तृतीयस्कन्धपरिच्छेदः - पञ्चदशदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


मतिरिह गुणसक्ता बन्धकृत्तेष्वसक्ता

त्वमृतकृदुपरुन्धे भक्तियोगस्तु सक्तिम् ।

महादनुगमलभ्या भक्तिरेवात्र साध्या

कपिलतनुरिति त्वं देवहुत्यै न्यगादीः ॥१॥

प्रकृतिमहदहङ्काराश्र्च मात्राश्र्च भूता -

न्यपि हृदपि दशाक्षी पुरुषः पञ्चविंशः ।

इति विदितविभागो मुच्यतेऽसौ प्रकृत्या

कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादीः ॥२॥

प्रकृतिगतगुणौघैर्नाज्यते पूरुषोऽयं

यदि तु सजति तस्यां तद्गुणास्तं भजेरन् ।

मदनुभजनतत्त्वालोचनैः साप्यपेयात्

कपिलतनुरिति त्वं देवहुत्यै न्यगादीः ॥३॥

विमलमतिरुपात्तैरासनाद्यैर्मदङ्गं

गरुडसमधिरुढं दिव्यभूषायुधाङ्कम् ।

रुचितुलिततमालं शीलयेतानुवेलं

कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादीः ॥४॥

मम गुणगणलीलाकर्णनैः कीर्तनाद्यै -

र्मयि सुरसरिदोघप्रख्यचित्तनुवृत्तिः ।

भवति परमभक्तिः सा हि मृत्योर्विजेत्री

कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादीः ॥५॥

अहह ! बहुलहिंसासञ्चितार्थैः कुटुम्बं

प्रतिदिनमनुपुष्णन् स्त्रीजितो बाललाली ।

विशति हि गृहसक्तो यातनां मय्यभक्तः

कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादीः ॥६॥

युवतिजठराखिन्नो जातबोधोऽप्यकाण्डे

प्रसवगलितबोधः पीडयोल्लङ्घ्य़ बाल्यम् ।

पुनरपि बत मुह्यत्येव तारुण्यकाले

कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादीः ॥७॥

पितृसुरगणयाजी धार्मिको यो गृहस्थः

स च निपतति काले दक्षिणाध्वोपगामी ।

मयि निहितमकामं कर्म तूदक्यपथार्थं

कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादीः ॥८॥

इति सुविदिवेद्यां देव हे दूवहूतिं

कृतनुतिमनुगृह्य त्वं गतो योगिसङ्घै ।

विमलमतिरथासौ भक्तियोगेन मुक्ता

त्वमपि जनहितार्थं वर्तसे प्रागुदीच्याम् ॥९॥

परम किमु बहूक्त्या त्वत्पदाम्भोजभक्तिं

सकलभयविनेत्रीं सर्वकामोपनेत्रीम् ।

वदसि खलु दृढं त्वं तद्विधूयामयान् मे

गुरुपवनपुरेश त्वय्युपाधत्स्व भक्तिम् ॥१०॥

॥ इति कपिलोपदेशाख्यं पञ्चशदशकं समाप्तम् ॥

लोकमें गुणों -विषयोंमें आसक्त हुई बुद्धि बन्धनकारक होती है और उन विषयोंमें आसक्ति न रखनेवाली बुद्धि मोक्ष प्रदान करती है । विषयसक्तिमें रुकावट डालनेवाला भक्तियोग हैं । वह भक्ति महापुरुषोंका अनुगमन करनेसे उपलब्ध होती है ! अतः इस जगत्में लोगोंका भक्तिकी ही साधना करनी चाहिये — यों कपिलरूपसे अवतीर्ण होकर आपने माता देवहूतिको उपदेश दिया था ॥१॥

मूलप्रकृति , महत्तत्त्व , अहंकार , पञ्चतन्मात्रा , पञ्चतन्मात्रा , पञ्चमहाभूत , मन , पॉंच कर्मेन्द्रिय तथा पॉंच ज्ञानेन्द्रिय -यों दस इन्द्रियॉं और पचीसवॉं पुरुष —— इस प्रकार जिसे विभागका ज्ञान हो गया है , वह जीव मायासे मुक्त हो जाता है — यों कपिलरूपसे अवतीर्ण होकर आपने माता देवहूतिको उपदेश दिया था ॥२॥

