बाण n. एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से एक था ।
बाण II. n. एक सुविख्यात असुर, जो अस्रु राजा बलि वैरोचन का पुत्र था । शिव का पार्षद होने के कारण, इसे महाकाल नामान्तर भी प्राप्त था
[म.आ.५९.२०-२१] । पद्म में इसे ‘भूतों’ का राजा कहा गया है
[पद्म.२५.११] । यह सहस्त्रबाहु होने के कारण, अत्यधिक पराक्रमी एवं युद्ध में अजेय था । बलिपत्नी अशना से उत्पन्न हुए शतपुत्रों में यह ज्येष्ठ था । मत्स्य में इसकी माता का नाम विंध्यावलि दिया गया है
[मत्स्य.१८७.४०] । इसकी राजधानी दैत्यों के सुविख्यात त्रिपुरों में से शोणितपुर में थी । कई ग्रंथों मे, उस नगरी का निर्देश ‘लोहितपुर’ नाम से भी किया गया है । हरिवंश में बाणकी जीवनकथा विस्तृत रुप में दी गयी है
[ह.वं.२.११६-१२८] । दैत्यों की ये त्रिपुर नगरियों आकाश में सदैव संचरण किया करती थीं । ये निर्भेद्य थी, जिन्हें कोई जीत न सकता था । इसके रहस्य का कारण थीं दैत्य स्त्रियॉं, जिनके पतिसेवा के प्रभाव से ये नगरियॉं पृथ्वी पर न आतीं थी तथा आकाश में ही तैरती थी । दैत्य लोग इन नगरियों में रहते तथा देवों एवं ऋषियों के आश्रमों में जाकर उत्पात मचाते । इससे अब कर देव ऋषि आदि भगवान् शंकर के पास गये, तथा अपने कष्टो का निवेदन कर उबारने के लिए प्रार्थना की । शंकर भगवान ने भक्तों की मर्मांतक वाणी को सुनकर नारद को स्मरण किया । याद करते ही, स्मरणगामी नारद तत्काल प्रकट हुए । शंकर ने देवर्षि नारद से निवेदन किया कि, वह राक्षसों की नगरियों में जाकर वहॉं की पत्नियों का ध्यान पतिसेवा से हटाकर दूसरी ओर लगा दें, जिससे ये नगर पृथ्वी पर आ सकें, तथा इन अजेय राक्षसों का नाश हो सके । शंकर के वचनों को स्वीकार कर, नारद वहॉं गया, तथा वहॉं की स्त्रियों को विभिन्न प्रकार के अन्य धार्मिक पूजा-पाठों की ओर उनका ध्यान आकर्षित कर पतिसेवा व्रत से हटा दिया । जिसके कारण, नगरों की शक्ति कम होने लगी । ऐसी स्थिति देखकर, शंकर ने तीन नोकों वाले बाण से तीनों नगरों को वेध दिया । शंकर ने अग्नि को भी आज्ञा दी कि, ये त्रिपुर नगरियों को जला दे जाय । अग्नि ने आज्ञा पाते हे उन्हें भस्मीभूत करना शुरु किया ।
बाण II. n. नगरों को जलता देख कर, बाण अपनी नगरी से अपने उपास्यदेव का शिवलिंग साथ ले कर बाहर निकला । यह शिवभक्त था, अतएव अपने को कष्ट में पाकर इसने ‘तोटक छन्द’ के द्वारा, शंकर की पूजा कर के उसे प्रसन्न किया । प्रसन्न हो कर शंकर ने इसकी शोणितपुर नगरी बचा दी, तथा अन्य दो को जलने दिया । वे दोनों जलकर क्रमशः ‘शैल’ तथा ‘अमरकंटक’ पर्वत पर गिरी । इसी कारण उन दो स्थानों पर दो तीर्थ बन गये
[मत्स्य. १८७-१८८] ;
