देवी - पूजा - पटल
राजा सुरथ ने प्रश्न पूछा - हे मुनिश्वर ! अब भगवती जगदम्बा की आराधना - विधि भली भाँति बताने की कृपा कीजिए । साथ ही पूजाविधि, होम विधि तथा मन्त्र - साधना भी समझाइए ।
तब सुमेधा मुनि ने उत्तर दिया - हे राजन् ! सुनिए अब मैं भगवती की पूजा का उत्तम प्रकार बताता हूँ, जिसके प्रभाव से मनुष्यों की अभिलाषाएँ पूर्ण हो जाती हैं, वे परमसुखी, ज्ञानी और मोक्ष के अधिकारी बन जाते हैं ।
देवी पूजा - हे राजन् ! जिस तरह विष्णु सर्वश्रेष्ठ तथा लक्ष्मी सर्वोत्तम हैं, उसी प्रकार काम रुप में देवी की पूजा सर्वोत्तम कही गई हैं । कामरुप देवी का ही क्षेत्र है जहाँ देवी का साक्षात् वास है । इस जैसा क्षेत्र अन्यत्र कहीं नहीं है । देवी अन्यत्र विरला है परन्तु कामरुप में घर - घर में विराजमान हैं । देवी पूजा जैसा कार्य इस क्षेत्र में जितना सिद्धदायक है उतना अन्यत्र कहीं नहीं । यहाँ पूजाकर के मनुष्य वांछित फल प्राप्त करके दीर्घजीवी हो सकता है ।
अनुष्ठान विधि - साधक को चाहिए कि वह पहले शौच स्नान करके पवित्र हो, स्वच्छ वस्त्र धारण कर लें तत्पश्चात् गोबर से लिपे शुद्ध स्थान में आसन पर बैठ, सावधानी से आचमन प्राणायाम करें । साथ ही पूजा सामग्री को जल से पवित्र कर लें । तब प्राणायाम के बाद यथाविधि भूतिशुद्धि एवं प्राण - प्रतिष्ठा करके देवी की मूर्ति को विधिवत् स्थापित करें । मूर्ति के आगे एक शिला रख लाल कपड़े से ढक दें । उस लाल कपड़े पर लिंगस्था देवी ( कामाक्षा देवी ) का यन्त्र स्थापित कर पूजा जपादि करें । कामरुप में सदैव प्रेम पूर्वक देवी का पूजा जपादि ही करें ।
उपरोक्त सब कार्य मास तिथि वार का उच्चारण करके संकल्प पूर्वक मन्त्र के साथ करना चाहिए । चित्र या मूर्ति के सामनि किसी सुन्दर ताम्र - पात्र पर श्वेत तथा रक्त चन्दन से षटकोण यन्त्र लिखें । उसके बाहर अष्टकोण यन्त्र लिखकर उस यन्त्र के प्रत्येक दल में नवाक्षर मन्त्र एक - एक अक्षर लिखकर नवों अक्षर उस यन्त्र की कर्णिका में लिखें । तदनन्तर वेदोक्त या तंत्रोक्त विधि से प्राण - प्रतिष्ठा करके पूजा करें ।
हे राजन् ! उपर्युक्त यन्त्र के अभाव में सोने चाँदी आदि धातु की बनी हुई केवल प्रतिमा का ही पूजन तन्त्रोक्त - विधि से करें । अथवा एकाग्रचित्त होकर वेदोक्त मन्त्रों का उच्चारण करके देवी का ध्यान पूजन विधिवत् करें । नवाक्षर मन्त्र का जप बराबर करता रहे । साथ ही देवी के ध्यान से कभी विरत न हो ।
इस प्रकार अनुष्ठान के बाद दशांश हवन तथा दशांश तर्पण भी करना चाहिए । साथ ही जपानुसार तर्पण को दशांश संख्या में ब्राह्मण भोजन भी करना चाहिए । जब तक अनुष्ठान रहे तब तक प्रतिदिन ' दुर्गा सप्तशती ' के तीनों चरित्रों ( कीलक, कवच, अर्गला सहित त्रयोदश अध्यायों ) का पाठ होना चाहिए । तत्पश्चात् देवी का विसर्जन करना चाहिए । इस प्रकार नवरात्र व्रत का विधान विधिवत् समात करें । हे राजन् ! अश्विन मास तथा चैत्रमास के शुक्ल पक्ष में नवरात्र व्रत होता है । शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक व्रतानुष्ठान एवं व्रतोपवास करके कल्याण चाहने वालों को विधिवत् होम करना चाहिए । सुन्दर खीर एवं शाकल्य में घृत, मधु एवं चीनी मिलाकर जप के मन्त्र ( नवार्ण अथवा जो मन्त्र जपे उन मन्त्रों ) से हवन करें । अथवा बकरे के मांस, विल्वपत्र तथा लाल कनैर एवं जपाकुसुम ( अडहुल ) के फूल में तिल शक्कर मिलाकर हवन करने का विधान है । अष्टमी, नवमी और चतुर्दशी तिथि को विशेष रुपेण देवी का पूजन एवं ब्राह्मण भोजन का विधान है ।
