प्रकृतिपुरुष का - ॥ समास चौथा - अनुमाननिरसननाम ॥
यह ग्रंथ श्रवण करने का फल, मनुष्य के अंतरंग में आमूलाग्र परिवर्तन होता है, सहजगुण जाकर क्रिया पलट होता है ।
॥ श्रीरामसमर्थ ॥
बहुत जनों का उपाय । त्रस्त ना हो वक्ता से पूछते समय । बोलते बोलते अन्वय' । छोडें नहीं ॥१॥
श्रोता ने आशंका ली । उसे तत्काल चाहिये मिटानी । स्वयं की बात स्वयं से ही उलझी । ऐसा ना हो ॥२॥
आगे पकडे तो पिछला उलझा । पीछे पकडो तो आगे उड़ा । ऐसा यह उलझते ही गया । जगह जगह ॥३॥
तैराक ही स्वयं डुबकियां खाये । वह जनों को कैसे निकाल पाये । आशय लोगों का रह जाता ये । जगह जगह ॥४॥
स्वयं ही बोले संहार । स्वयं ही कहे है सर्व सार । दुस्तर माया का पार । दृढता से करना चाहिये ॥५॥
जो जो सूक्ष्म नाम ले । उसका रूप बिंबित करे । तो ही वक्ता कहलाये । विचारवंत ॥६॥
ब्रह्म कैसा मूलमाया कैसी । अष्टधाप्रकृति शिवशक्ति कैसी । षड्गुणैश्वर की स्थिति कैसी । गुणसाम्य की ॥७॥
अर्धनारीनटेश्वर । प्रकृतिपुरुष का विचार । गुणक्षोभिणी तद्नंतर । त्रिगुण कैसे ॥८॥
पूर्वपक्ष कहां से कहां तक । वाच्यांश लक्ष्यांश के प्रकार । करे सूक्ष्म का नाना विचार । धन्य वह साधु ॥९॥
नाना बकबक में पडे ना । जो बोला वही दोहराये ना । मौन्यगर्भ अनुमान में । लाकर छोडे ॥१०॥
घडी में विमल ब्रह्म । घडी में कहे सर्व ब्रह्म । द्रष्टा साक्षी सत्ता ब्रह्म । क्षण एक ॥११॥
निश्चल वही हुआ चंचल । चंचल वही ब्रह्म केवल । नाना प्रसंगों में कलकल । निर्णय नहीं ॥१२॥
विचलित और निश्चल । संपूर्ण चैतन्य ही केवल । रूप भिन्न भिन्न सरल । कदापि कह सकेना ॥१३॥
व्यर्थ ही उलझन पैदा करे । वह लोगों को निकाल पाये कैसे । नाना उलझनें नाना निश्चयों से । बनते जाती ॥१४॥
भ्रम को कहे परब्रह्म । परब्रह्म को कहे भ्रम । ज्ञातापन का संभ्रम । दिखाये बोलकर ॥१५॥
दिखाये शास्त्रों का बंधन । प्रचीत बिन निरूपण । पूछनेपर व्यर्थ ही थकान । अत्यंत माने ॥१६॥
पदार्थलोभी और ज्ञाता । वह क्या कहेगा बेचारा । सारासार का निपटारा । होना चाहिये ॥१७॥
वैद्य मात्रा की करे स्तुति । मात्रा न करे गुण कुछ भी । प्रचीत बिन वैसे हुई । दशा ज्ञान की ॥१८॥
जहां नहीं सारासार । वहां सारा अंधकार । नाना परीक्षा का विचार । रह गया वहां ॥१९॥
पाप पुण्य स्वर्ग नर्क । विवेक और अविवेक । सर्वब्रह्म में क्या एक । मिला नहीं ॥२०॥
पावन और वे पतन । दोनों को माना तत्समान । निश्चय और अनुमान । ब्रह्मरूप ॥२१॥
ब्रह्मरूप हुआ संपूर्ण । वहां क्या करे चयन । शर्करा ही फैली संपूर्ण । वहां डाले भी क्या कहां ॥२२॥
वैसे सार और असार । दोनों हुये एकाकार । वहां दृढ हुआ अविचार । विचार कैसा ॥२३॥
वंद्य निंद्य एक हुआ । वहां क्या हांथ आया । उन्मत्त द्रव्य से जो भ्रमित हुआ । वह बड़बड़ाये कुछ भी ॥२४॥
वैसे अज्ञानभ्रम से भ्रमित हुआ । सर्व ब्रह्म कहने लगा । महापापी और भला । एक ही माने ॥२५॥
सर्वसंगपरित्याग । स्वैराचारी विषयभोग । दोनों एक ही मानें तो शेष । बचा क्या ॥२६॥
भेद ईश्वर ने निर्माण किया । उसके बाप से न कभी टूट पाया । मुंह में ग्रास डाला । वह डालें अपान में ॥२७॥
जिस इंद्रियों का जो भोग । वह सब करे यथासांग । ईश्वर का निर्मित जग । तोडते बने ना ॥२८॥
सभी भ्रांति का भूतखाना । बात झूठी प्रचीति बिना । पागल दासी का बात करना । व्यर्थ ही होता ॥२९॥
प्रत्ययज्ञाता सावधान । सुनें उसका निरूपण । आत्मसाक्षात्कार के चिन्ह । तत्काल दृढ होते ॥३०॥
आडे टेढे जानें । अंधे के पैरों की आहट पहचानें । व्यर्थ बोलना त्यागें । वमन जैसे ॥३१॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे अनुमाननिरसननाम समास चौथा ॥४॥
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Last Updated : December 09, 2023
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