ब्रजमंडल अमरत बरसै री ।
जसुदा नंद गोप गोपिनको, सुख सुहाग उमगै सरसै री ॥
बाढ़ी लहर अंग-अंगनमें. जमुना तीर नीर उछरै री ।
बरसत कुसुम देव अंबर तें सुरतिय दरसन हित तरसै री ॥
कदली बंदनवार बँधावैं, तोरन धुज सँथिया दरसै री ।
हरद दूब दधि रोचन साजें, मंगल कलस देखि हरसै री ॥
नाचैं गावैं रंग बढ़ावैं जो जाके मनमें भावै री ।
सुभ सहनाई बजत रात दिन, चहुँ दिसि आनँदघन छावै री ॥
ढाढ़ी ढाढ़िन नाचि रिझावै, जो चाहैगो सो पावै री ।
पलना ललना झूल रहे हैं, जसुदा मंगल गुन गावै री ॥
करै निछावर तन मन सरबस, जो नँदनंदनको जोवै री ।
जुगलप्रिया यह नंद महोत्सव, दिन प्रति वा ब्रजमें होवै री ॥