं अवन्तिपीठाय नमः, नेत्रयोः।
ॐ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं पं फं बं भं मं मायापुरीपीठाय नमः, मुखे ।
ॐ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं यं रं लं व मथुरापीठाय नमः, कण्ठे ।
ॐ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं शं षं सं हं अयोध्यापीठाय नमः, नाभौ ।
ॐ ह्रीं त्रीं (स्त्रीं) हुं लं क्षं काञ्चीपुरीपीठाय नमः, कट्याम् ।
॥ इति पीठन्यासः ॥२८-३४॥
मायाबीज में क्रमशः ६ दीर्घवर्णों को आदि में लगाकर क्रमशः एक जटा का हृदय में, तारिणी का शिर में, वज्रोदका का शिखा में, उग्रतारा का कवच में, महापरिसरा का नेत्रों में, तथा पिङ्गोग्रैजटा का अस्त्रन्यास करना चाहिए । इसी प्रकर अङ्गगुष्ठादि अङ्गुलियों में करन्यास कर तर्जनी मध्यमा द्वारा तीन ताली बजा कर छोटिका मुद्रा से दिग्बन्धन करना चाहिए । फिर प्रणव से सम्पुटित विद्या (ॐ ह्री त्रीं (स्त्रीं) हुं फट् ॐ ) द्वारा सात बार व्यापक न्यास कर शीघ्र वाक्सिद्धि प्रदान करने वाली उग्रतारा भगवती का आगे (४.३९-४०) कहे गये श्लोकों में ध्यान करना चाहिए ॥३५-३८॥
विमर्श - षडङ्गन्यास विधि -
ॐ ह्रां एकजटायै हृदयाय नमः, ॐ ह्रीं तारिण्यै शिरसे स्वाहा,
ॐ वज्रोदकायै शिखायै वषट् ॐ उग्रजटायै कवचाय हुम्,
ॐ महापरिसरायै नेत्रत्रयाम वौषट् ॐ ह्रः पिङ्गौग्रैकजटायै अस्त्राय फट् ।
इसी प्रकार करन्यास कर पूर्वोक्त रीति से ताली बजाकर व्यापक न्यास करना चाहिए ॥३५-३८॥
अब उग्रतारा का ध्यान कहते हैं -
विश्वव्यापक जल के मध्य में श्वेत कमल पर विराजमान जिन भगवती के दाहिने हाथों में खङ्ग एवं नीलकमल तथा बायें हाथों में कर्त्तारिका (छुरी) एवं कपाल (नरमुण्ड) हैं, जिनके शरीर की कान्ति नील वर्ण की हैं, तथा जो काञ्ची, कुण्डली, हार, कङ्कण, केयूर तथा मञ्जीर आदि आभूषणों से, एवं सुन्दर नागों से विभूषित हैं, ऐसे रक्त वर्ण वाले तीन नेत्रोम से सुशोभित रहने वाली जिन भगवते के सिर पर पिङ्गल वर्ण की एक जटा है । जिनकी जिहवा चञ्चल है, दन्तपक्तियों के कारण जिनका मुख महाभयानक प्रतीत हो रहा है । जिनके कटि में व्याघ्र चर्म, माथे पर श्वेतास्थिपट्टिका तथा शिर पर नागरुप धारी आक्षेभ्य ऋषि विराज रहे हैं ऐसी ईषद्धास्य से युक्त मुख कमल वाली, शव के हृदय पर आसन लगाये हुये कठोर स्तनों वाली त्रिलोक जननी भगवती तारा का ध्यान करना चाहिए ॥३९-४०॥
तारा भगवती का ध्यान करते हुये एक हविष्यान्न अथवा अनेक दधि मधु अथवा मधु और मांस खाकर तथा ताम्बूल का चवर्ण करते हुए तार मन्त्र का चार लाख जप करना चाहिए । तदनन्तर दूध और घी मिलाकर रक्तकमलों से दशांश हवन करना चाहिए । जप स्थान पर महाशंख (नर कपाल) स्थापित कर जप का विधान कहा गया है । स्त्री को देखते हुये स्पर्श करते हुये अथवा चलते हुये निशीथ काल में बलि देनी चाहिए । स्त्रियों से कभी द्वेष नहीं करना चाहिए, अपितु सर्वदा उनका पूजन करना चाहिए ॥४१-४३॥
तारा मन्त्र के जप में काल एवं स्थान का कोई नियम नहीं है । सर्वदा और सभी जगह जप करना चाहिए । श्मशान में, शून्यगृह में, देवस्थान (मन्दिर) में, एकान्त मे, पर्वत पर या वन के मध्य में शव पर बैठकर साधक कहीं भी जप कर सकता है । युद्ध में मारे गये शत्रु अथवा ६ महीन के मरे हुए बालक के शव पर इस विद्या की सिद्धि करनी चाहिए । सिद्धि की हुई यह विद्या मनुष्य को शीघ्र ही प्रसिद्धि प्रदान करती है ॥४४-४५॥
