श्वेत
भक्तो और महात्माओंके चरित्र मनन करनेसे हृदयमे पवित्र भावोंकी स्फूर्ति होती है ।
प्राचीन युगमें श्वेत नामसे प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं । वे उत्तम व्रतके पालनमें तत्पर रहकर भगवान् पुरुषोत्तमका भजन किया करते थे । पूर्वकालमें महाराज इन्द्रद्युम्नके द्वारा निश्चित्त किये हुए भोगोंकी मात्राके अनुसार वे प्रतिदिन प्रसन्नतापूर्वक भगवान् लक्ष्मीपतिके लिये भोग प्रस्तुत करते थे । अनेक भक्ष्य - भोज्य पदार्थ, भलीभाँति संस्कार किये हुए षडविध रस, विचित्र माल्य, सुगन्ध, अनुलेपन तथा नाना प्रकारके राजोचित उपचार समय - समयपर भगवानकी सेवामें समर्पित करते रहते थे ।
एक दिन राजा श्वेत प्रातःकाल पूजाके समय भगवानके दर्शन करनेके लिये गये और पूजा होते समय उन्होंने श्रीहरिके दर्शन किये । देवाधिदेव जगदीशको प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़े हुए प्रसन्नतापूर्वक वे मन्दिरके द्वारके समीप खड़े रहे । अपने ही द्वारा तैयार किये हुए उत्तम उपचारों तथा सहस्त्रों उपहारकी सामग्रियोंको राजाने भगवानके सम्मुख उपस्थित देखा । तब वे ध्यानस्थ होकर मन - ही - मन इस प्रकार सोचने लगे - ' क्या भगवान् श्रीहरि यह मनुष्यनिर्मित भोग ग्रहण करेंगे ? यह बाह्य पूजनसामग्री भावदूषित होनेके कारण निश्चय ही भगवानको प्रसन्न करनेवाली न होगी ।'
इस प्रकार विचार करते हुए राजाने देखा, सामने ही दिव्य सिंहासनपर साक्षात् भगवान् विष्णु विराजमान हैं और दिव्य सुगन्ध, दिव्य वस्त्र एवं दिव्य हारोंसे विभूषित साक्षात् लक्ष्मीदेवी उनके आगे अन्न - पान आदि भोजन - सामग्री परोस रही हैं । यह अद्भुत झाँकी देखकर राजाने अपनेको कृतार्थ माना और आँखें खोल दीं । फिर उन्हें पहले देखी हुई सब बातें दिखायी दीं । इससे राजाको बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ । वे भगवानको निवेदित किया प्रसाद खाकर ही रहते थे ।
एक बार पुरुषोत्तम क्षेत्रमें राजा श्वेतमें राजा श्वेतने बड़ी भारी तपस्या की । मन्त्रराज आनुष्टुभका नियमपूर्वक जप करने हुए उन्होंने सौ वर्षोंतक तप किया । इससे संतुष्ट होकर लक्ष्मीसहित भगवान् नृसिंहने उनको प्रत्यक्ष दर्शन देकर अनुगृहीत किया । भगवान् नृसिंह योगासनपर कमलके ऊपर विराजमान थे । उनके वाम भागमें भगवती लक्ष्मी शोभा पा रही थीं । देवता, सिद्ध और मुक्त पुरुष उनकी स्तुतिमें लगे थे । भगवानके इस प्रकार दर्शन पाकर राजा श्वेत आश्चर्यचकित हो गये और हर्षद्गद वाणीमें बोले - ' हे नाथ ! प्रसन्न होइये, होइये ।' इतना कहकर राजा भगवानके चरणोंमें गिर पड़े । उनका शरीर तपस्यासे अत्यन्त दुर्बल हो गया था । उस समय भक्तवत्सल भगवान् नृसिंहने मधुर वाणीमें कहा - ' वत्स ! उठो ! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ । तुम कोई वर माँगो ।'
राजा श्वेत उठे और दोनों हाथ जोड़कर बोले - ' स्वामिन् ! इस तुच्छ दासपर आपकी बड़ी भारी कृपा है । मेरी यही इच्छा है कि इस देहका अन्त होनेपर मैं आपका सारुप्य प्राप्त करके आपकी सेवामें संलग्न रहूँ । और जबतक इस भूतलपर राजा होकर रहूँ, तबतक मेरे राज्यमें किसी भी मनुष्यकी अकाल मृत्यु न हो । साथ ही मेरे राज्यमें मरे हुए प्रत्यके मनुष्यको आपके परम पदकी प्राप्ति हो ।' ' एवमस्तु ' कहकर भगवानने अपने भक्तका मनोरथ पूर्ण किया । फिर वे राजाके देखते - देखते अन्तर्धान हो गये । राजा आजीवन भगवानकी सेवामें ही लगे रहे । अन्तमें उन्हें भी भगवानका सारुप्य प्राप्त हुआ ।
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Last Updated : September 20, 2011
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