श्रीकण्ठाचार्यके जीवनके सम्बन्धमें विशेष कोई बात नहीं मिलती । अनुमान होता है कि उनका जन्म कहीं दक्षिण भारतमें हुआ था और वे चौथी शताब्दीके अन्तिम भागसे लेकर पाँचवी शताब्दीके आरम्भतक वर्तमान थे । कुछ लोगोंका मत है कि श्रीकण्ठ श्रीशङ्करसे भी पहले हुए थे; परंतु यह बात उतनी प्रामाणिक नहीं मालूम होती । श्रीरामानुज, श्रीमध्व आदि सब आचायोंसे तो वे अवश्य ही पहले हुए थे; परंतु श्रीशङ्करसे वे बादमें ही हुए थे । श्रीकण्ठने स्पष्टरुपमें अपने भाष्यमें श्रीशङ्खरमतका उल्लेख किया है । इससे मालूम होता है, वे श्रीशङ्करके बाद ही हुए थे ।
श्रीकण्ठके विषयमें अप्पय्य दीक्षितने अपने ग्रन्थ ' शिवार्कमणिदीपिका ' में लिखा है --
महापाशुपतज्ञानसम्प्रदायप्रवर्तकान्
अंशावतारानीशस्य योगाचार्यानुपास्महे ॥
इससे मालूम होता है कि श्रीकण्ठ एक महान् शिवभक्त तथा परम योगी थे और वे भगवान् शिवके अंशावतार माने जाते थे । उन्होंने ब्रह्मसूत्रपर जो ' शैवभाष्य ' लिखा है, उससे उनके अगाध पाण्डित्यका परिचय मिलता है । अप्पय्य दीक्षितने श्रीकण्ठको दहरविद्याका उपासक लिखा है । उनकी असाधारण शिवभक्ति भी उनके ग्रन्थोंमे सर्वत्र परिस्फुटित हुई हैं ।
श्रीकण्ठने दो ग्रन्थोंकी रचना की -- ब्रह्मसूत्रका भाष्य और मृगेन्द्रसंहिताकी वृत्ति । श्रीकण्ठका भाष्य ही शैवभाष्य कहलाता है । इस भाष्यके विषयमें स्वयं श्रीकण्ठने लिखा है -- ' मधुरो भाष्यसन्दभों महार्थो नातिविस्तरः ।'
बास्तवमें उस भाष्यकी भाषा बड़ी मधुर तथा प्राञ्जल है और बह संक्षेपमें ही लिखा गया है ।