जया काला विशोका और दशमी इंद्रा कही है । इक्यासी पदके वास्तुमें ये शिरा कही हैं ॥२१॥
श्रिया यशोवती कांता सुप्रिया परा शिवा सुशोभा सधना और नौमी इभा ॥२२॥
ये नौ शिरा पूर्वसे पश्चिमपर्यंत चौसष्ठ पदके वास्तुमें होती है. धन्या धरा विशाला स्थिररुपा गदा और निशा ॥२३॥
विभवा प्रभवा और सौम्या ये उत्तरदिशामें नौ ९ शिरा होती हैं पदके आठवें अंशको कर्मसंज्ञक भाग कहते हैं ॥२४॥
पदके हाथकी संख्यासे जो निवेश उसे अंगुल कहते हैं. विस्तारकिये वंशका जो ऊर्ध्वभाग ऊतना शिरका प्रमाण कहते हैं ॥२५॥
बासोंका जो सम्पात उसका भी मध्यम और समभाग जो हो वह भी शिराका मान जानना और उसके मध्यमें जो पद हो उन सबको भयके दाता जाने ॥२६॥
बुध्दिमान मनुष्य उन पदोंके शुध्द भाण्ड और कीलोंसे पीडित न करै. न स्तम्भ और शल्यके दोषोंसे पीडित करै, करै तो गृहके स्वामीको पीडा ॥२७॥
उसी अवयवमें होती है जिस अवयवमें वास्तुपुरुषके हो और जिस वास्तुके अंगमे कण्ड्रति ( खुजली ) करै उसी अंगमें घरके स्वामीके कण्डूति होती है ॥२८॥
होमके समयमें यज्ञ और भूमिकी परीक्षामें जहां अग्निका विकार होजाय वहां शल्यको कहै अर्थात विघ्नकी शंका होती है ॥२९॥
काष्ठके बांसमे धनकी हानि, अस्थिके बांसमे पशुओंमें पीडा और रोगका भय कहा है. हाथीदांत भी दूषित है ॥३०॥
इससे इन बहुत प्रकारके बांसोंको पृथक २ कहता हूं कि, रोगसे वायुपर्यत और शिखीसे पित्तरोंतक ॥३१॥
मुख्यसे भृंगतक, शोकसे वितथपर्यत, सुग्रीवसे अदितिपर्यंत, भृंगसे पर्जन्यपर्यंत ॥३२॥
ये बासं शास्त्रकारोंने कहे हैं और कहीं दुर्जयभी कहा है इनका जो पदके मध्यमें चारोम तरफ़का संपात है ॥३३॥
उसको प्रवेश कहते हैं वह त्रिशूल वा कोणके आकाराका जो होता है वह स्तंभोंको रखनेमें सदैव वर्जित है ॥३४॥
संपूर्ण कर्मोंमे वास्तुपुरुष दक्षिण और अग्निकोणमें आयत ( लम्बा ) कहा है, इक्यासी ८१ पदके इस वास्तुमें देवताओंके स्थापनको सुनो ॥३५॥
उसमें रेखाओंके फ़लकोभी संक्षेपसे कहताहूं और वर्णोके क्रमसे श्रेष्ठ अंगके स्पर्शको कहता हूं ॥३६॥
ब्राम्हण शिरका स्पर्श करके, क्षत्रिय नेत्रका स्पर्श करके, वैश्य जंघाओंका स्पर्श करके और शूद्र चरणोंका स्पर्श करके वास्तुके पूजनका प्रारंभ करै ॥३७॥
अंगूठेसे वा मध्यकी अंगुलीसे वा प्रदेशिनीसे अथवा सुवर्णं चांदी आदि धातुसे पूजनको करे ॥३८॥
अथवा मणिसे वा पुष्पोंसे वा दही अक्षत फ़लोंसे पूजन करे और शस्त्रसे पूजन करे तो शत्रुसे मृत्यु होती है. लोहेसे बन्धन और भस्मसे ॥३९॥
अग्निका भय, तृण और काष्ठ आदिक लिखनेसे राजासे भय होता है, वक्र ( टेढा ) और खंडित होनेपर शत्रुसे भय होता है ॥४०॥