पीठशक्ति एवं पीठ मन्त्र - १. मेघा, २. प्रज्ञा, ३. प्रभा, ४. विद्या, ५. धी, ६. धृति, ७. स्मृति ८. बुद्धि एवं ९. विद्येश्वरी - ये पीठ की नव शक्तियाँ हैं । भृगुमन्विन्दुसंयुक्त सकार (सं), तदनन्तर औ बिन्दु संयुक्त मेघवर्त्म हकार (हौं) सरस्वतीयोगपीठात्मेन नमः - यह पीठ मन्त्र कहा गया है ॥४६-४८॥
विमर्श - पीठ मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ‘ सं हौं सरस्वती योगपीठात्मने नमः’ ॥४६-४८॥
इस पीठ मन्त्र से आसन देकर मूल मन्त्र से मूर्ति की कल्पना करनी चाहिए । तदनन्तरी देवी की जिस प्रकार पूजा करनी चाहिए उसकी विधि कहते हैं ॥४९॥
पूजा के बाद नित्य बलिदान करना चाहिए । उसका मन्त्र इस प्रकार कहा है - तार (ॐ) माया (ह्रीं), भग (ए), ब्रह्या (क), फिर ‘जटे’ पद । फिर सूर्य ‘म’ सदीर्घ ख ‘हा’ फिर यक्षाधिपतयें’ पद, इसके बाद तन्द्री (म), फिर ‘मोपनीतं बलिं’ यह पद, फिर गृहण गृहण, फिर शिवा (ह्रीं) एवं अन्त में स्वाहा पद - इतना बलि का मन्त्र कहा गया है । इस मन्त्र से अर्धरात्रि में चौराहे पर बलि प्रदान करना चाहिए ॥५०-५१॥
विमर्श - बलि मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है -
ॐ ह्रीं एकजटे यक्षाधिपतये ममोपनीतं बलिं गृहण गृहण ह्रीं स्वाहा’ - इस मन्त से नित्य अर्धरात्रि में बलिप्रदान करना चाहिए ॥५०-५१॥
इस अनन्तर जल ग्रहणादि कार्य इन १० मन्त्रों से करना चाहिए ।
१. ध्रुव (ॐ), फिर ‘वज्रोदके’ पद, फिर वर्म (हुं) अन्त में ‘फट्’ । इस सात अक्षर के मन्त्र से जल ग्रहण करना चाहिए ॥५२॥
२. माया बीज (ह्रीं) के आदि में तार (ॐ) तथा तन्त में वहिनजाया (स्वाहा) लगाने से पादप्रक्षालन क मन्त्र बनता है ।
३. तार (ॐ), कर्णीभृगु (सु) फिर ‘विशुद्ध धर्म’ फिर ‘सर्वपापनिशाम्याशे’ फिर श्वेत (ष), नेत्रयुत् जल (वि), फिर ‘कल्पानपनय स्वाहा’ इस छब्बीस अक्षर के मन्त्र से आचमन कराना चाहिए ॥५३-५४॥
४. ध्रुव (ॐ), फिर ‘मणिधरि’ यह पद, फिर अक्षियुत मृत्यु (शि), फिर ‘खरि’ पद, फ्र नेत्रयुता रति (णि), फिर ‘सर्व’ पद, फिर व, तदनन्तर सेन्दुवक (शं) तथा करिणि पद, फिर सेन्दु शिर (कं) अर्घिखं (हुं), अस्त्र (फट्) तथा अन्त में वहिनप्रिया (स्वाहा) एक तेईस अक्षरों के मन्त्र से साधक को शिखाबन्धन करना चाहिए ॥५५-५७॥
५. प्रणव (ॐ), तदनन्तर रक्ष युगल (रक्ष रक्ष), दीर्घ वर्म (हूं), अस्त्र (फट्) तदनन्तर ठ द्वय (स्वाहा), इस ९ अक्षर के मन्त्र से भूमिशोधन करना चाहिए ॥५७-५९॥
६. तार (ॐ) के बाद ‘सर्वविघ्नानुत्सारय’ फिर ‘हुं फट् स्वाहा’ इस तेरह अक्षरों के मन्त्र से विध्नों का निवारण कर पश्चात् भूतशुद्धि करनी चाहिए ॥५२-५९॥
विमर्श - मन्त्रों का स्वरुप इस प्रकार है -
१. जल ग्रहण मन्त्र - ॐ वज्रोदके हुं फट् ।
२. पादप्रक्षालन मन्त्र - ॐ ह्रीं स्वाहा ।
३. आचमन मन्त्र - ॐ सुविशुद्धधर्मसर्वपापनिशाम्याशेषविकल्पानपनय स्वाहा ।
४. शिखाबन्धन मन्त्र - ॐ मणिधरि वज्रिणि शिखरिणि सर्ववङकरिणि कं हुं फट् स्वाहा ।
५. भूमिशोधन मन्त्र - ॐ रक्ष रक्ष हूं फट् स्वाहा ।
६. विघ्न निवारण मन्त्र - ॐ सर्वविघ्नानुत्सारयं हुं फट् स्वाहा ॥५२-५९॥