प्रकृतिगत गुणसमूहसे यह जीव उपरत नहीं होता , परंतु यदि यह प्रकृतिमें आसक्त होता है तो प्रकृतिके गुण जीवको वशीभूत कर लेते हैं । वह प्रकृति भी मेरे निरन्तर भजन और मेरे तत्त्वके आलोचनसे (ईश्र्वर -प्रणिधान तथा ब्रह्मज्ञानसे ) दूर हट जाती हैं —— यों कपिलरूपसे अवतीर्ण होकर आपने माता देवहूतिको उपदेश दिया था ॥३॥

शुद्ध बुद्धिवाले पुरुषको चाहिये कि वह अभ्यासमें लाये हुए आसनादिद्वारा मेरे उस रूपका -जो गरुड़पर आरूढ है , दिव्य भूषण तथा आयुधोंसे विभूषित हैं और जिसकी कान्तिकी तुलना तमालवृक्षसे की जाती है — प्रतिक्षण अनुशीलन करे —— यों कपिलरूपसे अवतीर्ण होकर आपने माता देवहूतिको उपदेश दिया था ॥४॥

मुझ ईश्र्वरके गुणसमूहों तथा लीलाओंके श्रवणसे और कीर्तन आदि भक्तियोंद्वारा मुझमें गङ्गाके प्रवाह -सदृश निरन्तर प्रवाहित होनेवाली चित्तवृत्तिरूप परम भक्ति उत्पन्न होती है । वह भक्ति जनन -मरणरूप मृत्युलोकपर विजय पानेवाली होती है - यों कपिलरूपसे अवतीर्ण होकर आपने माता देवहूतिको उपदेश दिया था ॥५॥

खेद है कि यह जीव बहुविध हिंसाओंद्वारा उपर्जित द्रव्योंसे प्रतिदिन कुटुम्बका भरण -पोषण करता हुआ स्त्रीके वशीभूत हो बच्चोंके लालन -पालनमें निरत रहता है । यों गृहासक्त होनेके कारण इसकी मुझमें भक्ति नहीं होती , जिससे यातनाभोगके लिये यह रौरवादि नरकोंमें प्रवेश करता है — यों कपिलरूपसे अवतीर्ण होकर आपने माता देवहूतिको उपदेश दिया था ॥६॥

यद्यपि माताके गर्भमें पङकर तज्जनित दुःखसे खिन्न हुए जीवको उस असहायवस्थामें अकस्मात् ज्ञान उत्पन्न हो जाता है , तथापि प्रसवकालमें उसका वह ज्ञान नष्ट हो जाता है । जन्म लेनेके पश्र्चात् बङे कष्टसे बाल्यावस्थाको पार करके युवावस्था आनेपर वह पुनः विषय -विमोहित हो जाता है (जिससे उसे नरककी प्राप्ति होती है )—— यों कपिलरूपसे अवतीर्ण होकर आपने माता देवहूतिको उपदेश दिया था ॥७॥

जो गृहस्थ (काम्य फलकी कामनासे ) पितृगण तथा देवगणका पूजन करनेवाला और धार्मिक होता है वह दक्षिणमार्गसे अर्थात धूमादि मार्गसे जाता है और समयानुसार पुण्यक्षय होनेपर पुनरावृत्तिका भागी होता है । परंतु जो अपने निष्काम कर्मको मुझे समर्पित कर देता है वह अर्चिरादि उत्तरमार्गसे जानेका अधिकारी होता है (जिससे उसकी पुनरावृत्ति नहीं होती )—— यों कपिलरूपसे अवतीर्ण होकर आपने माता देवहूतिको उपदेश दिया था ॥८॥

हे देव ! इस प्रकार जिसे वेद्य वस्तु —— ब्रह्मका भलीभॉंति ज्ञान हो चुका था अतएव जो आपका स्तवन करनेमें तल्लीन थी , उस माता देवहुतिपर अनुग्रह करके आप योगिसमुदायके साथ वहॉंसे चले गये । इधर विमल बुद्धिवाली देवहूति भक्तियोगके बलसे मुक्त हो गयी और आप भी लोक -कल्याणार्थ पूर्वोत्तर दिशामें स्थित हो गये ॥९॥

परमपुरुष ! अधिक कहनेसे क्या लाभ ? आपके चरण -कमलोंकी भक्ति समस्त भयोंका उपशमन करनेवाली तथा सम्पूर्ण अभीष्टोंकी प्राप्ति करानेवाली है —ऐसा आप निश्र्चयपूर्वक कहते हैं । इसलिये गुरुपवनपुरेश ! मेरे रोगोंका विनाश करके अपनेमें मेरी प्रेमलक्षणा भक्तिका आधान कर दीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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