अश्वत्थामन् n. सप्तचिरंजीवों में से एक । द्रोणाचार्य तथा गौतमी कृपी का यह एकमेव पुत्र था । जन्म लेते ही उच्चैःश्रवा अश्व के समान जोर से चिल्ला कर, इसने तीनों लोक कंपित किये । अतः आकाशवाणी ने इसका नाम अश्वत्थामा रखा
[म.आ.१६७.२९] ;
[म.द्रो. १६७.२९-३०] । द्रोणाचार्य का पुत्र होने से, इसे द्रोणि वा द्रोणायन कहते हैं । रुद्र के अंश से उत्पत्ति होने के कारण, इसमें क्रोध तथा तेज था । एक बार, एक धनिक के घरमें उसके पुत्र को गाय का दूध पीते इसने देखा । मुझे भी दूध चाहिए, ऐसा हठ यह करने लगा । उसे संतोष दिलाने के लिये, इसकी माता ने यवपिष्ठ में पानी कर इसे पीने को दिया । उससे, ‘मैंने दूध पिया,’ कह कर यह आनंद से नाचने लगा
[म.आ.परि.१.७५] ; द्रोण देखिये । अश्वत्थामा को शस्त्रास्त्रविद्या की शिक्षा, कौरव-पांडवों के साथ ही द्रोणाचार्य के द्वारा मिली । जाति से ब्राह्मण होते हुए भी, क्षत्रिय की विद्या सीखने के कारण इसमें क्षत्रियधर्म अधिक था । यह द्रौपदीस्वयंवर में
[म.आ.१७७.६] , तथा राजसूय में उपस्थित था
[म.स.३१.८] । भारतीय युद्ध में सब सेनापतियों का पतन होने के पश्चात्, भीम तथा दुर्योधन में गदायुद्ध हो कर, दुर्योधन उस में घायल हुआ । तब उसने अश्वत्थामा को सेनापत्य का अभिषेक किया । उस समय इसने पांडवो का वध करने की प्रतिज्ञा की
[म.श.६४.३५] । इसने अकेले ही पांडवों की एक अक्षोहिणी सेना का संहार किया । अर्जुन तथा भीम के साथ यह काफी देर तक लडा । अंतमें इसका पराभव हुआ
[म. वि.५३-५४] ;
[म.क. ११,१२] । अश्वत्थामा पांडवों को प्रिय था, एवं पांडव भी उसे प्रिय थे । तथापि, ‘तुम पांडवों के पक्षपाती हो,’ ऐसा दुर्योधन द्वारा वाक्ताडन होने पर, उसे उत्तर दे कर, इसने द्रोणपुत्र को शोभा दे ऐसा पराक्रम किया, तथा पांडवसेना का संहार किया
[म. द्रो.१३५] । द्रोण का वध धृष्टद्युम्न द्वारा होने के पश्चात्, जब कौरव सेना हाहाःकार मचाती हुई चारों ओर भागने लगी, तब अश्वत्थामा ने कौरवेश्वर से, ‘किसका वध होने से यह सेना अस्तव्यस्त हो कर दौड रही है,’ ऐसी पूछा
[म. द्रो.१६५] धृष्ठद्युम्न ने अधर्म से अपने पिता का वध किया, यह ज्ञात होते ही अश्वत्थामा ने धृष्टद्युम्न को मारने की प्रतिज्ञा की
[म.क.४२] । पितृवध से संतप्त अश्वत्थामा ने सात्यकी, धृष्टद्युम्न, भीमसेन इ. रथीवीरों का पराभव कर के उन्हें भगा दिया । द्रोणाचार्या के वध से पश्चात्, नीलवीर ने कौरवसेना का विध्वंस प्रारंभ किया, तब अश्वत्थामा ने उसका सिर काट दिया
[म. द्रो.३०.२७] । पांडवसेना पर इसके द्वारा छोडे गये नारायणास्त्र ने अतिसंहार प्रारंभ करने पर, भगवान कृष्ण ने सब को निःशस्त्र होने के लिये कहा । तब वह अस्त्र शांत हुआ
[म.द्रो.१७०-१७१] । इसने पांडवपक्ष के अंजनपर्वादि राक्षस, द्रुपद राजा के सुरथ, शत्रुंजय ये पुत्र तथा कुंतिभोज राज के दस पुत्रों का तथा घटोत्कच का वध किया