अब भूतशुद्धि का प्रकार कहते हैं - सर्वप्रथम जपा कुसुम (ओङहुल) के समान लाल आभा वाले माया बीज (ह्रीं) का नाभिस्थान में ध्यान करना चाहिए । तदनन्तर उससे निकलने वाली अग्नि की लपटों से पाप सहित अपने शरीर को जला देना चाहिए । फिर सुवर्ण के समान पीत वर्ण वाले त्रीं या स्त्रीं का हृदय प्रदेश में ध्यान कर उससे उत्पन्न वायु द्वारा पापों को भस्म कर शरीर से बाहर निकाल कर पृथ्वी पर फेंक देना चाहिए । पश्चात् चन्द्रमा या कुन्द के समान श्वेत आभा वाले तुरीय बीज (हूँ) का ललाट देश में ध्यान कर उससे उत्पन्न अमृत द्वारा देवता के समान अपने निष्पाप शरीर की रचना करनी चाहिए । इस प्रकार की भूतशुद्धि की क्रिया से साधक स्वयं देवे के सदृश बन जाता है ॥६०-६३॥
विमर्श - भूतशुद्धि प्रयोगविधि - साधक को अपनी गोद में दोनों हाथोम को उत्तानमुद्रा में रखकर पद्मासन बाँधकर एकान्त एवं शान्त भाव से बैठ जाना चाहिए । फिर ‘हंस’ मन्त्र से साधक कुण्डलिनि को जीवात्मा एवं चौबीस तत्त्वों के साथ सुषुम्नामार्ग से ऊर्ध्व गति से ले जाकर शिर में स्थित सहस्न्रार पद्म में परमशिव से उन्हें मिला दें ।
(१) तदनन्तर साधक नाभि में रक्तवर्ण ‘ह्रीं’ बीज का ध्यान कर सोलह बार जप करते हुए पूरक क्रिया द्वारा उस बीज से उत्पन्न अग्नि की लपटों से पापसहित लिङ्ग शरीर को जला दे ।
(२) तत्पश्चात हृदय में पीतवर्ण ‘स्त्रीं’ बीज का ध्यान कर चौंसठ बार जप करते हुए कुम्भक प्राणायाम से भस्म को इकटठा कर साधक को रेचक क्रिया द्वारा उक्त भस्म को बाहर निकाल कर फेंक देना चाहिए ।
(३) इसके बाद शिर में शुक्लवर्ण ‘हुं’ बीज का ध्यान कर बत्तीस बार जप करते हुए पूरक क्रिया द्वारा उत्पन्न अमृत से आप्लावित कर दिव्य शरीर की रचना करनी चाहिए ।
फेत्कारिणी तन्त्र के अनुसार साधक को भूतशुद्धि कर ‘आः’वर्ण को रक्त कमल के समान ध्यान कर उसके ‘आँ’ वर्ण को श्वेतकमल के समान औइर उसके ऊपर ‘हुं’ बीज को नीलकमल के समान ध्यान कर उसके ऊपर ‘हुं’ बीज से उत्पन्न बीजभूषित कर्तरिका का ध्यान करना चाहिए । कर्तरिका के ऊपर अपनी आत्मा का तारिणी (तारादेवी) के रुप में ध्यान करना चाहिए । फिर ‘आं’ ह्रीं क्रौं स्वाहा’ इस मन्त्र का ग्यारह बार जप करते हुए हृदय में देवी की प्रानप्रतिष्ठा करनी चाहिए । इस प्रकार की भूतिशुद्धिकी क्रिया से साधक स्वयंदेवी सदृश हो जाता है ॥६०६३॥
अब भूमिनिमन्त्रण आदि का मन्त्र कहते हैं -
७. तार (ॐ), फिर ‘पवित्र वज्र’ पद, फिर भूमि, फिर अर्धीशेन्दुयुत वियत् (हूँ) इसके अन्त में वहिनप्रिया (स्वाहा) यह ग्यारह अक्षरों का भूमि अभिमन्त्रण का मन्त्र बन जाता है ॥६३-६४॥
८. तार (ॐ) अनन्त (आ), फिर कर्णी भृगु (सु) फिर पद्मनाभयुत बली (रे), तदनन्तर ‘खे वज्र रेखे’, फिर क्रोध बीज (हुं), फिर अन्त में पावकवल्लभा (स्वाहा) लगाने से बारह अक्षरों का मण्डल रचना का मन्त्र निष्पन्न होता है । साधक को इस मन्त्र से शुभ मण्डल की रचना करनी चाहिए ॥६४-६५॥
९. तार (ॐ), फिर ‘यथागता’ , फिर ‘सदृक् निद्रा’ इकार युक्त भकार अर्थात् (भि), फिर ‘षेक’ पद, फिर भृगु (स), सदीर्घविष (मा), साक्षि स्मृति (ग्नि) भगान्वित महाकाल (मे), क्रोध (हुं), एवं अन्त में अस्त्र (फट्) लगाने से चौदह अक्षरों का पुष्पादिशोधन मन्त्र बनता है ।
१०. तार (ॐ), पाशं (आं) परा (ह्रीं) उसके अन्त में स्वाहा लगाने से पाँच अक्षरों का चित्तशोधन मन्त्र बनता है -
इस प्रकार जल ग्रहण आदि के दश मन्त्र बतलाये गये । आगे अर्घ्य स्थापन की क्रिया का वर्णन करेगें ॥६६-६७॥
विमर्श - मन्त्रों का स्वरुप इस प्रकार है -
७ - भूमि अभिमन्त्रण मन्त्र - ॐ पवित्रवज्रभूम्रे हूं स्वाहा ।
८ - मण्डल रचना मन्त्र - ॐ आसुरेखे वर्जरेखे हुं स्वाहा ।
