तृतीयस्कन्धपरिच्छेदः - नवमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


स्थितः स कमलोद्भवस्तव हि नाभिपङ्केरुहे

कृतस्सिवदिदमम्बुधावुदितामित्यनालोकयन्।

तदीक्षणकुतूहलात् प्रतिदिशं विवृत्तानन -

श्र्चतुर्वदनतामगाद्विकसदष्टदृष्ट्यम्बुजाम् ॥१॥

महार्णवविघूर्णितं कमलमेव तत्केवलं

विलोक्य तदुपाश्र्चयं तव तनुं तु नालोकयन् ।

क एष कमलोदरे महति निस्सहायो ह्यहं

कुतस्स्विदिदमम्बुजं समजनीति चिन्तामगात् ॥२॥

अमुष्य हि सरोरुहः किमपि कारणं सम्भवेदिति स्म कृतानिश्र्चयः स खलु नालरन्ध्राध्वना ।

स्वयोगबलविद्यया समवरूढवान् प्रौढधी -

स्वत्वदीयमतिमोहनं न तु कलेवरं दृष्टवान् ॥३॥

ततः सकलनालिकाविवरमार्गगो मार्गयन्

प्रयस्य शतवत्सरं किमपि नैव संदुष्टवान् ।

निवृत्त्य कमलोदरे सुखनिषण्ण एकाग्रधीः

समाधिबलमादधे भवदनुग्रहैकाग्रही ॥४॥

शतेन परिवत्सरैर्दृढसमाधिबन्धोल्लसत् -

प्रबोधविशदीकृतः स खलु पद्मिनीसम्भवः ।

अदृष्टचरमद्भुतं तव हि रूपमन्तर्दृशा

व्यचष्ट परितुष्टधीर्भुजगभोगभागाश्रयम् ॥५॥

किरीटमकुटोल्लसत्कटकहारकेयूरयुङ् -

मणिस्फुरितमेखलं सुपरिवीतपीताम्बरम् ।

कलायकुसुमप्रभं गलतलोल्लसत्कौस्तुभं

वपुस्तदयि भावये कमलजन्मने दर्शितम् ॥६॥

श्रुतिप्रकरदर्शितप्रचुरवैभव श्रीपते

हरे जय जय प्रभो पदमुपैषि दिष्ट्या दृशोः ।

कुरुष्व धियमाशु मे भुवननिर्मितौ कर्मठा -

मिति द्रुहिणवर्णितस्वगुणबृंहिमा पाहि माम् ॥७॥

लभस्व भुवनत्रयीरचनदक्षतामक्षतां

गृहाण मदनुग्रहं कुरु तपश्र्च भूयो विधे ।

भवत्वखिलसाधनी मयि च भक्तिरत्युत्कटे -

त्युदीर्य गिरमादधा मुदितचेतसं वेधसम् ॥८॥

शतं कृततपास्ततः स खलु दिव्यंसंवत्सरा -

नवाप्य च तपोबलं मतिबलं च पूर्वाधिकम् ।

उदीक्ष्य किल कम्पितं पयसि पङ्कजं वायुना

भवद्बलविजृम्भितः पवनपाथसी पीतवान् ॥९॥

ततैव कृपया पुनः सरसिजेन तेनैव स

प्रकल्प्य भुवनत्रयीं प्रववृते प्रजानिर्मितौ ।

तथाविधकृपाभरो गुरुमरुत्पुराधीश्र्वर

त्वमाशु परिपाहि मां गुरुदयोक्षितैरीक्षितैः ॥१०॥

॥ इति जगत्सृष्टिप्रकारवर्णनं नवमदशकं समाप्तम् ॥

तदनन्तर वे कमलयोनि ब्रह्मा आपके नाभिकमलकी कर्णिकापर स्थित होकर यह सोचने लगे कि ‘इस एकार्णवमें यह कमल कहॉं प्रकट हो गया ?’ परंतु उन्हें तत्त्व ज्ञान नहीं हुआ । तब उस कमलके उत्पत्तिस्थानको देखनेके कुतूहलसे चारों दिशाओंमें उनके मुख प्रकट हो गये । अस प्रकार वे चार मुखोंसे युक्त हो गये , जिनमें आठ नेत्रमकमल विकसित हो रहे थे ॥१॥

उन्हें उस महार्णवमें केवल वह कमल ही कम्पित होता हुआ दीख रहा था , परंतु उसका अधिष्ठानभूत आपका शरीर दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था । तब वे यों चिन्ता करने लगे कि ‘इस महान् कमलके उदरमें यह अकेला मैं कौन हूँ और यह कमल कहॉंसे प्रकट हो गया ?’ ॥२॥

