जाहि लगन लगी घनस्यामकी ।
धरत कहूँ पग, परत हैं कितहूँ, भूल जाय सुधि धामकी ॥१॥
छबि निहार नहिं रहत सार कछु, घरि पल निसिदिन जामकी ।
जित मुँह उठै तितै ही धावै, सुरति न छाया घामकी ॥२॥
अस्तुति निन्दा करौ भलै ही, मेंड़ तजी कुल गामकी ।
नारायन बौरी भइ डोलै, रही न काहू कामकी ॥३॥
मोहन बसि गयो मेरे मनमें ।
लोक-लाज कुल-कानि छूटि गई, याकी नेह-लगनमें ॥
जित देखों तितही वह दीखै, घर-बाहर, आँगनमें ।
अंग-अंग प्रति रोम-रोममें, छाइ रह्यो तन-मनमें ॥
कुंडल-झलक कपोलन सोहै, बाजूबंद भुजनमें ।
कंकन-कलित ललित बनमाला, नूपुर धुनि चरननमें ॥
चपल नैन, भ्रकुटी बर बाँकी, ठाढ़ो सघन लतनमें ।
नारायन बिन मोल बिकी हौं याकी नैंक हसनमें ॥
मनमोहन जाकी दृष्टि परत, ताकी गति होत है और और ।
न सुहात भवन, तन असन बसन, बनहीको धावत दौर दौर ॥१॥
नहिं धरत धीर, हिय बरत पीर, ब्याकुल ह्वै भटकत ठौर ठौर ।
कब अँसुवन भर नारायन मन, झाँकत डोलत पौर-पौर ॥२॥