९ - पुष्पादिशोधन मन्त्र - ॐ यथागताभिषेकसमाग्नि मे हुं फट् ।
१० - चित्तशोधन मन्त्र - ॐ आं ह्रीं स्वाहा ॥६६-६७॥
यहाँ तक ग्रन्थकार ने दश मन्त्रों का वर्णन किया । अब आगे अर्ध्य स्थापन की विधि कहते हैं -
सेन्दु (सानुस्वार) मांस (ल) तथा तोय व (अर्थात् लं वं) मन्त्र पढकर भूमि शोधन करें । पश्चात् मण्डल मन्त्र (ॐ आसुरेखे वज्ररेखे हुं स्वाहा ) पढकर वृत्त त्रिकोण और चतुष्कोणात्मक मण्डल की रचना कर उस पर आधार शक्ति ‘आधारशक्तये नमः’ कच्छप (कच्छपाय नमः) नागनायक शेष (शेषाय नमः) का पूजन करें । तदनन्तर आदि में तार (ॐ) माया (ह्रीं) सहित फडन्त मन्त्र अर्थात् ‘ॐ ह्रीं फट्’ इस मन्त्र से मण्डल पर आधार पात्र स्थापित करें । इसके पश्चात् ‘मं वहिनमण्डलाय नमः’ इस मन्त्र से वहिनमण्डल के पूजाकर वाम कर्ण (उकार) इन्दु अनुस्वार से युक्त विहायस ह (अर्थात् हुं) उसके बाद फट् अर्थात् ‘हुं फट’ इस मन्त्र से महाशंख (नरकपाल) का प्रक्षालन कर भृगु (स), दण्डी तृ त्रिमृत्ती ई उस पर बिन्दु (अर्थात् स्त्रीं) इस बीज मन्त्र से महाशंख (नर कपाल) को आधार पात्र पर स्थापित करना चाहिए ॥६८-७१॥
तदनन्तर वक्ष्यमाण चार मन्त्रों को पढते हुए उस महाशङ्ख की पूजा करनी चाहिए । दीर्घत्रयान्विता माया (ह्रां ह्रीं हुं), फिर ‘काली’, सृष्टि (क), दीर्घ सहित प (पा) प्रतिष्ठा युत् मांस (ला), तदनन्तर पवन (य), अन्त में हृदय (नमः) लगाने से महाशङ्ग पूजा का ग्यारह अक्षर का प्रथम मन्त्र बनता है ॥७२-७३॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप - (१) ‘ह्रा ह्रीं हूं कालीकपालाय नमः’ ।
अनुस्वार एवं दीर्घ त्रय सहित हंस (स्), हरि (त् ), भुजङेश (रृ) अर्थात् स्त्रां स्त्रीं स्त्रृं फिर ‘तारिणी’ उसके अन्त में ‘कपालाय नमः’ लगाने से वाराह अक्षर का दूसरा मन्त्र बनता है ॥७४॥
विमर्श - (२) ‘स्त्रां स्त्रीं स्त्रृं तारिणीकपालय नमः’ ।
बिन्दु एवं दीर्घत्रय समन्वित ख (ह) अर्थात् ह्रां ह्रीं हूँ, वामदृक सहित मेष (नी), फिर ‘ला कपालाय’ उसके अन्त में हृदय (नमः) लगाने से ग्यारह अक्षरों का तृतीय मन्त्र बनता है ॥७५॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप - (३) ‘हां हीं हूं नीलाकपालाय नमः’ तदनन्तर खादिम (क), फिर ‘पालाय सर्वाधाराय’, फिर चतुर्थ्यन्त सर्व, ‘सर्वोद्भव’ तथा ‘सर्वशुद्धिमय’ शब्द (सर्वोद्भवाय सर्वशुद्धिमयाय), फिर ‘सर्वासुर; तब ‘रुधिरारु’ उसके अनन्तर दीर्घरति ‘णा’ फिर वायु य (सर्वासुर रुधिरारुणाय), फिर ‘शुभ्रा’ पद फिर अनिल (य) (शुभ्राय) तदनन्तर ‘सुराभाजनाय’ , फिर भगीसत्य (दे), फिर ‘वीकपालाय’ पद (देवीकपालाय), तदनन्तर हृत् (नमः) इस प्रकार रस ६ इषु ५ ‘अङ्कानां वामतो गतिः’ के अनुस्वार ५६ अक्षरों का तुर्य अर्थात् चौथा महाशंखापृजन का मन्त्र निष्पन्न होता है ॥७६-७८॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप - (४) ‘ह्रीं स्त्रीं हूं स्वर्गकपालाय सर्वाधाराय सर्वाय सर्वोद्भवाय सर्वशुद्धिमयाय सर्वासुररुधिरारुणाय शुभ्राय सुराभाजनाय देवीकपालाय नमः ॥६७-७८॥
उस कपाल में ‘अं सूर्यमण्डलाय नमः’ मन्त्र से अर्कमण्डल की पूजाकर मूलमन्त्र पढते हुए मद्य की भावना से उसमें जल भरे, तदनन्तर, गन्ध, पुष्प एवं अक्षत डालकर त्रिखण्डमुद्रा दिखाते हुए ‘ॐ सोममण्डलाय नमः’ इस मन्त्र से जल में चन्द्रमण्डलं की पूजा करनी चाहिए ॥७८-८०॥