उनकी बुद्धि प्रौढ़ (ऊहापोहमें निपुण ) थी ही , अतः वे ‘इस मेरे निवासभूत कमलका कोई कारण अवश्य होगा ’ यों निश्र्चय करके योगबलसहित आत्मज्ञानके सहारे उस कमल -नालके छिद्रमार्गसे नीच उतरे । फिर भी आपका परम मनोहर श्रीविग्रह उनके दृष्टिपथमें नहीं आया ॥३॥

तदनन्तर वे उस कमलके सम्पूर्ण नालछिद्रमें क्रमशः विचरण करते हुए अन्वेषण करने लगे । इस तरह एक सौ दिव्य वर्षोंतक प्रयास करनेपर भी उन्हें वस्तु दिखायी न पड़ी । तब वे लौटकर उस कमल -कर्णिकापर सुखपूर्वक आसीन हो गये । फिर तो उन्होंने बुद्धिको एकाग्र करके एकमात्र आपके अनुग्रहका ही आग्रही होकर समाधिबलका आश्रय लिया ॥४॥

यों सैकड़ों दिव्य वर्षोंतक सुढृढ़ समाधिबन्धसे जब उनका ज्ञान उल्लसित एवं निर्मल हो गया , तब उन पद्मजन्माको अन्तर्दृष्टिद्वारा आपका वह अद्भुत रूप दिखायी दिया , जिसका दर्शन पहले कभी नहीं हुआ था और जिसने शेषनागके शरीरभागको अपना आश्रयस्थान बना रखा था । उसे देखकर ब्रह्मा परम संतुष्ट हो गये ॥५॥

मस्तकपर धारण किये हुए किरीट -मुकुटसे उस रूपकी अद्भुत शोभा हो रही थी ; वह कङ्कण , मुक्ताहार तथा बाजूबंदसे सुशोभित था , उसका कटिप्रदेश नाना प्रकारकी मणियोंद्वारा निर्मित करधनीसे चमक रहा था , पीताम्बर उसका सुन्दर परिधान था , कण्ठप्रदेश कौस्तुभमणिसे उद्भसित हो रहा था , उससे कलाय -पुष्पके समान श्यामल प्रभा छिटक रही थी । अयि भगवन् ! ऐसे जिस श्रीविग्रहका आपने कमलयोनि ब्रह्माको दर्शन कराया था , आपके उसी रूपका मैं ध्यान करता हूँ ॥६॥

लक्ष्मीपते ! ‘उपनिषद् -वाक्यसमूह आपके महान् ऐश्र्वर्यका प्रतिपादन करते रहते हैं । हरे ! आपकी जय हो , जय हो । प्रभो ! सौभाग्यसे ही आप मेरे दृष्टिगोचर हुए हैं । अब शीघ्र ही मेरी बुद्धिको लोकनिर्माणकार्यंमें समर्थ बना दीजिये । ’ यों ब्रह्माद्वारा जिनके गुणोंकी महिमाका वर्णन किया गया हैं , ऐसे आप मेरी रक्षा कीजिये ॥७॥

( तदनन्तर ) ‘ ब्रह्मन् ! त्रिलोकीकी रचनामें कभी क्षीण न होनेवाली दक्षता प्राप्त हरो , मरे अनुग्रह लो और पुनः तप करो। साथ ही , तुम्हें मेरे प्रति सब कुछ सिद्ध करनेवाली तीव्रतम भक्ति प्राप्त हो ’—— ऐसी बात कहकर आपने ब्रह्माके चित्तको हर्षविभोर कर दिया ॥८॥

तत्पश्र्चात् ब्रह्माने एक सौ दिव्य वर्षोंतक तपस्या की , जिससे उन्हें पहलेसे अधिक तपोबल तथा बुद्धिबलकी प्राप्ति हुई । तब उस एकार्णवके जलमें अपने अधिष्ठानभूत कमलको उत्कट वायुद्वारा कम्पित होते देखकर उन्होंने उस वायु तथा जलको पी लिया ; क्योंकि उस समय आपका बल पाकल उनकी शक्ति बहुत ब़ढ़ी -चढ़ी थी ॥९॥

पुनः वे आपकी कृपासे ही उसी कमलके द्वारा भूः -भुवः -स्वः - स्वरूप त्रिलोकीकी कल्पना करके प्रजाके निर्माणकार्यमें प्रवृत्त हो गये । गुरुवायुपुराधीश्र्वर ! आप वैसी कृपासे परिपूर्ण हैं , अतः अपने महती दयासे आदर्‌र हुए दृष्टिपातोंद्वारा शीघ्र ही मेरी रक्षा कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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