[पद्म. स्व. १४-१५] । एक बार खेल में निमग्न शिवपुत्र कार्तिकेय को देख कर यह प्रसन्नता से विभोर हो उठा । तथा इसके मन में यह इच्छा जागृत हुयी कि मैं शंकर-पुत्र बनूँ । यह सोच कर इसने कडी तपस्या की, जिससे प्रसन्न हो कर शंकर ने इसे वर मॉंगने के लिए कहा । इसने शंकर से प्रार्थना की, ‘मेरी उत्कट अभिलाषा है कि, कार्तिकेय की भॉंति माता पार्वती मुझे पुत्र के रुप में ग्रहण करे’। शंकर ने वरप्रदान करते हुए, कार्तिकेय के जन्मस्थान का नित्य के लिए इसे अधिपति बनाया
[ह.वं.२.११६.२२] । कार्तिकेय ने प्रसन्न हो कर इसे अपना तेजस्वी ध्वज एवं मयूर वाहन प्रदान किया । शिवपुत्र द्वारा दिये गये ध्वज में मयूर की छाप थी, जिसका सर मयूर का न हो कर मनुष्य का था
[ह.वं.१.११६.२२] ;
[शिव. रुद्र. यु.५३] । शंकर द्वारा प्राप्त वरों का निर्देश शिव पुराण में भी प्राप्त है, लेकिन उसमें कुछ भिन्नता हैं । शिवपुराण में लिखा है कि, इसने भगवान शंकर के साथ ताण्डव में भाग लेकर अत्यधिक सुन्दर नृत्य किया था, जिससे प्रसन्न हो कर इसे ये वर प्राप्त हुए थे । इसके सिवाय इसने शंकर से यह भी वर मॉंगा कि, वह भविष्य में उसके परिवार का रक्षण करता हुआ इसे चिरन्तन आनंद प्रदान करता रहेगा । शंकर ने इसे यह वरदन दे कर, वह स्वयं अपने पुत्र कार्तिकेय एवं गणेश के साथ इसकी रक्षार्थ इसके नगर में रहने लगा
[शिव.रुद्र.यु.५१] । भागवत के अनुसार, तांडवनृत्य के समय इसने शिव के साथ वाद्यवादन किया था, जिससे प्रसन्न हो कर उसने इसे उक्त वरप्रदान किये थे
[शिव. रुद्र. यु.५१] । भागवत के अनुसार, तांडवनृत्य के समय इसने शिव के साथ वाद्यवादन किया था, जिससे प्रसन्न हो कर उसने इसे उक्त वरप्रदान किये थे
[भा.१०.६२] । बाण ने शंकर द्वारा प्राप्त किये हुए इन वरों के बल पर, अनेकानेक बार इन्द्रादि देवों को जीत कर, जब जैसा चाहा किया । किसी में इतनी शक्ति न थी, जो इसके तेज के सामने ठहर सके । एक बार महाबली बाण ने शंकर से कहा, ‘मेरी अनंत शक्ति मेरे अंदर लडने के लिए मुझे मजबूर कर रही है; पर कोई भी मेरी टक्कर का नजर नहीं आ रहा । हजा बाहुओं को तृप्ति करने के लिए मैं दिग्गजों से भी लडने गया, पर वे भी मेरी शक्ति के सामने ठहर न सके । अब मै युद्ध करना चाहता हूँ । मुझे उसमें ही शान्ति है । यह युद्ध कब होगा?’ उत्तर देते हुए शंकर ने कहा ‘जिस दिन कार्तिकेय द्वारा दिया गया ध्वज ध्वस्त होगा, उसी के बाद तुम्हरी यह इच्छा पूर्ण होगी । तुम्हे युद्ध का अवसर प्राप्त होगा’। पश्चात इसके ध्वज पर इन्द्र का वज्र गिरा, तथा वह ध्वस्त हो गया ।
बाण II. n. इसके उषा नामक एक कन्या थी, जो अत्यधिक नियंत्रण में रख्खी जाती थी । एक बार एक पहरेदार द्वारा इसे यह सूचना प्राप्त हुई कि, उषा किसी परपुरुष से अपने सम्पर्क बढा रही हैं । इससे संतप्त होकर, सत्यता जानने की इच्छा से यह उसके महल गया । वहॉं इसने देखा कि, उषा एक पुरुष के साथ द्यूत खेल रही है । दोनों को इस प्रकार निमग्न देखक्र यह क्रोध से लाल हो उठा, तथा अपने शस्त्रास्त्र तथा गणों के साथ उस पर आक्रमण बोल दिया । पर उस पुरुष का बाल बॉंका न हुआ । उसने बाण के हर वार का कस कर मुकाबला किया । वह पुरुष कोई साधारण नहीं, वरन् कृष्ण का पौत्र अनिरुद्ध हीं था । अन्त में बाण ने अपने को गुप्त रखकर अनिरुद्धपर् नागपाश छोडे । उन नागों ने उषा तथा अनिरुद्ध को चारों ओर से जकड लिया, तथा दोनों कारागार में बन्दी बनाकर डाल दिये गये ।
