जो मानै मेरी हित सिखवन ॥
तो सत्य कहूँ निज मनकी बात, सहिये हिम-तप-वर्षा-रु-वात ।
कसिये मनको सब भाँति तात, जासों छूटै यह आवागमन ॥
पहिले पक्षी पृथ्वी पगुरत, फिर पंख जमे नभमें बिचरत ।
अवसर आये जलमें पैरत, पै भूलत नहिं निज मीत पवन ॥
करुनानिधानकी बानि हेरि, पुनि महामंत्र गज ध्वनिसों टेरि ।
'केशी' सिय-स्वामिनि केरि चेरि, समुझावति ध्यायिय सीतारवन ॥