वाक् (ऐं) शक्ति (ह्रीं), पद्मा (श्रीं) रेफानुग्रह बिन्दुसहित गगन (ह्रीं), फिर मूल मन्त्र (ॐ ह्रीं त्रीम हुं फट्) फिर स औ विसर्ग से युक्त ह अर्थात् हसौः, फिर अन्त में दीपिका एवं बिन्दुसहित वरह (हूँ) लगाने से ग्यारह अक्षरों वाला मन्त्र बनता है ॥८१॥
विमर्श - यथा ऐं ह्रीं श्रीं ह्रीं ॐ ह्रीं त्रीं हुं फट हसौः हूं ॥८१॥
इस मन्त्र का आठ बार पढकर साधक जल को अभिमन्त्रित कर । फिर मायाबीज (ह्रीं) मन्त्र से उसमें मदिर डालकर शंखमुद्रा एवं योनिमुद्रा प्रदर्शित करें ॥८२॥
विमर्श - अर्ध्यस्थापन की विधि - साधक अपने बॉयीं ओर अर्घ्यस्थापन के लिए सर्वप्रथम ‘लं वं,’ इन बीजों से भूमि साफ एवं शुद्ध करके ‘ॐ आसुरेखे वर्जरेखे हुं स्वाहा’ इस मन्त्र से वृत्त त्रिकोण एवं चतुष्कोण मण्डल बनावें । उस पर ‘ॐ आधारशक्तये नमः, ॐ कूर्माय नमः, ॐ शेषाय नमः,’ इन मन्त्रों से आधारशक्ति, कूर्म एवं शेषनाग का पूजन कर ‘ॐ ह्रीं फट्’ मन्त्र से अर्घ्य के आधार पात्र को स्थापित करे ।
तत्पश्चात् ‘ॐ मं वहिनमण्डलाय नमः, - इस मन्त्र से आधार पात्र का पूजन कर ‘हुँ फट्’ मन्त्र से महाशंख (नरकपाल) को धोकर ‘स्त्रीं’ बीज पढते हुये आधार पात्र पर महाशंख को स्थापित करना चाहिए ।
फिर निम्नलिखित चार मन्त्रों से महाशंख का पूजन करना चाहिए ।
१ - ह्रां ह्रीं हूं कालीकपालाय नमः ।
२ - स्त्रां स्त्रीं स्त्रूं तारिणीकपालाय नमः ।
३ - हां हीं हूं नीलाकपालाय नमः ।
४ - ह्रीं स्त्रीं हूं स्वर्गकपालाय सर्वाधाराय सर्वाय सर्वोद्भवाय सर्वशुद्धिमयाय सर्वासुररुधिरुणाय शुभ्राय सुराभाजनाय देवी कपालाय नमः ।
इन मन्त्रों से महाशंख का पूजन कर ‘अं सूर्यमण्डलाय नमः’ - इस मन्त्र से अर्कमण्डल का पूजन कर मूलमन्त्र पढते हुए मदिरा की भावना से उसमें जल भरकर गन्ध, पुष्प एवं अक्षत डालने चाहिए तथा त्रिखंडा मुद्रा प्रदर्शित करनी चाहिए ।
फिर ‘ॐ सोममण्डाय नमः’ - इस मन्त्र से जल में चन्द्रमण्डल की पूजा कर ‘ऐं ह्रीं श्रीं ॐ ह्रीं त्रीं फट् ह्सौंह हूम्’ इस मन्त्र को पढते हुए आठ बार जल को अभिमन्त्रित करना चाहिए ॥८२॥
तत्पश्चात ‘ह्रीं’ से उस जल में तीर्थ (मदिरा) डालकर शंख मुद्रा एवं योनि मुद्रा प्रदर्शित करनी चाहिए ।
उस अर्ध्य के जल में वृत्तः अष्टदल एवं षटकोण रुपी यन्त्र कीं भावना एवं षटकोण रुपी यन्त्र की भावना कर पूर्वोक्त (४.३९,४०) विधि से देवी का ध्यान कर मूल मन्त्र से उनका पूजन्म करना चाहिए ॥८३॥
तदनन्तर तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठिका तथा अंगूठे को मिलाकर मूलमन्त्र द्वारा महाकपाल स्थित अर्घ्य के जल से ४ बार देवी का तर्पण करना चाहिए ॥८४॥
फिर ख (ह), जो रेफ औ और बिन्दु से युक्त हो (हौं) तथा बिन्दु अनुस्वार भृगु स और से युक्त हकार (हसौं) एस प्रकार मन्त्र के आदि में ध्रुव (ॐ) लगाकर अन्त में ‘नमः’ लगाकर अर्थात् ‘ॐ ह्रौं ह्सौ नमः’ इस मन्त्र से आनन्दभैरव का तर्पण करना चाहिए ॥८५॥
तर्पण करने के उपरान्त अर्ध्यपात्रस्थ जल से पूजा सामग्री का प्रोक्षण करें । फिर योनिमुद्रा दिखाकर भवतारिणी भगवती तारा को प्रणाम करना चाहिए ॥८६॥
तारा पूजा के विधान के मध्य में ग्रन्थकार ने पूर्व में सर्वसिद्धि प्रदान करने वाले पीठ का वर्णन किया है । उसी पूर्वोक्त (द्र० ४. ८३) षट्कोण, कर्णिका, अष्टदल कमल एवं भूपुर से वेष्टित पीठ पर रम्य उपचारों से देवी का पूजन करना चाहिए । तदनन्तर वक्ष्यमाण विधि से पीठ के चारोम ओर गणेशादि का पूजन चाहिए ॥८७-८८॥
