कश्यपवंशी महर्षि देवलके पुत्र ही शाण्डिल्य नामसे प्रसिद्ध थे । ये रघुवंशीय नरपति दिलीपके पुरोहित थे । इनकी एक संहिता भी प्रसिद्ध है । कहीं - कहीं नन्दगोपके पुरोहितके रुपमें भी इनका वर्णन आता है । शतानीकके पुत्रेष्टि - यज्ञमें ये प्रधान ऋत्विक् थे । किसी - किसी पुराणमें इनके ब्रह्माके सारथि होनेका भी वर्णन आता है । इन्होंने प्रभासक्षेत्रमें शिवलिङ्ग स्थापित करके दिव्य सौ वर्षतक घोर तपस्या और प्रेमपूर्ण आराधना की थी । फलस्वरुप भगवान् शिव प्रसन्न हुए और इनके सामने प्रकट होकर इन्हें विश्वामित्र मुनि जब राजा त्रिशङ्कुसे यज्ञ करा रहे थे, तब ये होताके रुपमें वहाँ विद्यमान थे । भीष्मकी शरशय्याके अवसरपर भी इनकी उपस्थितिका उल्लेख मिलता है । शङ्ख और लिखित, जिन्होंने पृथक् - पृथक् धर्मस्मृतियोंका निर्माण किया है, इन्हीके पुत्र थे । जैसे भगवान् वेदव्यासने समस्त श्रुतियोंका समन्वय करनेके लिये ज्ञानपरक ब्रह्मसूत्रोंका प्रणयन किया है, वैसे ही श्रुतियों और गीताका भक्तिपरक तात्पर्य - निर्णय करनेके लिये इन्होंने एक छोटे - से किन्तु अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ भक्तिसूत्रका प्रणयन किया है । उसमें कुल तीन अध्याय हैं और एक - एक अध्यायमें दो - दो आह्निक हैं, इससे सूचित होता है कि इन्होंने इस ग्रन्थका निर्माण छः दिनमें किया होगा । इनके मतमें जीवोंका ब्रह्मभावापन्न होना ही मुक्ति है । जीव ब्रह्मसे अत्यन्त अभिन्न हैं । उनका आवागमन स्वाभाविक नहीं है; किंतु जपाकुसुमके सान्निध्यसे स्फटिकमणिकी लालिमाके समान, अन्तःकरणकी उपाधिसे ही होता है । किंतु केवल औषाधिक होनेके कारण ही वह ज्ञानसे नहीं मिटाया जा सकता, उसकी निवृत्ति तो उपाधि और उपाधेय - इन दोनोंमेंसे किसी एककी निवृत्तिसे या सम्बन्ध छूट जानेसे ही हो सकती है । चाहे जितना ऊँचा ज्ञान हो; किंतु जैसे स्फटिकमणि और जपाकुसुमका सान्निध्य रहते लालिमाकी निवृत्ति नहीं हो सकती, वैसे ही जबतक अन्तःकरण है, तबतक न तो उपाधि और उपाधेयका सम्बन्ध छुड़ाया जा सकता और न आवागमनसे ही जीवको बचाया जा सकता है । अतः उपाधिके नाशसे ही भ्रमकी निवृत्ति हो सकती है, आत्मज्ञानसे नहीं । उपाधि - नाशके लिये भगवद्भक्तिसे बढ़कर और कोई उपाय नहीं है । ब्रह्मभावोपलब्धिके लिये यही उपाय भगवान् श्रीकृष्णने कहा है --
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान् समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥
इस भक्तिसे त्रिगुणात्मक अन्तःकरणका लय होकर ब्रह्मानन्दका प्रकाश हो जाता है । इससे आत्मज्ञानकी व्यर्थता भी नहीं होती; क्योंकि अश्रद्धारुपी मलको दूर करनेके लिये ज्ञानकी आवश्यकता है । गीतामें स्थान - स्थानपर भक्तिके साधनके रुपमें ज्ञानकी चर्चा आयी है । भक्तिका लक्षण है - भगवानमें परम अनुराग । ' सा परानुरक्तिरीश्वरे ' ( शाण्डिल्य - सूत्र ) । इस अनुरागसे ही जीव भगवन्मय हो जाता है । उसका अन्तःकरण अन्तःकरणके रुपमें पृथक् न रहकर भगवानमें समा जाता है । यहि मुक्ति है ।
इस प्रकार महर्षि शाण्डिल्यने भगवद्भक्तिकी उपयोगिता और ज्ञानकी अपेक्षा भी उसकी श्रेष्ठता सिद्ध की है । भक्तिके प्रकार, उसके साधन और उसके विघ्नोंकी निवृत्ति आदिका बड़ा सुस्पष्ट दार्शनिक विवेचन किया है । भक्तिप्रेमियोंको उसका अध्ययन करना चाहिये ।