प्रणाम मन्त्र
कामाख्ये कामसम्पन्ने कामेश्वरि हरप्रिये ।
कामनां देहि मे नित्यं कामेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥
अनुज्ञा मन्त्र
कामदे कामरुपस्थे सुभगे सुरसेविते ।
करोमि दर्शनं देव्याः सर्वकामार्थसिद्धये ॥
यह चलन्ता, हरगौरी अथवा भोगमूर्ति अष्टधातुमयी है । यह प्रस्तर निर्मित पचस्तर विशिष्ट सिंहासनासीन है, मूर्ति इस प्रकार की है कि उत्तर में वृषभवाहन, पंचवक्त्र एवं दशभुज विशिष्ट कामेश्वर महादेव अवस्थित हैं । दक्षिण भाग में षडानना, द्वादशबाहुइ विशिष्टा अष्टादश लोचना सिंहवाहिनी कमलासना देवी मूर्ति है । यह मूर्ति महामाया कामेश्वरी नाम से प्रख्यात है ।
विष्णुब्रह्मशिवैर्देवैर्धृयते या जगन्मयी ।
सितप्रेतो महादेवो ब्रह्मा लोहितपंकजम् ॥
हरिर्हरिस्तु विज्ञेयो वाहनानि महौजसः ।
स्वमूर्त्ता वाहनत्वन्तु तेषां यस्मान्न युज्यते ॥
- कालिका पुराण
वही जगन्मयी कामेश्वरी ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव कर्त्तक घृत हैं, महादेव ही यहाँ सितप्रेत अर्थात् शवरुप हैं, ब्रह्मा ही लोहित पंकज हैं एवं विष्णु सिंह रुप से अवस्थित हैं, इन देवताओं को अपनी - अपनी मूर्ति में वाहन, बनना युक्ति युक्त नहीं है - इसलिए ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर अन्य रुप धारण कर देवी के वाहन बने हुए हैं ।'
जो साधक वाहन सहित देवी की इस मूर्ति का ध्यान एवं पूजा करते हैं, उनके द्वारा ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर ये तीनों देवता भी पूजित होते हैं ।
वार्षिक उत्सवों तथा विशेष पर्वपार्वण के दिनों में यह चलन्ता मूर्ति भ्रमण कराई जाती है । तीर्थ - यात्री पहले कामेश्वरी देवी एवं कामेश्वर शिव का दर्शन करते हैं । इसके बाद देवी के महामुद्रा का दर्शन करते हैं । देवी की योनिमुद्रा पीठ दश सोपान ( सीढ़ी ) नीचे अन्धकार पूर्ण गुफा में अवस्थित होने के कारण वहाँ सदा दीपक का प्रकाश रहता है ।
कामाख्या देवी का प्रणाम मन्त्र
कामाख्ये वरदे देवि नीलपर्वतवासिनि ।
त्वं देवि जगतां मातर्योनिमुद्रे नमोऽस्तु ते ॥
स्पर्श मन्त्र
मनोभवगुहा मध्ये रक्तपाषाण रुपिणी ।
तस्याः स्पर्शनमात्रेण पुनर्जन्म न विद्यते ॥
चरणामृत - पान मन्त्र
शुकादीनाञ्च यज् ज्ञानं यमादि परिशोधितम् ।
तदेव द्रवरुपेण कामाख्या योनिमण्डले ॥
देवी महामाया से जो जैसी याचना करते है और देवी की प्रसन्नतार्थ जप, होम, पूजा - पाठादि करते हैं, देवी उनके मन की अभीष्ट कामनाओं को उसी रुप में पूर्ण करती हैं । जो भक्तिभाव से देवी की योनिमण्डल का दर्शन, स्पर्शन तथा मुद्रा का जलपान करते हैं वे देवऋण, पितृऋण एवं ऋषिऋण से मुक्त होते हैं । यथा --
ऋणानि त्रीण्यपाकर्तुं यस्य चित्तं प्रसीदति ।
स गच्छेत् परया भक्त्या कामाख्या योनि सन्निधि ।
- योगिनी तन्त्र
पितृऋण, ऋषिऋण एवं देवऋण चुकाने के लिए जिसका मन प्रसन्न हो वह परम भक्तिभाव के साथ कामाख्या योनिमण्डल के निकट जाए ।
गवां कोटि प्रदानात्तु यत्फलं जायते नृणाम् ।
तत्फलं समवाप्नोति कामाख्या पूजयेन्नरः ॥
- कालिका पुराण
कोटि गोदान करने से मनुष्य को जो फल मिलता है वही फल कामाख्या देवी की पूजा करने से प्राप्त होता है ।
चार वर्ग क्षेत्र विशिष्ट शिलापीठ के ऊपर, जहाँ से निरन्तर पाताल से जल निकलता रहता है, वही कामाख्या का योनिमण्डल है । इस योनिमण्डल का परिमाण एक हाथ लम्बा एवं बारह अंगुल चौड़ा है और सत्तासी धनु परिमित स्थान में रुक्ष रक्त है एवं सपुलत अष्टहस्त तथा पचास हजार पुलकान्वित शिवलिंग युक्त है । यथा --
सप्तशीति धनुर्मानं रुक्षरक्त शिला च या ।
अष्टहस्तं सपुलकं लिंग लक्षार्द्धसंयुतम् ॥
चतुर्हस्त समं क्षेत्रः पश्चिमे योनिमण्डलम् ।
बाहुमात्रमिदञ्चैव प्रस्तारे द्वादशांगुलम् ॥
आपातालं जलं तत्र योनिमध्ये प्रतिस्थितम् ॥
- योगिनी तन्त्र
तृमा अंग होने के कारण इसका आधा भाग सोने के टोप से ढका रहता है और टोप को भी वस्त्र एवं पुष्प माल्यादि से आवृत तथा सुशोभित रखा जाता है । दर्शन, स्पर्शन एवं जप - पूजादि के लिए केवल एक अंश उन्मुक्त रखा जाता है । मातृअंग निपतित होकर यहाँ अवस्थित होने के कारण इस महातीर्थ को शक्तिपीठ स्थान कहा जाता है और यह सभी तीर्थों में प्रधान है । आद्याशक्ति प्रसन्न होने पर जीव को मुक्ति प्रदान करती है । अतः शक्ति साधक देवी को प्रसन्न करने के लिए कामाख्या को सर्वप्रधान शक्तिपीठ तथा तान्त्रिक क्रिया पद्धति का केन्द्र समझकर, यहाँ आकर महामुद्रा का नित्य दर्शन एवं उपासना करना जीवन का महान् कर्त्तव्य मानते हैं । इस पुण्य भारत भूमि के अनेक प्रातः स्मरणीय महापुरुषों ने इस पीठस्थान में आगमन कर तपस्या द्वारा सिद्धि लाभ किया है, इस बात का यथेष्ट प्रमाण है । आज भी उन सिद्धि साधकों के वंशधरों में से लोग यहा आते रहते हैं ।