प्रकृतिपुरुष का - ॥ समास छठवां - देहात्मनिरूपणनाम ॥

यह ग्रंथ श्रवण करने का फल, मनुष्य के अंतरंग में आमूलाग्र परिवर्तन होता है, सहजगुण जाकर क्रिया पलट होता है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
आत्मा देह में रहता । नाना सुख दुःख भोगता । अंत में शरीर छोड जाता । अचानक ॥१॥
शरीर में शक्ति तरुणाई में । प्राणी नाना सुख भोगे । अशक्त होते ही बुढापें में । भोगे दुःख ॥२॥
मरूं ना ऐसी इच्छा रखे । हांथ पांव पटककर प्राण छोड़े । नाना कठिन दुःख होते । बुढापे में ॥३॥
देह आत्मा की संगति । कुछ एक सुख भोगते । तड़प तड़पकर जाते । देहांतकाल में ॥४॥
ऐसा आत्मा दुःखदायक । एक का प्राण लेता एक । और अंत में निरर्थक । कुछ भी नहीं ॥५॥
ऐसा दो दिनों का भ्रम । उसे कहते परब्रह्म । नाना दुःखों का संभ्रम । मान लिया ॥६॥
दुःखी होकर तडपते गये । उससे क्या समाधान पाये । कुछ एक सुख भोगे । तो तुरंत ही दुःख ॥७॥
जन्मादारभ्य को याद करें । याने सारा समझ में आये । नाना दुःखों को गिनते रहे । किस कारण ॥८॥
ऐसी आत्मा की संगत है । नाना दुःख प्राप्त होते । दीन होकर जाते । प्राणीमात्र ॥९॥
कुछ आनंद कुछ खेद । जन्मभर पडा जो संबंध । नाना प्रकार की विरुद्ध । बिखराव ॥१०॥
निद्राकाल में पिस्सू खटमल । नाना प्रकार से देते कष्ट । नाना उपायों से कष्ट । उन्हें भी होता ॥११॥
भोजनसमय मख्खियां आती । नाना पदार्थ चूहे ले जाते । मगर उनकी भी फ्जीयत करती । बिल्लियां ॥१२॥
जुएं किनकिया गोचिड । अनेक कनखजूर बरें । एक दूसरों को कष्ट देते । परस्पर ॥१३॥
बिच्छु सर्प बाघ रीछ । मगर भेडिये मनुष्य को मनुष्य । आपस में सुख संतोष । कहीं भी नहीं ॥१४॥
चौरासी लक्ष उत्पन्न । एक दूसरे का करते भक्षण । नाना पीडा बिमारी के लक्षण । कहें भी तो कितने ॥१५॥
ऐसी अंतरात्मा की करनी । नाना जीवों से भरी अवनी । आपस में संहारणी । एक दूसरे की ॥१६॥
अखंड रोते तडपते । विव्हल हो हो कर प्राण देते । मूर्ख प्राणी उसे कहते । परब्रह्म ॥१७॥
परब्रह्म जाता नहीं । किसी को दुःख देता नहीं । स्तुति निंदा दोनों भी नहीं । परब्रह्म में ॥१८॥
उदंड गालियां दी । वे सब अंतरात्मा को लगी । विचार देखने पर प्रत्यय में आई । यथातथ्य ॥१९॥
कुलटे का नौकरानी का लौंडी का । गधी का कुतियां का चांडालिनी का । ऐसा हिसाब गालियों का । कहें भी तो कितना ॥२०॥
ये परब्रह्म को लगती नहीं । वहां कल्पना ही चले नहीं । असंबद्ध ज्ञान मान्य नहीं । किसी एक को ॥२१॥
सृष्टि में है सकल जीव । सकलों को कैसा वैभव । इस कारण निश्चित ठांव । निर्माण किया देव ने ॥२२॥
उदंड लोग बाजार के । जो जो मिला वह सब लेते । उत्तम उतना भाग्य के । ले जाते लोग ॥२३॥
इसी न्याय से अन्नवसन । इसी न्याय से देवतार्चन । इसी न्याय से ब्रह्मज्ञान । प्राप्तव्य के अनुसार ॥२४॥
सारे ही सुखी रहते । संसार मधुर कर ले जातें । महाराजा वैभव भोगतें । वह अभागे को कैसे ॥२५॥
मगर अंत में नाना दुःख । वहां होते सरीखे सब । पहले भोगे नाना सुख । अंत में दुःख सह ना पाते ॥२६॥
कठिन दुःख सह सके ना । प्राण शरीर छोड़े ना । मृत्यु दुःख सकल जन । को तड़पाये ॥२७॥
नाना हुये अवयव हीन । वैसे ही करना पडे वर्तन । अंतकाल में प्राणी करे गमन । छटपटाकर ॥२८॥
रूप लावण्य सारा जाता । शरीर सामर्थ्य रह न पाता । कोई न होते मरता । आपदा आपदाओं से ॥२९॥
अंतकाल में हीन दीन । सभी को तत्समान । ऐसे चंचल अवलक्षण । दुःखकारी ॥३०॥
भोगकर अभोक्ता कहते । यह तो सारी फजीहती । लोग व्यर्थ ही कहते । देखे बिन ॥३१॥
अंतकाल है कठिन । शरीर छोडे ना प्राण । भिखारीसमान लक्षण । अंतकाल में ॥३२॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे देहात्मनिरूपणनाम समास छठवां ॥६॥

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Last Updated : December 09, 2023

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