प्रकृतिपुरुष का - ॥ समास तीसरा - श्रवणनिरूपणनाम ॥

यह ग्रंथ श्रवण करने का फल, मनुष्य के अंतरंग में आमूलाग्र परिवर्तन होता है, सहजगुण जाकर क्रिया पलट होता है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
ठहरो ठहरो सुनो सुनो । पहले ही ग्रंथ ना छोड़ो । कहता हूं वह सुनो । सावधानी से ॥१॥
श्रवण में सार श्रवण । वह ये अध्यात्मनिरूपण । सुचित कर अंतःकरण । ग्रंथ में विवरण करें ॥२॥
श्रवणमनन का विचार । निजध्यास से साक्षात्कार । रोकडा मोक्ष का उधार । बोलो ही नहीं ॥३॥
नाना रत्नों की परीक्षा के समय । अथवा वजन करते समय । उत्तम सोना तपाते समय । सावधानी बरतें ॥४॥
नाना सिक्कों की गिनती करना । नाना परीक्षा करना । विवेकी मनुष्य से बात करना । सावधानी से ॥५॥
जैसे लक्ष राशि धान्य । बिनकर दे तो होता मान्य । सारा दिया तो अमान्य । देव क्षोभता ॥६॥
एकांत में नाजुक कारबार । वहां रहें अतितत्पर । उससे कोटि गुना अधिक विचार । अध्यात्मग्रंथ में ॥७॥
कहानी कथा गाथा पवाडे । नाना अवतारों के चरित्र बडे । इन समस्तों से गूढ । अध्यात्मविद्या ॥८॥
गत कथाओं का श्रवण किया । उससे क्या हांथ आया । कहते पुण्य प्राप्त हुआ। परंतु वह दिखे ना ॥९॥
वैसे नहीं अध्यात्मसार । यह प्रचीत का विचार। समझने पर अनुमान का संहार । होने लगता ॥१०॥
बडे बडे आकर गये । आत्मा के कारण ही कार्य किये। उस आत्मा की महिमा कहे । ऐसा कौन ॥११॥
युगों युगों से अकेला एक । चलाता तीनों लोक । उस आत्मा का विवेक । देखें ही देखें ॥१२॥
प्राणी आये चले गये । वे जैसा जैसा वर्तन किये । उस वर्तन का कथन किये । इच्छानुरूप ॥१३॥
जहां आत्मा नहीं प्रगाढ । वहां सारा ही सरसपाट । आत्म बिन बेचारा काष्ठ । क्या जाने ॥१४॥
ऐसा वरिष्ठ आत्मज्ञान । दूसरा नहीं इसके समान । सृष्टि में जो विवेकी सज्जन । वे ही यह जानते ॥१५॥
पृथ्वी और आप तेज । ये इनका पृथ्वी में ही समावेश । अंतरात्मा तत्त्वबीज । वह रहा अलग ही ॥१६॥
वायु के उस पार । जो कोई विवेक से करे विचार । मिले आत्मा निकट । ही उस पुरुष को ॥१७॥
वायु आकाश गुणमाया । प्रकृतिपुरुष मूलमाया । सूक्ष्म रूप में प्रचीति पाना । है कठिन ॥१८॥
धांधली मायादेवी की । कौन चिंता करे सूक्ष्म की । समझ गया उसकी टूटी । संदेहवृत्ति ॥१९॥
मूलमाया चौथा देह । होना चाहिये विदेह । देहातीत होकर रहे । धन्य वह साधु ॥२०॥
विचार से उर्ध्वर चढते । उन्हें ही उर्ध्वगति है । अन्य सभी को अधोगति । पदार्थज्ञान से ॥२१॥
पदार्थ अच्छे दिखते । परंतु वे सारे ही नष्ट होते । अतो भ्रष्ट ततो भ्रष्ट होते । लोग उससे ॥२२॥
इस कारण पदार्थज्ञान । नाना जिनसों का अनुमान । सब छोड निरंजन । खोजते जायें ॥२३॥
अष्टांग योग पिंडज्ञान । उससे श्रेष्ठ तत्त्वज्ञान । उससे महान आत्मज्ञान । वह देखना चाहिये ॥२४॥
मूलमाया के अंत में । हरिसंकल्प मूल में उठे । उपासनायोग से लिपटें । उसी जगह ॥२५॥
फिर उसके पार जान । विशुद्ध ब्रह्म निर्गुण । निर्मल निश्चल उसकी पहचान । गगन जैसी ॥२६॥
यहां से वहां तक रहा व्याप्त । प्राणिमात्रों को हुआ प्राप्त । पदार्थमात्र में रहा लिप्त । व्याप्त होकर ॥२७॥
उसके जैसा नहीं महान । सूक्ष्म से भी सूक्ष्म विचार । पिंड्ब्रह्मांड का संहार । होने पर समझे ॥२८॥
अथवा पिंड्ब्रह्मांड रहने पर । विवेकप्रलय से देखने पर । शाश्वत कौन का विचार । तत्त्वतः समझने लगता ॥२९॥
करके संपूर्ण तत्त्वनिरसन । सारासार का चयन । सावधानी से ग्रंथ का करें त्यजन । सुखेनैव ॥३०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे श्रवणनिरूपणनाम समास तीसरा ॥३॥

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Last Updated : December 09, 2023

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