अब भगवती के आवरण की पूजा का प्रकार कहते हैं
पीठ के पूर्व दिशा के द्वार पर हाथोम में पाश, अंकुश कपाल तथा त्रिशूल धारण किये हुए अनेक अलङ्कारो से सुशोभित गणेश जी का पूजन करना चाहिए ॥८९॥
पीठ के दक्षिण द्वार पर हाथों में कपाल एवं त्रिशूल लिए हुये सर्परुप आभूषणों से सुशोभित श्वानों के दल से घिरे हुये बटुक भैरव की पूजा करनी चाहिए ॥९०॥
पीठ के पश्चिमे वार पर तलवार, त्रिशूल, कपाल एवं डमरु हाथों में लिए हुये, कृष्णवर्ण, दिगंम्बर एवं क्रृर आकृति वाले क्षेत्रपाल का पूजन करना चाहिए ॥९१॥
तदनन्तर पीठ के उत्तर द्वार पर कपाल, डमरु, पाश एवं लिङ्ग हाथों में धारण करने वाली और लाल वस्त्र धारण की हुई तथा आतों के आभूषणों से भृषित योगिनियों की पूजा करनी चाहिए ॥९२॥
पीठ के ऊपर देवी के मस्तक पर नागरुप से विराजमान तारा मन्त्र के अक्षोभ्य ऋषि का ‘अक्षोभ्य वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा’ इस मन्त्र से पूजन करना चाहिए । तदनन्तर षट्कोणों में षडङ्गपूजा करनी चाहिए ॥९३॥
पूर्वादि दिशाओं के अष्टदलों में क्रमशः वैरोचन, अमिताभ, पद्मनाभ एवं पाण्डुशंख की पूजा करेम । अष्टदल के कोणों में इष्टसिद्धि के लिए लामका, मामका, पाण्डुरा तथा तारका की पूजा करनी चाहिए । संबोधन पूर्वक नाम के आद्य में अनुस्वार लगाकर, तदनन्तर ‘वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा’ इस मन्त्र से वैरोचन आदि की पूजा करनी चाहिए । भूपुर के चारोम द्वारों पर पद्मान्तक, यमान्तक, विघ्नान्तक, तथा नारान्तक की पूजा करनी चाहिए । फिर इन्द्रादि दशदिक्पालों की तथा उनके वज्र आदि आयुधोम की पूजा करनी चाहिए ॥९४-९९॥
इस प्रकार देवी का पूजन करने से साधक अदभुत पाण्डित्य धन, पुत्र, पौत्र, सुख एवं कीर्त्ति प्राप्त करता है तथा जनसामान्य को अपने वश में करने की शक्ति प्राप्त करता है ॥९९-१००॥
विमर्श - ऊपर ४.८८ से ४.९९ पर्यन्त तारा के आवरण पूजा की विधि कही गई है उसका यथाक्रम संक्षेप इस प्रकार है -
पूर्वोक्त (द्र० ४. ८३-८६) रीति से देवी की पूजा कर योनिमुद्रा प्रदर्शित कर ‘आवरण ते पूजयामि, देवि आज्ञापय’ मन्त्र पढकर देवी से आज्ञा ले कर पूजा करनी चाहिए ।
प्रथम पीठ के द्वार पर पाशांकुशो (द्र० ४.८९) से गणपति का ध्यान कर ‘गणपतये नमः गणपति’ इस मन्त्र से गणपति की पूजा करे । पुनः पीठ के दक्षिण द्वार पर ‘कपाल शूले’ (द्र० ४. ९०) आदि श्लोक से ध्यान कर ‘बटुक भैरवाय नमः’ इस मन्त्र से बटुक भैरव की पूजा करे ॥ पुनः पीठ के पश्चिमे द्वार पर असिशूलकपालानि’ (द्र० ४.९१) श्लोक से ध्यान कर ‘क्षेत्रपालाय नमः’ इस मन्त्र से क्षेत्रपाल की पूजा करे, पुनः पीठ के उत्तर दिशा में ‘कपालं डमरुं पाशं’ (द्र ० ४.०२) इस श्लोक से ध्यान कर ‘योगिनीभ्यो नमः’ इस मन्त्र से योगिनियों की पूजा करनी चाहिए ।
पुनः पीठ के ऊपर ‘ॐ अक्षोभ्य वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा’ इस मन्त्र से अक्षोभ्य ऋषि का पूजन करना चाहिए । तदनन्तर केशरों के अग्नि कोण, ईशान कोण, वायव्य एवं नैऋत्य कोणों में तथा मध्य दिशा में इस प्रकार षडङ्ग पूजा करनी चाहिए । यथा -
ॐ ह्रां एकजटायै नमः, आग्नेये ।
ॐ ह्रीं तारिण्यै शिरसे स्वाहा, ईशान्ये ।
ॐ ह्रूं वज्रोदाकायै शिखायै वषट् वायव्ये ।
ॐ ह्रैं उग्रजटायै कवचाय हुं, नैऋत्ये ।
ॐ ह्रौं महापरिसरायै नेत्रत्रयाय वौषट्, मध्ये ।
