प्रेमनगरके माहिं होरी होय रही ।
जब सों खेली हमहूँ चित दैं, आपनहूँ को खोय रही ॥
बहुतन कुल अरु लाज गँवाई, रहौ न कोई काम ।
नाचि उठैं, कभी गावन लागैं, भूले तन-धन-धाम ॥
बहुतनकी मति रंग रँगी है, जिनकौ लागौ प्रेम ।
बहुतनकों अपनी सुधि नाहीं कौन करै अस नेम ॥
बहुतनकी गदगद ही बानी, नैनन नीर ढराय ।
बहुतनको बौरापन लागो, ह्वाँकी कही न जाय ॥
प्रेमीकी गति प्रेमी जानै, जाके लागी होय ।
चरनदास उस नेहनगरकी सुकदेवा कहि सोय ॥