तृतीयस्कन्धपरिच्छेदः - एकादशदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


क्रमेण सर्गे परिवर्धमाने कदापि दिव्याः सनकादयस्ते ।

भवद्विलोकाय विकुण्ठलोकं प्रपेदिरे मारुतमन्दिरेश ॥१॥

मनोज्ञनैःश्रेयसकानननाद्यैरनेकवापीमणिमन्दिरैश्र्च ।

अनौपमं तं भवतो निकेतं मुनीश्र्वराः प्रापुरतीतकक्ष्याः ॥२॥

भवद्दिदृक्षून् भवनं विविक्षून् द्वाःस्थौ जयास्तान् विजयोऽप्यरुन्धाम ।

तेषा चं चित्ते पदमाप कोपः सर्वं भवत्प्रेरणयैव भूमन् ॥३॥

वैकुण्ठलोकानुचितप्रचेष्टौ कष्टौ युवां दैत्यगतिं भजेतम् ।

इति प्रशप्तौ भवदाश्र्यौ तौ हरिस्मृतिर्नोऽरिस्त्वति नेमतुस्तान् ॥४॥

तदेतदाज्ञाय भवानवाप्तः सहैव लक्ष्म्या बहिरम्बुजाक्ष ।

खगेश्र्वरांसार्पितचारुबाहुरानन्दयंस्तानभिराममूर्त्या ॥५॥

प्रसाद्य गीर्भिः स्तुवतो मुनीन्द्राननन्यनाथावथ पार्षदौ तौ ।

संरम्भयोगेन भवैस्त्रिभिर्मामुपेतमित्यात्तकृपं न्यागादीः ॥६॥

त्वदीयभृत्यावथ कश्यपात्तौ सुरारिवीरावृदितौ दितौ द्वौ ।

संध्यासमुत्पादनकष्टचेष्टौ यमौ च लोकस्य यमाविवान्यौ ॥७॥

हिरण्यपूर्वः कशिपुः किलैकः परो हिरण्याक्ष इति प्रतीतः ।

उभौ भवन्नाथमशेषलोकं रुषा न्यरुन्धां निजवासनान्धौ ॥८॥

तयोर्हिरण्याक्षमहासुरेन्द्रो रणाय धावन्ननवाप्तवैरी ।

भवत्प्रियां क्ष्मां सलिले निमज्ज्य चचार गर्वाद्विनदन् गदावान् ॥९॥

ततो जलेशात् सदृशं भवन्तं निशम्य बभ्राम गवेषयंस्त्वाम् ।

भक्तैकदृश्यः स कृपानिधिस्त्वं निरुन्धि रोगान् मरुदालयेश ॥१०॥

॥ इति हिरण्यकशिपूत्पत्तिवर्णनमेकादशदशकं समाप्तम् ॥

मारुतमन्दिरेश ! यों क्रमशः सृष्टिकी वृद्धि होनेपर वे दिव्य सनकादि किसी समय आपका दर्शन करनेके लिये विकुण्ठलोकमें पहुँचे ॥१॥

आपका निवासभूत वह विकुण्ठलोक परम मनोहर कैवल्यरूप काननों तथा अनेकों बावलियों एवं रत्ननिर्मित भवनोंसे युक्त होनेके कारण अनुपम था , उसकी कक्षाओंको पार करते हुए वे मुनीश्र्वर आपकी सातवीं कक्षाके द्वारपर जा पहुँचे ॥२॥

उनके मनमें आपके दर्शनकी उत्कट अभिलाशा थी , अतः वे आपके भवनमें प्रवेश करना चाहते थे । उसी समय जय -विजय नामक द्वारपालोंने उन्हें रोक दिया । तब उनके हृदयमें क्रोध उत्पन्न हो गया । भूमन् ! यह सब आपकी प्रेरणासे ही घटित हुआ ॥३॥

तदनन्तर वे द्वारपालोंको शाप देते हुए बोले - ‘तुमलोगोंकी चेष्टा वैकुण्ठलोकके लिये अनुचित है तथा तुम्हारा स्वभाव बड़ा क्रूर है , अतः तुम दोनों आसुरी योनिको प्राप्त हो जाओ । ’ इस प्रकार शापित हुए आपके दोनों किंकर जय -विजय ‘हम भगवत्स्मृति होती रहे ’ यों प्रार्थना करते हुए उन मुनियोंके चरणोंपर गिर पड़े ॥४॥

कमलनयन ! उस अवसरपर जब आपको उपर्युक्त घटना ज्ञात हुई तब आप तुरंत ही लक्ष्मीके साथ भवनसे बाहर निकले और अपनी मनोहर मूर्तिका दर्शन देकर उन मुनियोंको आनन्दित किया । उस समय आपने अपनी सुन्दर भुजाको गरुड़के कंधेपर स्थापित कर रखा था ॥५॥

तदनन्तर आप स्तुति करनेवाले उन मुनीश्र्वरोंको मधुर वाणीद्वारा प्रसन्न करके अपने अनन्यशरण उन दोनों पार्षदोंसें कृपा -परवश हो यों बोले —‘तुम दोनों तीन जन्मोमें क्रोधजनित एकाग्रताद्वारा पुनः मेरे समीप आ जाओगे ’ ॥६॥

तदनन्तर वे ही आपके दोनों पार्षद जय -विजय कश्यपद्वारा दितिके गर्भसे दो असुरवीर (हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष ) होकर उत्पन्न हुए । वे दोनों जुडवॉं पैदा हुए थे तथा संध्या -कालमें गर्भाधान होनेके कारण वे इतने क्रूरकर्मा थे मानो लोकके लिये दो अन्य यमराज ही हों ॥७॥

कहते हैं —उनमेसें एक (ज्येष्ठ ) हिरण्यकशिपु तथा दूसरा (अनुज ) हिरण्याक्ष नामसे प्रसिद्ध हुआ । अपने आसुर स्वभावके कारण वे दोनों परमार्थज्ञानसे भ्रष्ट हो गये थे , अतः वे सम्पूर्ण लोकको , जिसके रक्षक आप ही हैं , क्रोधवश पीड़ीत करने लगे ॥८॥

उन दोनोमें महान् असुरश्रेष्ठ हिरण्याक्ष त्रिलोकीमें युद्धके लिये घूमता फिरा ; परंतु जब उसे अपने अनुकूल शत्रु नहीं प्राप्त हुआ , तब वह आपकी प्रिया पृथ्वीको प्रलयार्णवमें निमज्जित करकें गदा लेकर गर्वसे दहाड़ता हुआ घूमने लगा ॥९॥

तदनन्तर वरुणके मुखसे आपको अपने सदृश बली सुनकर वह आपको खोजता हुआ भ्रमण करने लगा । परंतु कृपानिधि आप तो अपने भक्तोंद्वारा ही देखे जा सकते हैं । अतः वायुपुराधीश्र्वर ! आप मेरे रोगोंका विनाश कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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