[म. द्रो.१३१.१२६-१३१] । सब कौरवों की मृत्यु के पश्चात्, एक बार रात्री के समय, अश्वत्थामा, कृपाचार्य तथा कृतवर्मा यह तीनों विश्रांति के लिये वृक्ष के नीचे लेटे थे । क्या किया जावे, यह अश्वत्थामा सोच रहा था । इतने में एक उल्लू ने छापा मार कर, उस वृक्ष के असंख्य कौएं मार डाले । उस घटना से, एक नयी चाल इसने सोंची, तथा पांडवों की सेना पर रात्रि के समय छापा मारने का निश्चय इसने किया । इस विचार से इसे परावृत्त करने का काफी उपदेश कृतवर्मा तथा कृपाचार्य किया, परंतु उनका न सुनते हुए, अश्वत्थामा अकेला ही छापा डालने के लिये निकल पडा
[म. सौ५] । पांडवों के शिबिरद्वार के पास आते ही, इसने शिबिर की रक्ष करनेवाला एक भयंकर प्राणी देखा । उससे इसने युद्ध आरंभ किया । अश्वत्थामा के किसी भी शस्त्रास्त्र का प्रयोग इस प्राणी पर नही हुआ । इसके सब शस्त्र समाप्त हो गए । वह निरुपाय हो कर, अश्वत्थामा उस शूलपाणि शंकर की शरण में गया
[म.सौ.६] । शंकर की स्तुति करने के पश्चात् , इसने अग्नि में स्वयं अपनी आहुती दी । इससे शंकर प्रसन्न हो कर, उन्होने इसे दर्शन दिये, तथा इसे दिव्य खडग दे कर इसके शरीर में प्रवेश किया
[म. सौ.७] । रात्रि में ही, इसने पांडवों के हजारों सैनिक, द्रौपदी के सब पुत्र, तथा पांचाल, सूत, सोम, धृष्टद्युम्न, शिखंडी आदि अनेक वीरों का नाश किया
[म. सौ.८] इतना कर के, इस घटना कथन करने के लिये, यह कृतवर्मा तथा कृपाचार्य के साथ उस स्थान पर गया, जहॉं दुर्योधन घायल हो कर तडप रहा था । भारतीय युद्ध के संपूर्ण सेना में, केवल पांच पांडव, श्रीकृष्ण तथा हम तीनों ही जिवित हैं, बाकी संपूर्ण सेना का संहार हो गया, यह सुनकर राजा दुर्योधन ने सुख से प्राण छोडे
[म. सौ.९] द्रौपदी के सब पुत्रों का वध अश्वत्यामा द्वारा किये जाने के कारण, उसने अत्यंत शोक किया । अश्वत्थामा के मस्तक का मणि निकाल कर युधिष्टिर के मस्तकपर देखूंगी, तो ही मै जीवित रहूंगी, ऐसी प्रतिज्ञा उसने की । उसकी पूर्ति के लिये भीमसेन ने अश्वत्थामा पर आक्रमण किया
[म.सौ.११] । व्यासादि ऋषिसमुदाय में, अश्वत्थामा धूल से भरा हुआ उसने देखा । अश्वत्थामा के अस्त्रप्रभावें के सामने भीम का कुछ नही चलेगा, ऐसा सोच कर, कृष्ण अर्जुनसमवेत भीम का सहायता के लिये निकला । पांडवों के नाश के लिये, अश्वत्थामा ने ब्रह्मशीर नामक अस्त्र छोडा । उससे पृथ्वी जलने लगी । उसा अस्त्र का प्रतिकार करने के लिये, अर्जुन ने भी वही अस्त्र छोडा । इन दोनों के युद्ध में पृथ्वी का कहीं नाश न हो जाये, यह सोच कर, व्यासादि मुनियों ने इस अविचार के लिय अश्वत्थामा को डॉंट लगाई, तथा मस्तक का दिव्यमणि पांडवों को दे कर शरण जाने के लिये कहा । इसने मणि दिया, परंतु उत्तरा के उदर में स्थित पांडव वंश का नाश करके ही अपना अस्त्र शांत होगा, ऐसा जबाब दिया । तब कृष्ण ने उसे शाप दिया कि, पीप तथा रक्त से भरा दूषित शरीर ले कर, तीन हजार वर्षो तक मूकभाव से यह अरण्यों में घूमेगा । उत्तरा के गर्भ को कृष्ण ने जीवित किया
[म. सौ.१३-१६, १.७.१६] । यह शंकर का अवतार हो कर चिरंजीव है, तथा गंगा के तट पर रहता है
[शिव. शत.३७] । यह सावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षियों में एक होगा (मनु देखिये) । यही व्यास भी होगा (व्यास देखिये) ।
अश्वत्थामन् II. n. अक्रूर के पुत्रों में से एक ।