स्याम स्वरूप बसो हियमें, फिर और नहीं जग भावै री ।
कहा कहूँ को मानौ मेरी, सिर बीती सो जाने री ॥
रसना रस ना सब रस फीके, द्रगनि न और रंग लागै री ।
स्त्रवननि दूजी कथा न भावे, सुरत सदा पियकी जागै री ॥
बढ़यौ बिरह अनुराग अनोखों, लगन मनी मन नहिं लागै री ।
जुगलप्रियाके रोम रोम तें, स्याम ध्यान नहिं पल त्यागै री ॥