वह पुरुषोत्तम मेरा प्यार । नेह लगी टूटै नहिं तार ॥१॥
तीरथ जाऊँ न बर्त करूँ । चरनकमलको ध्यान धरूँ ॥२॥
प्रानपियारे मेरेहिं पास । बन-बन माहिं न फिरूँ उदास ॥३॥
पढूँ न गीता-बेद-पुरान । एकहिं सुमिरूँ श्रीभगवान ॥४॥
औरनकों नहिं नाऊँ सीस । हरि ही हरि हैं बिस्वे बीस ॥५॥
काहूकी नहिं राखूँ आस । तृस्ना काटि दई है फाँस ॥६॥
उद्यम करूँ न राखूँ दाम । सहजहिं ह्वै रहैं पूरन काम ॥७॥
सिद्धि मुकति फल चाहौं नाहिं । नित ही रहूँ हरि संतन माहिं ॥८॥
गुरु सुकदेव यही मोहिं दीन । चरनदास आनँद लवलीन ॥९॥