झूलत कोइ कोइ संत लगन हिंडोलने ॥टेक॥
पौन उमाह उछाह धरती सोच सावन मास ।
लाजके जहँ उड़त बगुले मोर हैं जग हाँस ॥१॥
हरष-सोक दोउ खंभ रोपे सूरत डोरी लाय ।
बिरह पटरी बैठि सजनी उमँग आवै जाय ॥२॥
सकल बिकल तहँ देत झोके बिपत गावनहार ।
सखी बहुतक रंग राती रँगी पाँचौं नार ॥३॥
नैन बादल उमँगि बरसै दामिनी दमकात ।
बुद्धिकौ ठहराव नाहीं, नेह की नहिं जात ॥४॥
सुकदेव कहैं, कोइ बली झूले, सीस देत अकोर ।
चरनदास भये बौरे जाति-बरन-कुल छोर ॥५॥