चाहै तू योग करि भृकुटीमध्य ध्यान धरि,
चाहै नाम रुप मिथ्या जानिकै निहार लै ।
निरगुन, निरभय, निराकार ज्योति ब्याप रही,
ऐसो तत्त्वज्ञान निज मनमें तू धार लै ॥
नारायन अपनेकौ आप ही बखान करि,
’मोतें वह भिन्न नहीं’ या बिधि पुकार लै ।
जौलौं तोहि नन्दकौ कुमार नाहिं दृष्टि पर्यौ,
तौलौं तू भलै बैठि ब्रह्मकों बिचार लै ॥