प्रकृतिपुरुष का - ॥ समास पहला - देवबलात्कारनाम ॥

यह ग्रंथ श्रवण करने का फल, मनुष्य के अंतरंग में आमूलाग्र परिवर्तन होता है, सहजगुण जाकर क्रिया पलट होता है ।

॥ श्रीरामसमर्थ ॥
निश्चल ब्रह्म में चंचल आत्मा । सकलों से परे जो परमात्मा । चैतन्य साक्षी ज्ञानात्मा । षड्गुणैश्वरु ॥१॥
सकल जग का ईश्वरु । इस कारण नाम जगदीश्वरु । उससे हुआ विस्तारु । विस्तारित हुआ ॥२॥
शिवशक्ति जगदीश्वरी । प्रकृतिपुरुष परमेश्वरी । मूलमाया गुणेश्वरी। गुणक्षोभिणी ॥३॥
क्षेत्रज्ञ द्रष्टा कूटस्थ साक्षी । अंतरात्मा सर्वलक्ष्यी । शुद्धसत्त्व महतत्त्व पारखी । ज्ञाता साधु ॥४॥
ब्रह्मा विष्णु महेश्वर । नाना पिंडों में जीवेश्वर । उसे भासते प्राणिमात्र । छोटे बडे ॥५॥
देह मंदिर में बैठा । न भजने पर देह को मारता । इस भय से उसका । भजन करते लोग ॥६॥
जो समय पर भजन से चूके । वे सब तब पछाडे गये । चाह से भजन करने लगे । विश्वजन ॥७॥
जो जो जब आक्षेप किया । वह सब तत्काल ही दिया । त्रैलोक भजने लगा । इस प्रकार ॥८॥
पांचों विषयों का नैवेद्य । जब चाहे तब सिद्ध । ऐसा न करने पर सद्य । रोग होते ॥९॥
जिस समय नैवेद्य पाये ना । उस समय देव रहे ना । भाग्य वैभव पदार्थ नाना । त्यागकर जाता ॥१०॥
जाता वह पता लगने दे ना । किसी को पता चले ना । देव के बिना अनुमान होता ना । किसी को देव का ॥११॥
देव देखने के लिये । देवालय देखने पडते । कहीं तो देवालय के गुण से । देव प्रकटे ॥१२॥
देवालय याने नाना शरीर । वहां रहता जीवेश्वर । नाना शरीर नाना प्रकार । अनंत भेद ॥१३॥
चलते बोलते देवालय । उसमें रहता रावल । जितने देवालय उतने सर्व । समझने चाहिये ॥१४॥
मत्स्य कूर्म वराह देवालय । भूगोल धरा है सर्वकाल । कराल विक्राल निर्मल । कितने सारे ॥१५॥
कई मंदिरों में सौख्य देखे । सारे सिंधू को भरती आई। परंतु वह सर्वकाल न रहे । अशाश्वत ॥१६॥
अशाश्वत का मस्तकमणि । जिसकी इतनी करनी । दिखे ना तो क्या हुआ धनी । उसे ही कहें ॥१७॥
उद्भवोन्मुख' होने पर अभेद । विमुख होये तो उदंड खेद । ऐसा अधोर्ध्व संवाद । होते रहता ॥१८॥
सकलों का मूल दिखे ना । भव्य भारी और भासे ना । निमिष एक रहे ना । एक स्थान पर ॥१९॥
ऐसा अगाध परमात्मा । कौन जाने उसकी महिमा । तेरी लीला सर्वोत्तमा । तू ही जाने ॥२०॥
संसार में आने का सार्थक । जहां नित्यानित्यविवेक । इहलोक और परलोक । दोनों साधे ॥२१॥
मननशील लोगों के पास है । अखंड देव अहर्निशी' । देखें उनकी पूर्वसंचित राशि । जोड नहीं ॥२२॥
अखंड योग अतः योगी । योग नहीं वह वियोगी। वियोगी वह भी योगी । योग बल से ॥२३॥
भलों की महिमा ऐसे । जो लोगों को सन्मार्ग दिखाये । तैराक हो तो डूबने ना दे । डूबनेवाले को ॥२४॥
स्थूलसूक्ष्म तत्त्वनिरसन । पिंडब्रह्मांड का चयन । प्रचीत देखते ऐसे कम । भूमंडल में ॥२५॥
वेदांत का पंचीकरण । अखंड उसका विवरण । महावाक्य में अंतःकरण - । रहस्य देखे ॥२६॥
इस पृथ्वी में रहते विवेकी । धन्य उनकी संगति । श्रवणमात्र से पाते गति । प्राणीमात्र ॥२७॥
सत्संग और सच्छास्त्रश्रवण । अखंड होते रहता विवरण । नाना सत्संग और उत्तम गुण । परोपकार के ॥२८॥
जो सत्कीर्ति के पुरुष । वे परमेश्वर के अंश । धर्मस्थापना की आस । उन्हें ही होती ॥२९॥
विशेष सारासार विचार । जिससे होता जगदुद्धार । संगत्याग से निरंतर । हो गये ॥३०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे देवबलात्कारनाम समास पहला ॥१॥

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Last Updated : December 09, 2023

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