ॐ ह्रः पिङ्गोग्रैकजटायै अस्त्राय फट्, चतुर्दिक्षु ।
इसके अनन्तर पूर्वादि स्थित दलों की दिशाओं में स्थित अष्टदलों के कमलों मे वैरोचनादि का तथा आग्नेयादि कोणों में स्थित दलों में लामका आदि का इस प्रकार पूजन करना चाहिए -
ॐ वं वैरोचन वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा ।
ॐ अं अमिताभ वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा ।
ॐ पं पद्मनाभ वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा ।
ॐ शं शंखनाभ वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा ।
ॐ लां लामिके वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा ।
ॐ मां मामिके वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा ।
ॐ पां पाण्डुरे वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा ।
ॐ तां तारके वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा ।
फिर भूपुर के चारों द्वारों पर यथाक्रम पूर्वादि दिशाओं में पूजन करे -
ॐ पं पद्मान्तक वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा ।
ॐ यं यमान्तकं वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा ।
ॐ विं विघ्नात्मक वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा ।
ॐ नां नारान्तक वज्रपुष्पं प्रतीच्छ स्वाहा ।
तदनन्तर चतुरस्न के पूर्व आदि दिशाओं में इन्द्रादि लोकपालों का यथाक्रम पूजन करना चाहिए -
ॐ लां इन्द्राय देवाधिपतये नमः, पूर्व ।
ॐ रां अग्नये तेजाधिपतये नमः, आग्नेये ।
ॐ यां यमाय प्रेतधिपतये नमः, दक्षिणे ।
ॐ क्षां निऋतये रक्षोधिपतये नमः, नैऋत्ये ।
ॐ वां वरुणाय जलाधिपतये नमः पश्चिमे ।
ॐ यां वायवे प्राणाधिपतये नमः, वायव्ये ।
ॐ सां सोमाय ताराधिपतये नमः, उत्तरे ।
ॐ हां ईशानाय गणाधिपतये नमः, ईशाने ।
ॐ आं ब्रह्मणे प्रजाधिपतये नमः, पूर्वेशानयोर्मध्ये ।
ॐ ह्रीं अनन्ताय नागाधिपतये नमः, निऋतिवरुणयोर्मध्ये ।
इसके बाद चतुरस्र के बाहर दश दिक्पालों के आयुधों का पूजन पूर्व आदि दिशाओम में करन चाहिए -
ॐ वज्राय नम, पूर्वे, ॐ शक्तये नमः, आग्नेये, ॐ दण्डाय नमः, दक्षिणे,
ॐ खड्गाय नमः, नैऋत्ये, ॐ पाशाय नमः, पश्चिमे, ॐ अंकुशाय नमः, वायव्ये,
ॐ गदायै नमः, उत्तरे, ॐ शूलाय नमः, ईशाने, ॐ पदमाय नम, ऊर्ध्वम्,
ॐ चक्राय नमः अधः ।
इस प्रकार पाँच आवरणों की पूजा कर पाँच पुष्पाञ्जलि भगवति को समर्पित करे ।
अब पूजा के उपरान्त बलिदान मन्त्र का उद्धार कहते हैं -
तार (ॐ), माया (ह्रीं), फिर, ‘श्रीमदेकजटे नीलसरस्वति महोग्रतारे दे’ फिर सनेत्र वाल (वि) फिर गदियुग्मक (ख ख), फिर ‘सर्वभूतपिशा’, फिर कूर्म (च), दीर्घ अग्नि (रा), मेरु (क्ष), फिर ‘सान्’, ‘ग्रस ग्र’ फिर भृगु (स), फिर ‘मम जाड्य’ फिर २ बार छेदय शब्द, फिर रमा (श्रीं), माया (ह्रीं), अस्त्र (फट्) तथा अन्त में अग्निप्रिया (स्वाहा) लगाने से बावन अक्षरों का मन्त्र निष्पन्न होता है । इस मन्त्र से प्रतिदिन पूजा के बाद भगवती को बलि समर्पित करनी चाहिए । इस प्रकार मन्त्र सिद्धि होने पर साधक काम्य कर्म का अधिकारी हो जाता है ॥१००-१०३॥
विमर्श - बलिदान मन्त्र का स्वरुप - ॐ ह्रीं श्रीमदेकजटे नीलसरस्वति महोग्रतारे देवि ख ख सर्वभूतपिशाचराक्षसान् ग्रस ग्रस मा जाड्यं छेदय छेदय श्री ह्रीं फट् स्वाहा ॥१००-१०३॥
अब काम्य प्रयोग कहते हैं -