बाण II. n. अनिरुद्ध के कारावास हो जाने की सूचना जैसे हे कृष्ण को प्राप्त हुयी, वह अपनी यादव सेना के साथ शोणितपुर पहुँचा, तथा समस्त नगरी को सैनिकों से घेर लिया । दोनों पक्षों में घनघोर युद्ध हुआ । बाण्की रक्षा के लिए उसकी ओर से शंकर भगवान्, कार्तिकेय एवं गणेश भी थे । इस युद्ध में गणेश का एक दॉंत भी टूटा, जिससे उसे ‘एकदंत’ नाम प्राप्त हुआ । इस युद्ध में, पद्म के अनुसार, बाण का युद्ध सबसे पहले बलराम से हुआ, अथा भागवत एवं शिवपुराण के अनुसार, इसका सर्वप्रथम युध सात्यकि से हुआ । कृष्ण के साथ इसका युद्ध बाद में हुआ, जिसमें कृष्ण के अपार बलपौरुष के समक्ष इसके सभी प्रयत्न असफल हो अये । इन समस्त युद्धों में, पहले बाण की ही जीत नजर आती थी; किन्तु अन्त में इसको हर एक युद्ध में पराजय का ही मुँह देखना पडा । अन्त में जैसे ही कृष्ण ने सुदर्शन चक्र के द्वारा इसका वध करना चाहा, वैसे ही अष्टावतार लम्बा के रुप में पार्वती इसके संरक्षण के लिए नग्नावस्था में ही दौडी आई । भागवत में पार्वती के इस रुप को ‘कोटरा’ कहा गया है । इसके पूर्व भी, इसी युद्ध में पार्वतीजी अपने पुत्र कार्तिकेय की रक्षा के लिये आई थी, तथा उन्हें अब दुबारा इसकी रक्षा के लिए आना पडा, क्योंकि वह वचनबद्ध थीं । कृष्ण ने पार्वती से अलग रहएन के लिए कहा, किन्तु वह न मानी तथा कृष्ण से निवेदन किया, ‘यदि तुम चाह्ते हो कि मैं पुत्रवती रहूँ, मेरा पुत्र जीवित रहे, तो बाण को जीवनदान दो । मैं इसकी रक्षा के ही लिये तुम्हारे सम्मुख हूँ’। कृष्ण ने प्रत्युत्तर देते हुए कहा ‘मैं तुम्हारी उपेक्षा नहीं कर सकता, किन्तु यह अहंकारी हैं, इसे अपने हजार बाहुओं पर गर्व है; अतएव इसके दो हाथों को छोडकर समस्त हाथों को नष्ट कर दूँगा’। इतना कह कर कृष्ण ने इसको दो हाथों को छोडकर शेष हाथ काट दिये
[पद्म.३.२.५०] । भागवत तथा शिवपुराण के अनुसार विष्णु ने इसके चार हात रहने दिये, तथा शेष काट डाले
[भा.१०.६३.४९] । शिवपुराण में कृष्ण द्वारा इसका वध न होने कारण दिया गया है । जब कृष्ण ने इसका वध करना चाहा, तब शिव ने उसने कहा ‘दधीचि, रावण एवं तारकासुर जैसे लोगों का वध करने के पूर्व तुमने मेरी संमति ली थी । बाण मेरे लिये पुत्रवत है, उसको मैने अमरत्व प्रदान किया है; अतः मेरी यही इच्छा है कि, तुम इसका वध न करो ।
बाण II. n. भागवत के अनुसार कृष्ण ने इसे इसलिये जीवित छोडा, क्यों कि, उसने इसके प्रपितामह प्रह्राद को वर प्रदान किया था कि, वह उसके किसी वंशज का वध न करेगा । इसी कारण इसका वध नही किया, केवल गर्व को चूर करने के लिये हाथ तोड दिये । इसके साथ ही कृष्ण वर दिया, ‘तुम्हारे ये बचे हुए हाथ जरामरण रहित होंगे, एवं तुम स्वयं भगवान् शिव के प्रमुख सेवक बनोंगे
