राम सदा सेवक रुचि राखी । बेद पुरान संत सब साखी ॥

महर्षि अगस्त्यके शिष्य सुतीक्ष्णजी जब विद्याध्ययन कर चुके, तब गुरुदेवसे उन्होंने दक्षिणाके लिये प्रार्थना की । महर्षिने कहा - ' तुमने जो मेरी सेवा की, वही बहुत बड़ी दक्षिणा है । मैं तुमसे प्रसन्न हूँ ।' किंतु सुतीक्ष्णजीका संतोष गुरुदेवकी कुछ सेवा किये बिना नहीं हो सकता था । वे बार - बार आग्रह करने लगे । उनका हठ देखकर सर्वज्ञ महर्षिने उन्हें आज्ञा दी - ' दक्षिणामें तुम मुझे भगवानके दर्शन कराओ ।' गुरुकी आज्ञा स्वीकार करके सुतीक्ष्णजी उनके आश्रमसे दूर उत्तर ओर दण्डकारण्यके प्रारम्भमें ही आश्रम बनाकर रहने लगे । उन्होंने गुरुदेवसे सुना था कि भगवान् श्रीराम अयोध्यामें अवतार लेकर इसी मार्गसे रावणका वध करने लंका जायँगे । अतः वे वहीं तपस्या तथा भगवानका भजन करते हुए उनके पधारनेकी प्रतीक्षा करने लगे । जब श्रीरामने पिताकी आज्ञासे वनवास स्वीकार किया और चित्रकूटसे वे विराधको भूमिमें गाड़कर सद्गति देते, शरभंगऋषिके आश्रमसे आगे बढ़े, तब सुतीक्ष्णजीको उनके आनेका समाचार मिला । समाचार पाते ही वे उसे ओर दौड़ पड़े । उनका चित्त भाव - निमग्न हो गया । वे सोच रहे थे -

हे विधि दीनबंधु रघुराया । मासे सठ पर करिहहिं दाया ॥

सहित अनुज मोहि राम गोसाई । मिलिहहिं निज सेवक की नाई ॥

मोरे जियँ भरोस दृढ नाहीं । भगति बिरति न ग्यान मन माहीं ॥

नहिं सतसंग जोग जप जागा । नहिं दृढ चरन कमल अनुरागा ॥

एक बानि करुनानिधान की । सा प्रिय जाक गति न आन की ॥

होएहैं सुफल आजु मम लोचन । देखि बदन - पंकज भव - मोचन ॥

प्रेमकी इतनी बाढ़ हदयमें आयी कि मुनि अपनेको भूल ही गये । उन्हें यह भी स्मरण नहीं रहा कि वे कौन हैं, कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं और कहाँ जा रहे हैं । कभी वे कुछ दूर आगे चलते, कभी खड़े होकर ' श्रीराम, रघुनाथ, कौसल्यानन्दन ' आदि दिव्य नाम लेकर कीर्तन करते हुए नृत्य करने लगते और कभी पीछे लौट पड़ते । श्रीराम, लक्ष्मण और जानकीजी वृक्षकी आड़में छिपकर मुनिकी यह अद्भुत प्रेम - विभोर दशा देख रहे थे । नृत्य करते - करते सुतीक्ष्णजीके हदयमें श्रीरामकी दिव्य झाँकी हुई । वे मार्गमे ही बैठकर ध्यानस्थ हो गये । आनन्दके मारे उनका एक एक रोम खिल उठा । उसी समय श्रीराम उनके पास आ गये । उन्होंने मुनिको पुकारा, हिलाया, अनेक प्रकारसे जगानेका प्रयत्न किया; किंतु वे तो समाधिदशामें थे । अन्तमें श्रीरामने जब उनके हदयसे उनका आराध्य द्विभुज रुप दूर करके वहाँ अपना चतुर्भुजरुप प्रकट किया, तब मुनिने व्याकुल होकर नेत्र खोल दिये और अपने सम्मुख ही श्रीजानकीजी तथा लक्ष्मणजीसहित श्रीरामको देखकर वे प्रभुके चरणोंमें गिर पड़े । श्रीरघुनाथजीने दोनों हाथोंसे उठाकर उन्हें हदयसे लगा लिया ।

सुतीक्ष्णजी बड़े आदरसे श्रीरामको अपने आश्रमपर ले आये । वहाँ उन्होंने प्रभुकी पूजा की, कन्द - मूल - फलसे उनका सत्कार किया और उनकी स्तुति की । श्रीरामने उन्हें वरदान दिया -

अबिरल भगति ग्यान बिग्याना । होहु सकल गुन ग्यान निधाना ॥

कुछ दिन श्रीराम मुनिसे पूजित - सत्कृत होकर उनके आश्रममें रहे । वहाँसे जब वे महर्षि अगस्त्यके पास जाने लगे, तब मुनिने साथ चलनेकी अनुमति माँगी । उनका तात्पर्य समझकर प्रभुने हँसकर आज्ञा दे दी । जब प्रभु अगस्त्याश्रमके पास पहुँचे, तब आगे जाकर दण्डवत् प्रणाम करके सुतीक्ष्णजीने अपने गुरुदेवसे निवेदन किया -

नाथ कोसलाधीस कुमारा । आए मिलन जगत आधारा ॥

राम अनुज समेत बैदेही । निसि दिन देव जपत हहु जेही ॥

गुरुदेवकी गुरुदक्षिणाके रुपमें इस प्रकार उनके द्वारपर सर्वेश्वर, सर्वाधार श्रीरामको लाकर खड़ा कर देनेवाले सुतीक्ष्णमुनि धन्य हैं और धन्य है उनकी भक्तिका प्रताप ।

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Last Updated : April 29, 2009

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