शास्त्रोंमें भगवानके पञ्चविध स्वरुप माने गये हैं । इनमें एक रुप ' व्यूह ' के नामसे परिचित है । यह रुप सृष्टि, पालन और संहार करनेके लिये, संसारीजनोंका संरक्षण करनेके लिये और उपासकोंपर अनुग्रह करनेके लिये ग्रहण किया जाता है । वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध ये चार व्यूह हैं । वास्तवमें संकर्षणादि तीन ही व्यूह हैं । वासुदेव तो व्यूहमण्डलमें आकर व्यूहरुपमें केवल गिने जाते हैं । इनमेसे संकर्षण जीवतत्त्वके अधिष्ठाता हैं । इनमें ज्ञान और बल -- इन दो गुणोंकी प्रधानता है । यही ' शेष ' अथवा ' अनन्त ' के रुपमें पातालमूलमें रहते हैं और प्रलयकालमें ' अनन्त ' के रुपमें पातालमूलमें रहते हैं और प्रलयकालमें इन्हीके मुखमेंसे संवर्तक अग्नि प्रकट होकर सारे जगतको भस्म कर देती है । ये ही भगवान् आदिपुरुष नारायणके पर्यङ्क - रुपमें क्षीरसागरमें रहए हैं । थे अपने सहस्र मुखोंके द्वारा निरन्तर भगवानका गुणानुवाद करते रहते हैं और अनादि कालसे यों करते रहनेपर भी अद्याते या ऊबते नहीं । ये भक्तोंके परम सहायक हैं और जीवको भगवानकी शरणमें ले जाते हैं । इनकी सारे देवता वन्दना करते हैं और इनके बल, पराक्रम, प्रभाव और स्वरुपको जानने अथवा वर्णन करनेकी सामर्थ्य किसीमें भी नहीं है । गन्धर्व, अप्सरा, सिद्ध, किन्नर, नाग आदि कोई भी इनके गुणोंके थाह नहीं लगा सकते -- इसीसे इन्हें ' अनन्त ' कहते हैं । ये सारे विश्वके ज्योतिःसिद्धान्तके प्रवर्तक माने गये हैं । ये सारे विश्वके आधारभूत भगवान् नारायणके श्रीविग्रहको धारण करनेके कारण सब लोकोंमें पूज्य और धन्यतम कहे जात हैं । ये सारे ब्रह्माण्डको अपने मस्तकपर धारण किये रहते हैं । ये भगवानके निवास -- शय्या, आसन, पादुका, वस्त्र, पादपीठ, तकिया तथा छत्रके रुपमें शेष अर्थात् अङ्गीभूत होनेके कारण ' शेष ' कहलाते हैं । त्रेतायुगमें श्रीलक्ष्मणजीके रुपमें और द्वापरमें श्रीबलरामजीके रुपमें ये ही अवतीर्ण होकर भगवानकी लीलामें सहायक बनते हैं । ये भगवानके नित्य परिकर, नित्यमुक्त एवं अखण्ड ज्ञानसम्पन्न माने जाते हैं ।