[भा.१०.६३] । युद्ध समाप्त होने पर भगवान् शिव ने भी इसे अन्य वर भी दिये, जिनके कारण इसे अक्षय गाणपत्य, बाहुयुद्ध में अग्रणित्व, निर्विकार शंभभक्ति, शंमुभक्तों के प्रति प्रेम, देवों से तथा विष्णु से निर्वैरत्व, देवसाम्यत्व (अजरत्व एवं अमरत्व) इसे प्राप्त हुए
[शिव.रुद्र.यु ५९] । हरिवंश तथा विष्णु पुराणके अनुसार, शिव ने इसे निम्न वर और प्रदान कियेः---बाहुओं टूटने के वेदना का शमन होना, बाहुओं के टूटने के कारण मिली विद्रूपता का नष्ट होना, शिव की भक्ति करने पर पुत्र की प्राप्ति होना आदि
[ह.वं.२.१२६] ;
[विष्णु.५.३०] ।
बाण II. n. तत्पश्चात् कृष्ण ने इसे बडे सम्मान के साथ द्वारका बुलाया, एवं उषा तथा अनिरुद्ध का विवाह संपन्न कराया । विवाहोपरान्त कृष्ण ने इसे बडे स्नेह से विदा किया । इसने उषा के अनिरुद्ध से उत्पन्न पुत्र को अपने राज्य का उत्तरधिकारी बनाया, जिससे प्रतीत होता है कि इसको कोई पुत्र न था
[शिव.रुद्र.यु.५९] । किन्तु ब्रह्मांड में इसकी पत्नी लोहिनी से उत्पन्न इसके ‘इंद्रधन्वन्’ नामक पुत्र का निर्देश प्राप्त हैं
[ब्रह्मांड ३.५.४५] । इसे ‘अनौषम्या’ नामक और भी अनेक पत्नियॉं थीं, जिनका निर्देश पद्म एवं मत्स्य में प्राप्त है
[पद्म.१४] ;
[मत्स्य.१८७.२५] । ‘नित्याचार पद्धति’ नामक ग्रंथ के अनुसार, बाण के द्वारा चौदह करोड शिवलिंगों की स्थापना देश के विभिन्न भागों में की गयी थी । ये लिंग ‘बाणलिंग’ नाम से सुविख्यात थे । नर्मदा गंगा आदि पवित्र नदियों में प्राप्त शिवलिंगकार पत्थरों को भी, बाणासुर के नाम से ‘बाणलिंग’ कहा जाता है
[नित्याचार. पृ.५५६] ।
बाण II. n. सदाचारसंपन्न एवं परम ईश्वरभक्त हो कर भी जिन असुरों का देवों के द्वारा अत्यंत निर्घृणता के साथ संहार किया गया, उन असुरों में बाण प्रमुख था । इसके वंश में से इसका पिता बलि, इसका प्रपितामह प्रह्राद, एवं इसका पितुःप्रपितामह हिरण्यकशिपु इन सारे राजाओं को देवों के साथ लडना पडा । इससे प्रतीत होता है कि, देव एवं दैत्य जातिओं के पुरातन शत्रुत्व के कारण ये सारे युद्ध उत्पन्न हुए थे । पिढियों से चलता आ रहा यह शत्रुत्व किसी व्यक्ति का व्यक्तिगत शत्रुत्व न हो कर, दो जातिओं का संघर्ष था (बलि वैरोचन देखिये) । बाण की जीवनकथा में शैव एवं वैष्णवों के परंपरागत संघर्षो की परछाइयॉं भी अस्पष्ट रुप से दिखाई देती है । आकाश में तैरती हुयी बाण की शोणितपुर राजधानी किसी पर्वतीय प्रदेश में स्थित नगरी के ओर संकेत करती है । शोणितपुर को लोहितपुर एवं बाणापुर नामान्तर भी प्राप्त थे (त्रिकाण्ड.३२.१७; अभि.१३३. ९७७) । आसाम में स्थित ब्रह्मपुत्रा नदी का प्राचीन नाम भी लोहित ही था । इससे प्रतीत होता है कि, बाण का राज्य सद्यःकालीन आसाम राज्य के किसी पहाडी में बसा होगा । यह पहाडी अत्यंत दुर्गम होने के कारण, देवों के लिये बाण अजेय बना होगा ।
बाण III. n. स्कंद का एक सैनिक
[म,.श.४४.६२] ।