नवजात शिशु के उत्पन्न होने पर ३ दिनों के भीतर उसकी जिहवा पर शहद एवं घी (स्वर्ण निर्मित या श्वेत दूर्वा निर्मित) शलाका से तारा मन्त्र लिखाना चाहिए । इस क्रिया के अनुष्ठान से ८ वर्ष व्यतीत हो जाने पर वह बालक निश्चित रुप से महकवि बन जाता है तथा अन्य विद्वानों से अपराजित होकर राजपूजित हो जाता है ॥१०४-१०६॥
ग्रहण के समय सरोवर में तैरते हुए काष्ठ की लेखनी बनावें फिर कमल के पत्ते पर तेल, मधु और मदिरा से तारा मन्त्र लिखकर मातृका (इक्यावन अक्षरों) वर्णो से उसे वेष्टि कर चौकोर मेखला वाले कुण्ड में उसे गाडकर अग्निस्थापन कर तारामन्त्र से गोदुग्धमिश्रित जल से आप्लुत रक्त कमलों से एक हजार आहुतियाँ देवे । फिर विविध अन्न और मांस स विधिवत् भगवती तारा को बलिदान देना चाहिए । बलिदान का मन्त्र इस प्रकार है ॥१०६-११०॥
तार (ॐ) फिर दो बार पद्मे शब्द (पद्मे पद्मे), फिर तन्द्री (म) दीर्घवेयत् (हा) लोहित (प) वृषभगारुढोऽत्रिः म ए से युक्त द (अर्थात् द्मे) फिर ‘पद्मावती’ फिर झिण्टीशाढयोऽनिलः य् ए से युक्त ‘ये’ तदनन्तर ‘स्वाहा’ यह सोलह अक्षरों का बलि मन्त्र निष्पन्न होता है ॥११०-१११॥
मन्त्र का स्वरुप - ‘ॐ पद्मे पद्मे महापद्मे पद्मावतीये स्वाहा’ ॥११०-१११॥
फिर निशीथ काल में भी पूर्वोक्त मन्त्र (द्र० ४.५०-५१) से बलि देनी चाहिए । ऐसा करने से साधक पण्डितों से अपराजेय एवं महाकवि हो जाता है । उसमें स्वयं लक्ष्मी एवं सरस्वती दोनों निवास करती हैं तथा वह समस्त जनसमूहों को प्रसन्न करने में सक्षम हो जाता है ॥११२-११३॥
तारा मन्त्र का १०० बार जप कर जो व्यक्ति गोरोचन का तिलक अपने ललाट पर धारण करता है वह जिसे देखता है, वह तत्काल उसका दास बन जाता है ॥११३-११४॥
मंगलवार के दिन रात्रि के समय स्मशान से अङ्गार लाकर काले कपडे में उसे लपेट कर और लाल धागोम से उसे बाँध कर मूल मन्त्र से १०० बार जप कर शत्रु के घर में फेंक दे तो एक सप्ताह के भीतर शत्रु का परिवार सहित उच्चाटन हो जाता है ॥११४-११६॥
रविवार को रात्रि में पुरुष की हड्डी पर सैन्धव एवं हल्दी से मूल मन्त्र लिखकर १००० मन्त्रों से उसे अभिमन्त्रित कर शत्रु के घर में फेक देने से वह पदच्युत हो जाता है और खेत में फेकने से वहाँ फसल नहीं उगती तथा घोडसाल में फेंक देने से घोडे मर जाते हैं ॥११६-११८॥
भोजपत्र पर षट्कोण, अष्टदल, एवं भूपुर वाला यन्त्र लाक्षारस से लिखकर षट्कोण के मध्य में मूलमन्त्र अथा साध्य व्यक्ति का नाम लिखें, केशरों पर स्वर लिखें तथा अष्टदलोम में कवर्गादि आठ वर्ग लिखकर भूपुर से वेष्टित करें । पुनः इस मन्त्र को पीले कपडे से लपेट कर पीले धागों से बाँध देना चाहिए । इस यन्त्र को बच्चोम के गले में बाँधने से भूत प्रेतादिकों के भय से उनकी रक्षा हो जाती है । स्त्रियों को बाएँ हाथ मे धारन करणे से पुत्र और सौभाग्य की वृद्धि होती है । पुरुषों को दाहिनी भुजा में धारण करने से निर्धन को धन और जिज्ञासुओं को ज्ञान, तथा राजा को विजय प्राप्त होती है ॥११८-१२१॥
इस मन्त्र को पूर्वकाल में गौतमादि महर्षियों ने धारण किया था, जिससे उनको मुक्ति प्राप्त हुई । राजर्षियों ने साम्राज्य प्राप्त किया । इस विषय में विशेष क्या कहें ? यह यन्त्र मनुष्योम की मनोवांछित सिद्धि कवित्त्व, राजसम्मान, कीर्ति, आयु एवं आरोग्य प्रदान करता है । कलियुग में तारा के समान सर्वसिद्धिदायक कोई अन्य देवता नहीं है । अतः मनोभिलषित चाहने वालों को यह विद्या गोपनीय रखनी चाहिए ॥१२२-१२४॥