अनुष्ठान फल - हे राजन् ! ऐसा करने से निर्धन व्यक्ति धनवान हो जाता है । रोगी के रोग दूर हो जाते हैं और सन्ताहीन पुरुष को मातृ - पितृ एवं शुभ लक्षणयुक्त पुत्र उत्पन्न होते हैं । यहाँ तक कि राज्यच्युत राजा स्वराज्य प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार महामाया जगदम्बा की कृपा से मनष्य सफल मनोरथ हो जाता है । जो विद्यार्थी इन्द्रियों को वश में करके ब्रह्मचर्य पूर्वक भगवती की आराधना करता है, उसे सर्वोत्तम विद्या प्राप्त हो जाती है । इसमें तनिक भी संशय नहीं । इसलिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रादि कोई भी मनुष्य यदि श्रद्धा भक्तिपूर्वक भगवती की उपासना करें तो अवश्यमेव सुख का भागी होता है । जो स्त्री अथवा पुरुष भक्ति पूर्वक नवरात्र का व्रत करते हैं, उसका मनोरथ कभी विफल नहीं होता । आश्विन मास के शुक्ल पक्ष में जो यह उत्तम नवरात्र व्रत करता है, वह सब प्रकार का मनोवांछित फल प्राप्त करता है ।
देवी पूजा का क्रम - अतः विधिवत् मण्डप बनाकर पूजा स्थान का निर्माण करना चाहिए । सर्वप्रथम वैदिक मन्त्रों द्वारा वेदी पर कलश स्थापन करें । तत्पश्चात् सुन्दर यन्त्र बनाकर कलश के ऊपर रखे और उस कलश के चारों ओर उत्तम जौ बो देना चाहिए । फिर उस मण्डल ( वेदी ) के ऊपर चाँदगी लगा देना चाहिए, जिससे पूरा स्थान सुशोभित हो जाए । उस पूजा मण्डप को यथाशक्ति तोरण पताका एवं पुष्प माला आदि से सजा देना चाहिए । धूप - दीप द्वारा देवी के स्थान को सुगान्धित एवं सुसज्जित कर देना चाहिए । तत्पश्चात् प्रातः मध्याह्न तथा सायंकालीन पूजा विधिवत् करके आरती उतारनी चाहिए । इस कार्य में कृपणता न करनी चाहिए । इस प्रकार देवी के पूजा करके धूप - दीप, नैवेद्य आदि ( षोडशोपचार ) से पूजा करें । पुष्प - पत्र, फल एवं मिष्ठान का प्रसाद विवरण करना चाहिए । साथ ही देवी पुराण, सप्तशती, दुर्गापाठ, वेदपाठ एवं पुराण पाठ के साथ - साथ संगीत एवं कीर्तन का भी प्रबन्ध करना चाहिए । वैभव के अनुसार नृत्य आदि का प्रबन्ध करके देवी क उत्सव मंगल करना चाहिए । अन्त में हवन पूजन के बाद कन्या पूजन भी विधिवत् होना चाहिए । अन्त में हवन पूजन के बाद कन्या पूजन भी विधिवत् होना चाहिए तथा उन कन्याओं को भोजन भी कराना चाहिए । कन्या पूजन में वस्त्र, भूषण, चन्दन, माला तथा अनेक प्रकार के भोज्य पदार्थो एवं सुगान्धित द्रव्यों का व्यवहार अवश्य करना चाहिए । इससे भगवती बहुत प्रसन्न होती है । उपर्युक्त विधि से पूजन करने के बाद अष्टमी या नवमी को विधिवत् मन्त्रोच्चारण पूर्वक होम करें । तब दशमी के दिन ( विजया दशमी ) अपराजिता देवी का पूजन करके शास्त्रादि का पूजन भी करें और ब्राह्मण - भोजन कराकर स्वयं भी व्रत का पालन करें । उस समय यथाशक्ति ब्राह्मणों को दान - दक्षिणा देकर विदा करें ।
इस प्रकार जो पुरुष तथा सधवा या विधवा नारी भी भक्तिपूर्वक नवरात्र व्रत करती है, वह इस लोक में नाना प्रकार के मनोवांछित सुखों का उपभोग करती हैं और अन्त में देह त्याग कर दिव्य देवो लोक में चली जाती है ।
देवी पूजन न करने का परिणाम - जो मनुष्य जड़ता वश देवी के पूजन नहीं करते उनके इस जन्म के और उस जन्म के पुण्य नष्ट हो जाते हैं, वे इस लोक में अनेक प्रकार के रोग से जकड़े रहते हैं, सर्वत्र अनादर के पात्र बने रहते हैं और शत्रुओं से पराजित होकर नाना प्रकार के कष्ट सहते हैं ।